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सर्वोच्च न्यायालय के 75 वर्ष

(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली, पंचायती राज, लोकनीति, अधिकारों संबंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य- सरकार के मंत्रालय एवं विभाग, प्रभावक समूह व औपचारिक/अनौपचारिक संघ तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका)

संदर्भ 

28 जनवरी, 2025 को भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने सर्वोच्च न्यायालय के स्थापना के डायमंड जुबली वर्ष के समापन समारोह को संबोधित किया और न्यायालय की कमियों और उपलब्धियों पर चर्चा की।

संबंधित प्रमुख बिदु  

  • 75 वर्षों में, सर्वोच्च न्यायालय में बहुत बदलाव आया है, लेकिन यह अपने मूल मिशन, सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करना, पर कायम है। 
  • संघीय संरचना: न्यायालय ने भारत की संघीय प्रणाली में शक्ति संतुलन को बरकरार रखा है। 
    • यह संतुलन संविधान की एक बुनियादी विशेषता है जिसे संवैधानिक संशोधनों द्वारा नहीं बदला जा सकता है।
  • 21वीं सदी में न्यायालय की भूमिका: न्यायालय की भूमिका व्यक्तिगत स्वतंत्रता, पर्यावरण अधिकार, बौद्धिक संपदा, गोपनीयता और सूचना के अधिकार सहित विविध क्षेत्रों में विस्तारित हुई है।
  • चुनावी लोकतंत्र: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विस्तार के रूप में उम्मीदवारों के बारे में सूचना प्राप्त करने के मतदाताओं के अधिकार को मान्यता देकर चुनावी लोकतंत्र को मजबूत किया है।
  • लैंगिक समानता: न्यायालय ने लैंगिक रूढ़िवादिता को खत्म किया, विशेष रूप से रोजगार में और कार्यस्थल में अधिक समानता का मार्ग प्रशस्त किया।
  • डिजिटल अधिकार: संवैधानिक संरक्षण के एक नए मोर्चे के रूप में डिजिटल अधिकारों को स्वीकार किया, ऑनलाइन भाषण और गोपनीयता की रक्षा की।
  • सामाजिक-आर्थिक न्याय: आर्थिक न्याय में, इसने सकारात्मक कार्रवाई को व्यापक बनाते हुए इसमें आर्थिक मानदंड को शामिल किया तथा आधुनिक समाज में असुविधा के विभिन्न रूपों को मान्यता दी।
  • आर्थिक स्पष्टता और निष्पक्षता: सर्वोच्च न्यायालय ने दिवाला और दिवालियापन संहिता, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम जैसे कानूनों में स्पष्टता व निष्पक्षता प्रदान किया है। 
    • वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का समर्थन करके भारत के आर्थिक ढांचे को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

सर्वोच्च न्यायालय के बारे में 

  • स्थापना: 26 जनवरी 1950 को भारत के संविधान के लागू होने के साथ अस्तित्व में आया।
    • किन्तु, 28 जनवरी 1950 को उद्घाटन किया गया।
  • न्यायाधीशों की संख्या : मूल संविधान में एक मुख्य न्यायाधीश और 7 अवर न्यायाधीशों का प्रावधान था। 
    • किन्तु समय के साथ, कार्यभार बढ़ने के कारण न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि होती गई और वर्ष 2019 में 34 न्यायाधीश (वर्तमान संख्या) का प्रावधान किया गया।

भूमिका

  • सर्वोच्च न्यायालय यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि कानून संविधान के अनुरूप हों, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो और सरकार के विभिन्न अंगों के बीच विवादों का समाधान हो।
  • यह संविधान और राष्ट्रीय महत्व के कानूनी मामलों की व्याख्या करने के लिए अंतिम अपीलीय न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है।
  • सलाहकारी भूमिका: अनुच्छेद 143 के तहत भारत के राष्ट्रपति को सलाह दे सकता है।
  • न्यायालय की अवमानना: अनुच्छेद 129 और 142 के तहत अवमानना ​​के लिए दंडित करने की शक्ति। 

मूल अधिकार क्षेत्र

  • अनन्य मूल अधिकार क्षेत्र: भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के मध्य विवाद के स्थिति में।
  • अनुच्छेद 32: मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन।
    • सर्वोच्च न्यायालय रिट जारी कर सकता है (जैसे, बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार वारंटो, उत्प्रेषण)।
  • मामलों का हस्तांतरण: उच्च न्यायालयों या अधीनस्थ न्यायालयों के बीच दीवानी या आपराधिक मामलों को स्थानांतरित करने की शक्ति।
  • अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता: मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत। 

अपीलीय अधिकार क्षेत्र

  • उच्च न्यायालय से अपील: अनुच्छेद 132(1), 133(1), 134 के तहत संविधान के संबंध में विधि के महत्वपूर्ण प्रश्न पर।
  • दीवानी मामले की अपील : यदि उच्च न्यायालय सामान्य महत्व के विधि के महत्वपूर्ण प्रश्न को प्रमाणित करता है अथवा उच्च न्यायालय की राय में, उक्त प्रश्न का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।
  • आपराधिक मामले: अपील यदि, उच्च न्यायालय दोषमुक्ति के फैसले को पलट दे और दोषी ठहराए (मृत्यु, आजीवन कारावास, 10+ वर्ष)।
  • अपील के लिए विशेष अनुमति: अनुच्छेद 136 के तहत भारत में किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी भी निर्णय के लिए।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौतियाँ

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के अनुसार तीन प्रमुख चुनौतियाँ हैं-

  • केस बैकलॉग और पेंडेंसी: वर्ष 2023 के अंत तक सर्वोच्च न्यायालय में 80,439 मामले लंबित हैं।
    • यह देरी कानूनी प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करती है।
  • मुकदमेबाजी की बढ़ती लागत: इसके कारण कई नागरिकों, विशेषकर हाशिए के समुदायों के लिए न्याय तक पहुँचना कठिन हो जाता है।
    • यह संविधान के तहत समान न्याय के सिद्धांत (अनुच्छेद 14) को प्रभावित करता है।
  • कानूनी व्यवहार में झूठ: झूठी गवाही, अदालत को गुमराह करने और अनैतिक कानूनी रणनीति सहित झूठ का अभ्यास न्यायिक प्रणाली की अखंडता को कमजोर करता है।
    • यह कानूनी प्रक्रिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता से समझौता करता है।

अन्य चुनौतियाँ 

  • अंकल जज सिंड्रोम : भारतीय विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में ‘अंकल जजों’ (जहाँ न्यायाधीशों के परिजन पहले से प्रैक्टिस कर रहे हैं) की नियुक्ति के मामले में चिंता व्यक्त की है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता और अतिक्रमण: न्यायिक अतिक्रमण से बचते हुए न्यायिक स्वतंत्रता बनाए रखने संबंधी चिंताएँ हैं, विशेषकर उन क्षेत्रों में जो पारंपरिक रूप से कार्यपालिका या विधायिका द्वारा प्रबंधित किए जाते हैं।
  • असंगत निर्णय और परस्पर विरोधी निर्णय: विभिन्न पीठों में असंगत निर्णय और कभी-कभी विरोधाभासी निर्णय भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं।
  • न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करना: वर्तमान समय में भी न्यायालय सभी नागरिकों, विशेषकर ग्रामीण या वंचित क्षेत्रों में न्याय तक समान और आसान पहुँच सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष कर रहा है।

सुझाव 

लंबित मामलों की संख्या में कमी

  • न्यायालय की दक्षता में वृद्धि: प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने, देरी को कम करने और मामलों की सुनवाई में तेज़ी लाने के लिए डिजिटल केस प्रबंधन प्रणाली जैसे प्रौद्योगिकी समाधानों की मदद ली जा सकती है।
  • न्यायिक शक्ति में वृद्धि: व्यक्तिगत न्यायाधीशों पर केस का बोझ कम करने और मामलों का समय पर निपटान सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर विचार किया जा सकता है।
  • विशेष न्यायालयों की शुरुआत: विशिष्ट प्रकार के मामलों (जैसे, वाणिज्यिक, कर, पर्यावरण) को संभालने के लिए विशेष बेंच या न्यायालय बनाए जा सकते हैं, जो तेज़ और अधिक कुशल निर्णय में मदद करेंगे।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR): मध्यस्थता और सुलह जैसे तंत्रों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और उनका विस्तार किया जाना चाहिए।

मुकदमेबाजी की लागत कम करना और सुलभता सुनिश्चित करना

  • कानूनी सहायता: वंचित पृष्ठभूमि के नागरिकों को कानूनी प्रतिनिधित्व का खर्च उठाने में सक्षम बनाने के लिए कानूनी सहायता प्रणाली को मजबूत और विस्तारित किया जाना आवश्यक है। 
  • निःशुल्क सेवाएँ: अधिक संख्या में वकीलों और कानूनी फर्मों को निःशुल्क सेवाएँ प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, विशेषकर उन मामलों में जिनमें सार्वजनिक हित शामिल हैं। 
  • न्यायालय शुल्क में कमी: न्यायालयों में, विशेष रूप से निचली अदालतों में, मामलों को दायर करने के लिए शुल्क संरचना को संशोधित करने पर विचार किया जाना चाहिए। 
  • पहुँच के लिए प्रौद्योगिकी: कानूनी प्रक्रिया को अधिक सुलभ बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, मामलों की ऑनलाइन फाइलिंग, वर्चुअल सुनवाई आदि। 

सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करना और झूठ को संबोधित करना

  • वकीलों के लिए सख्त नियम: भ्रामक या धोखाधड़ी वाले व्यवहार में शामिल वकीलों या पक्षों के खिलाफ कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। 
  • साक्ष्य का सत्यापन: झूठ द्वारा न्याय को प्रभावित करने से रोकने के लिए न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य की प्रामाणिकता को सत्यापित करने के लिए बेहतर प्रणालियों के विकास हेतु प्रयास किया जा सकता है। 
  • सार्वजनिक जवाबदेही: नियमित ऑडिट और अदालती कार्यवाही तथा निर्णयों तक सार्वजनिक पहुँच के माध्यम से न्यायिक और कानूनी प्रथाओं में पारदर्शिता एवं जवाबदेही बढ़ायी जा सकती है।
  • न्यायिक संयम के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश: संतुलन बनाए रखने और अतिक्रमण से बचने के लिए, विशेष रूप से कार्यकारी या विधायी डोमेन के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में न्यायिक हस्तक्षेप के लिए स्पष्ट मानदंड स्थापित किया जाना चाहिए।

निर्णयों में निरंतरता और परस्पर विरोधी निर्णयों को कम करना

  • केस लॉ डेटाबेस: निर्णयों का एक केंद्रीकृत और अद्यतन डेटाबेस विकसित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि न्यायाधीशों के पास प्रासंगिक केस लॉ तक आसान पहुँच हो। यह परस्पर विरोधी निर्णयों को कम करने में मदद कर सकता है।
  • नियमित समीक्षा तंत्र: एक ऐसी प्रणाली लागू की जा सकती है जिसमें विभिन्न पीठों के निर्णयों की नियमित रूप से समीक्षा की जाए ताकि विसंगतियों को दूर किया जा सके और स्पष्टता प्रदान की जा सके।

सभी नागरिकों के लिए न्याय तक पहुँच में सुधार

  • न्यायपालिका का विकेंद्रीकरण: न्याय को अधिक सुलभ बनाने के लिए ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में निचली अदालतों एवं न्यायिक बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
  • कानूनी साक्षरता अभियान: लोगों को उनके कानूनी अधिकारों और न्याय तक पहुँचने के तरीके के बारे में शिक्षित करने के लिए कानूनी साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया जा सकता है, विशेषकर दूरदराज और हाशिए के क्षेत्रों में।

प्रौद्योगिकी और डिजिटलीकरण

  • ई-कोर्ट और वर्चुअल सुनवाई: दक्षता में सुधार व देरी को कम करने के लिए ई-कोर्ट और वर्चुअल सुनवाई के उपयोग का विस्तार किया जाना चाहिए।
  • डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम: सभी न्यायालयों में केस मैनेजमेंट सिस्टम को एकीकृत किया जाना चाहिए। इससे मामलों की सुनवाई प्रक्रिया में तेज़ी आएगी, केस की स्थिति पर बेहतर नज़र रखी जा सकेगी और न्यायपालिका, वकीलों तथा संबंधित पक्षों के बीच निर्बाध संचार हो सकेगा।
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