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मृत्युदंड की सज़ा का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : सामाजिक न्याय, अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि; सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-4 : नीतिशास्त्र- कमज़ोर वर्गों के प्रति सहानुभूति, सहिष्णुता तथा संवेदना)

संदर्भ

  • हाल ही में, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के अंतर्गत प्रोजेक्ट 39ए ने ‘डेथवर्थी: ए मेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव ऑफ द डेथ पेनल्टी’ रिपोर्ट प्रकाशित की। यह रिपोर्ट मृत्युदंड की सज़ा प्राप्त कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य, बौद्धिक अक्षमताओं और उनके मनोविज्ञान पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण करती है।
  • मृत्युदंड की सज़ा प्राप्त कैदियों की मानसिक स्वास्थ्य स्थिति और बौद्धिक अक्षमताओं के बारे में पर्याप्त डाटा उपलब्ध नहीं है, ऐसे में यह रिपोर्ट इस विषय पर समझ को बेहतर बनाने में मदद करती है।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु

  • यह रिपोर्ट भारत में मृत्युदंड की सज़ा प्राप्त 88 कैदियों के विस्तृत अध्ययन पर आधारित है। इनमें से 30 अवसादग्रस्त, 19 चिंता विकार और तीन कैदी मनोविकृति (Psychotic Disorder) से ग्रस्त पाए गए। इनमें से लगभग 9 प्रतिशत कैदियों ने आत्महत्या का प्रयास किया, जबकि लगभग 50 प्रतिशत ने आत्महत्या पर विचार करने की बात स्वीकार की।
  • रिपोर्ट के अनुसार, मृत्युदंड की सज़ा प्राप्त इन कैदियों में से लगभग 11 प्रतिशत में बौद्धिक अक्षमता के लक्षणों के साथ-साथ बौद्धिक क्रियाकलापों में कठिनाई के लक्षण भी देखे गए।

भारत में निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की स्थिति

  • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने देशों से "किसी भी प्रकार के मानसिक विकार वाले व्यक्ति को मृत्युदंड की सज़ा न देने या सज़ा को क्रियान्वित न करने" की अपील की है। फिर भी, अधिकांश देशों के कानून स्पष्ट रूप से इस पर रोक नहीं लगाते।
  • मानसिक बीमारी और बौद्धिक अक्षमता मृत्युदंड को जटिल बनाती है क्योंकि, मानसिक बीमारी और बौद्धिक अक्षमता वाले व्यक्ति वकीलों को अपने बचाव के लिये पर्याप्त जानकारी देने में सक्षम नहीं होते हैं, जो हमारे संविधान में निहित निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को प्रभावित कर सकता है।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 84 में वर्णित ‘विक्षिप्तता से प्रतिरक्षा’ (INSANITY DEFENCE) को अधिक विरोध के कारण सभी मामलों में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। इसीलिये सामान्यत: अदालतें बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा मानसिक विक्षिप्तता अथवा पागलपन की दलील पर विचार के लिये तैयार नहीं होती हैं।
  • महाराष्ट्र राज्य बनाम संतोष मारुति माने वाद (2014) में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति द्वारा तेज़ रफ़्तार बस से 9 लोगों को कुचलने के मामले में मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर दाखिल याचिका को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने मौत की सज़ा की पुष्टि करते हुए कहा था कि "घटना से पूर्व उपचार होना केवल पर्याप्त नहीं है, यह सत्यापित करना होगा कि अपराध करने के समय आरोपी मानसिक रूप से विकृत था और अपनी क्रियाओं के परिणाम को समझने में असमर्थ था”।
  • वास्तव में, अपराध किये जाने के कुछ समय बाद किसी भी मनोचिकित्सक के लिये यह प्रमाणित करना असंभव है कि जब अपराध किया गया था उस समय अभियुक्त की मानसिक अवस्था क्या थी।
  • शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत संघ वाद (2014) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि मानसिक बीमारी की स्थति में मृत्युदंड की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल देना चाहिये। इसके बावजूद अदालतें सज़ा देते समय मानसिक बीमारी को सज़ा कम करने वाला कारक नहीं मानती हैं।

रिपोर्ट के अन्य पहलू

  • यह रिपोर्ट मानसिक बीमारी को निर्धारित करने वाले महत्त्वपूर्ण किंतु उपेक्षित सामाजिक कारकों पर भी प्रकाश डालती है, जैसे- मानसिक बीमारी गरीबों में अधिक देखी जाती है और इन रोगियों की गरीबी में ही मरने की संभावना अधिक होती है।
  • जिन लोगों के साथ बचपन में दुर्व्यवहार हुआ है, तुलनात्मक रूप से उनमें वयस्क अवस्था में मानसिक बीमारी की चपेट में आने की संभावना अधिक होती है। यह रिपोर्ट गरीबी, दुर्व्यवहार, उपेक्षा और हिंसा के संबंध में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है जो मौत की सज़ा पाने वाले अधिकतर कैदियों में मानसिक बीमारी को प्रदर्शित करती है।
  • यह रिपोर्ट मौत की सज़ा पाने वाले व्यक्तियों के परिवारों की पीड़ा, कलंक और उनके सामाजिक बहिष्करण पर भी प्रकाश डालती है।

मनो-सामाजिक दृष्टिकोण:

  • विशेषज्ञों का मत है कि सज़ा निर्धारण के समय अदालतों को ‘बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद’ (वर्ष 1980) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मनो-सामाजिक दृष्टिकोण संबंधी निर्धारित मानकों को अपनाना चाहिये।
  • सर्वोच्च न्यायलय ने अदालतों को मृत्युदंड से पहले दोषी व्यक्ति की मानसिक स्वास्थ्य स्थिति को भी ध्यान में रखने का निर्देश दिया था, जैसे कि घटना के समय व्यक्ति ‘अत्यधिक मानसिक या भावनात्मक अशांति’ और ‘दबाव’ में तो नहीं था।
  • मनो-सामाजिक दृष्टिकोण अदालतों को किसी व्यक्ति के पार्श्व जीवन और उससे संबंधित मानसिक स्थिति के अवलोकन की अनुमति देगा।
  • रिपोर्ट के अनुसार, "उन लोगों को मृत्युदंड की सज़ा दी गई है, जो अपनी अक्षमता की प्रकृति के कारण इससे मुक्त हो सकते हैं।" इसलिये कानूनी और आपराधिक न्याय प्रणाली में शामिल लोगों को इस पर विचार करना चाहिये।
  • रिपोर्ट में सुझाया गया है कि मानसिक बीमारी कोई अपराध नहीं है। मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोग अपने अधिकारों के उल्लंघन के प्रति संवेदनशील होते हैं, इसलिये मानसिक बीमारी या बौद्धिक अक्षमता से ग्रस्त कैदियों को फांसी देने से न्याय का उद्देश्य पूरा नहीं होता है।
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