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अफगान-तालिबान वार्ता और भारत 

(मुख्य परीक्षा; सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र- 2, विषय- अंतर्राष्ट्रीय संबंध; द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)

संदर्भ

हाल ही में, ताज़िकिस्तान में आयोजित हुए 9 वें हार्ट ऑफ एशिया सम्मेलन में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्पष्ट किया कि भारत ‘अफगानिस्तान-तालिबान के मध्य वार्ता’ का समर्थन करता है। भारत का यह रुख अफगान संकट के प्रति भारत के दृष्टिकोण में एक सूक्ष्म परिवर्तन को दर्शाता है।

भारत का रुख

  • वर्ष 1990 और 2000 के दशक में, भारत लगातार तालिबान के साथ किसी भी समझौते या सौदे के विरोध में था, किंतु विगत कुछ समय से भारत के इस रवैये में बदलाव आया है।
  • वर्ष 2018 में, जब रूस ने ‘अफगान-तालिबान वार्ता’ की मेज़बानी की थी, तब भारत ने इसमें शामिल होने के लिये एक राजनयिक प्रतिनिधिमंडल भेजा था।
  • सितंबर 2020 में, दोहा में संपन्न ‘अंतर-अफगान शांति वार्ता’ में एस. जयशंकर ने एक डिजिटल मंच के माध्यम से उद्घाटन सत्र में भाग लिया। उन्होंने भारत का पक्ष स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘कोई भी शांति स्थापित करने से संबंधित प्रक्रिया अफगान-नेतृत्व में, अफगान-अधिकृत और अफगान-नियंत्रित होनी चाहिये’।
  • भारत ने ‘अफगान-तालिबान शांति वार्ता’ पर अपने पूर्ववर्ती रुख में परिवर्तन करते हुए बाइडन प्रशासन द्वारा प्रस्तुत योजना ‘संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में बहुपक्षीय सम्मेलन के आयोजन’ का समर्थन किया है और तालिबान से निपटने की इच्छा व्यक्त की है।
  • ‘अफगान-तालिबान’ मामले पर भारत की नीति अफगानिस्तान की वास्तविक परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित होती रही है। चूँकि अफगानिस्तान में तालिबान अब कोई बाहरी शक्ति नहीं है तथा देश के ग्रामीण क्षेत्रों पर इसका प्रभावी नियंत्रण है, अतः भारत अब अफगानिस्तान में अपना पक्ष मज़बूत करने के लिये ‘अंतर-अफगान शांति वार्ता’ का समर्थन कर रहा है।

वैश्विक शक्तियों का पक्ष

  • बाइडन प्रशासन ने ‘अफगान- तालिबान शांति स्थापना’ के लिये दो प्रस्ताव प्रस्तुत किये हैं; पहला, युद्धरत दलों के बीच आपसी सामंजस्य से परिवर्तित एकल-सरकार का गठन और दूसरा, संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में एक बहुपक्षीय सम्मेलन का आयोजन, जिसमें भारत, चीन, ईरान, पाकिस्तान, रूस और अमेरिका के प्रतिनिधि शामिल हों।
  • इसके अतिरिक्त, अमेरिका पहले ही तालिबान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर कर चुका है, जिसके अनुसार वह मई तक अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाने पर सहमत हुआ है।
  • चीन ने काफी समय पूर्व ही तालिबान तक अपनी पहुँच सुनिश्चित कर ली थी। रूस भी ‘अफगान-तालिबान शांति वार्ता’ की मेज़बानी कर चुका है। साथ ही, वार्ता को प्रायोजित करने में यूरोपीय शक्तियों ने भी रुचि दिखाई है।  

अफगानिस्तान और भारत के हित

  • तालिबान के पतन के बाद से भारत ने शिक्षा, विद्युत उत्पादन, सिंचाई और आधारभूत अवसंरचनाओं के विकास से जुड़ी अनेक परियोजनाओं में निवेश के माध्यम से अफगानिस्तान के साथ संबंध मज़बूत किये हैं।
  • भारत की अफगानिस्तान के लिये 3 बिलियन यू.एस. डॉलर की विकास साझेदारी है, जिसमें इसके सभी 34 प्रांतों के लिये 550 से अधिक सामुदायिक विकास परियोजनाएँ (काबुल में अधिक पेयजल का वादा उस सूची में नवीनतम है) भी शामिल हैं।
  • ईरान के चाबहार बंदरगाह के माध्यम से भारत और अफगानिस्तान के शहरों के मध्य समर्पित ‘एयर फ्रेट कॉरिडोर’ परियोजन भी दोनों देशों के बीच मज़बूत आर्थिक एकीकरण का एक प्रयास है।
  • भारत कोविड वैक्सीन की पहली खेप अफगानिस्तान को फरवरी में प्रदान कर चुका है।
  • हाल ही में, भारत ने काबुल के पास शहतूत बाँध के निर्माण के लिये एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
  • ऐसे में, यदि अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व बढ़ता है तो भारत के साथ इसके आर्थिक, सामरिक और सुरक्षा संबंध प्रभावित हो सकते हैं, अतः भारत को अफगानिस्तान और तालिबान, दोनों ही पक्षों के साथ एक संतुलन स्थापित करना होगा।

निष्कर्ष

  • अन्य हितधारकों की तरह भारत को भी यह विचार करना होगा कि तालिबान के आत्म समर्पण के बिना वह किस प्रकार हिंसा को समाप्त करने में अफगानिस्तान की सहायता कर सकता है।
  • शांति प्रक्रिया में शामिल होने वाला भारत अपनी रणनीति के माध्यम से अफगान सरकार को मज़बूत बना सकता है, क्योंकि इसका पक्ष अभी कमज़ोर है। 
  • साथ ही, भारत अपने क्षेत्रीय प्रभाव तथा अमेरिका और रूस के साथ अपने गहरे संबंधों का उपयोग करके अफगानिस्तान के साथ-साथ इस पूरे क्षेत्र में ‘दोहरी शांति’ स्थापित करने का प्रयास कर सकता है।

हार्ट ऑफ एशिया

  • ‘हार्ट ऑफ एशिया’ की स्थापना 2 नवंबर, 2011 को इस्तांबुल (तुर्की) में हुई थी। इसका उद्देश्य अफगानिस्‍तान और संबंधित क्षेत्र में शांति, स्थिरता एवं समृद्धि के लिये बेहतर विकल्‍पों को तलाशना और इन पर अंतर्राष्ट्रीय सहमति बनाना है।
  • यह एक अतंर-सरकारी संगठन हैं। इसके सदस्य देशों की संख्या 14 है, जिनमें भारत भी शामिल है। इसके अतिरिक्त,  इसके 17 सहयोगी देश और 12 अंतर्राष्ट्रीय संगठन सहायक हैं।
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