(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा: प्रश्नपत्र- 2: भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय तथा वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित हितों को प्रभावित करने वाले करार)
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र सचिवालय ने अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया का समर्थन करने हेतु क्षेत्रीय प्रयासों पर "6+2+1" समूह की बैठक आयोजित की। क्षेत्रीय चर्चाओं से अलग, भारत को अभी भी शांति प्रक्रिया में पर्याप्त अवसरों को तलाशना चाहिये।
6+2+1 समूह
इस समूह में अफगानिस्तान सहित 9 देश शामिल हैं। 'अंक 6' अफगानिस्तान के 6 सीमावर्ती देशों- चीन, ईरान, पाकिस्तान तथा ताज़ि8/किस्तान, तुर्कमेनिस्तान व उज्बेकिस्तान को इंगित करता है। 'अंक 2' दो वैश्विक शक्तियों अमेरिका और रुस को इंगित करता है। 'अंक 1' स्वयं अफगानिस्तान को इंगित करता है। अफगानिस्तान के साथ ऐतिहासिक और सामरिक सम्बंधों को देखते हुए भारत की अनुपस्थिति बिल्कुल स्पष्ट थी।
पूर्व में भारत द्वारा अस्वीकरण का कारण
- यह पहली बार नहीं है कि भारत को अफगानिस्तान से सम्बंधित चर्चाओं से बाहर रखा गया है। दिसम्बर 2001 में भी बॉन (जर्मनी) में अफगानिस्तान पर प्रसिद्ध 'बॉन समझौते' पर हुई बातचीत के लिये गए भारतीय दल को कोई आधिकारिक स्थान (सीट) उपलब्ध नहीं कराया गया था।
- जनवरी 2010 में भी भारत को अफगानिस्तान पर हुये 'लंदन सम्मेलन' में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया गया था। भारत ने एक महत्त्वपूर्ण बैठक के दौरान इसका बहिष्कार कर दिया क्योंकि इसमें तालिबान के साथ वार्ता शुरू करने का निर्णय लिया गया था।
- वर्ष 2001 और 2010 दोनों में, भारत ने अपने को सफलतापूर्वक बाहर कर लिया। बॉन समझौते द्वारा भारतीय राजदूत ने यह सुनिश्चित किया कि उत्तरी गठबंधन के नेताओं द्वारा हामिद करजई को तालिबान शासन की जगह लेने वाली अंतरिम व्यवस्था के अध्यक्ष के रूप में स्वीकारने पर आम सहमति बने।
- वर्ष 2010 के सम्मेलन के बाद नई दिल्ली ने काबुल के साथ अपने सम्बंधों और प्रयासों को पुनः परिभाषित करते हुए आगे बढ़ाया। वर्ष 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजई ने ऐतिहासिक रणनीतिक साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर किये। यह किसी देश के साथ अफगानिस्तान का पहला ऐसा समझौता था।
भारत का वर्तमान रूख़
- वर्ष 2020 में भारत को अफगानिस्तान सम्बंधी चर्चाओं से दूर रखने का कारण यह माना गया कि भारत और अफगानिस्तान कोई सीमा साझा नहीं करते हैं। वास्तविकता इसके उलट है क्योंकि भारत ने कभी भी अमेरिका-तालिबान शांति प्रक्रिया और वार्ता के लिये अपने समर्थन की घोषणा नहीं की है।
- सार्वजनिक रूप से तालिबान से बात करने के लिये भारत के प्रतिरोध ने इसे एक अजीब स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। भारत केवल एक अफगान-नीत, अफगान-स्वामित्व वाली और अफगान-नियंत्रित (Afgan-Led, Afgan-Owned and Afgan-Controlled) प्रक्रिया की अनुमति देने की बात करता है। यह एक ऐसा सिद्धांत है परंतु इसमें रुचि लेने वाला कोई नहीं है।
- वर्तमान स्थिति में काबुल या अशरफ गनी सरकार सुलह प्रक्रिया का नेतृत्व व नियंत्रण नहीं कर रही है। अमेरिकी-तालिबान शांति समझौते का एक निहितार्थ यह भी है कि तालिबान अधिक शक्तिशाली हो जाएगा क्योंकि अमेरिका अफगानिस्तान से सैनिकों को वापस बुला रहा है। इसके अलावा, तालिबान का वर्चस्व अंतः अफ़गान प्रक्रिया में अधिक हो जाएगा क्योंकि अमेरिका काबुल को मिल रहे वित्त-पोषण को भी रोक रहा है।
भारत के रुख़ पर प्रभाव
- भारत द्वारा अशरफ गनी सरकार के लिये आधार तैयार करने के निर्णय से दो तरफा प्रभाव पड़ा है।
- एक ओर सुलह प्रक्रिया में भारत की आवाज़ और हिस्सेदारी काफी सीमित हुई है। दूसरी ओर इसने काबुल में गहरे रूप से विभाजित लोकतांत्रिक सेटअप वाले अन्य नेताओं (जैसे-पूर्व मुख्य कार्यकारी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह) के साथ अपनी स्थिति को कमज़ोर कर लिया है।
- अफगानिस्तान के अंदर भारत की मौजूदगी विशेषकर वर्ष 2001 के बाद बनाये गए आधार व उपस्थिति को आतंकी समूह द्वारा नए सिरे से खतरा उत्पन्न हो गया है।
- इन समूहों में इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (ISKP) भी शामिल है। ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तान समर्थित समूहों द्वारा इसको सहयोग प्रदान किया जाता है। काबुल में गुरुद्वारे में हालिया हमला वास्तव में दूतावास पर हमले की योजना का हिस्सा था।
- इसके अतिरिक्त खुफिया एजेंसियों ने पिछले वर्ष दिसम्बर में भी जलालाबाद और हेरात में वाणिज्यक दूतावासों को निशाना बनाकर हमले की चेतावनी दी थी। सरकार ने कहा है कि कोविड-19 महामारी ने अप्रैल 2020 में दोनों वाणिज्यक दूतावासों को खाली कराने के निर्णय के लिये प्रेरित किया है। वस्तुस्थिति यह है कि उनके लिये पूर्ण सुरक्षा मूल्यांकन का कार्य प्रक्रिया में है।
- किसी भी प्रकार से अफगानिस्तान में भारत की कूटनीतिक मज़बूती सबसे ज्यादा ज़रूरत के समय में पीछे हटने वाली नहीं होनी चाहिये। भारत में हुए हालिया घटनाक्रमों से अफगानिस्तान में भारतीय के प्रति होने वाली सद्भावना में कमी पर विचार किया जाना चाहिये। इसके लिये विशेष रूप से नागरिकता संशोधन अधिनियम पर विचार करना चाहिये। अफगानिस्तान के बहुसंख्यक मुस्लिम नागरिक, जो भारत को दूसरे घर के रूप में मानते हैं, उनको इस कदम से अलगाव महसूस हुआ है।
- इस सद्भावना निर्माण में भारतीय सहायता जैसे-बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा तथा व्यापार व खाद्य सुरक्षा का योगदान रहा है। हालिया कुछ घटनाओं व अल्पसंख्यक विरोधी रिपोर्ट ने भारत के बहुलवादी और समावेशी लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाया है।
भारत के पास विकल्प
- भारत को अफगानिस्तान में अपनी स्थिति पुनः मज़बूत करने के लिये तेजी से आगे बढ़ना चाहिये। अफगानिस्तान के क्षेत्रीय निर्माण के लिये आश्वासन भारत की भूमिका को मज़बूत करेगा। इसमें भारत द्वारा परियोजनाओं के लिये 3 बिलियन डॉलर से अधिक की सहायता के साथ-साथ लगभग 1 बिलियन डालर का व्यापार शामिल है।
- इसके अलावा, चाबहार के माध्यम से वैकल्पिक मार्ग के विकास के लिये $ 20 बिलियन का अनुमानित खर्च और भारत द्वारा अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सेना, नौकरशाहों, चिकित्सकों और अन्य पेशेवरों को प्रशिक्षण सुविधा में सहायता शामिल है।
- साथ ही तीन प्रमुख परियोजनाओं, जिसमें अफगान संसद, ज़रांज-डेलाराम राजमार्ग और अफगानिस्तान-भारत मैत्री बाँध (सलमा बाँध) भी शामिल है। इसके अतिरिक अन्य सैकड़ों छोटी-बड़ी विकास परियोजनाओं ने पाकिस्तान की कोशिशों के बावजूद भारत की स्थिति को मज़बूत किया है।
- ऐसे बिंदु पर भारत द्वारा केवल काबुल या गनी सरकार को समर्थन देना एक गलती होगी। भारत सरकार को यह प्रयास करना चाहिये कि उसकी सहायता और विकास व्यापक रूप से राजधानी के बाहर के केंद्रों पर भी आधारित हो। तालिबान के कब्जे वाले इलाकों में भी ऐसी गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिये।
- भारत को अफगानिस्तान में शांति प्रयासों में अपनी भूमिका बढ़ाने के लिये अवसरों की खोज करनी चाहिये। जो गनी-अब्दुल्लाह के बीच मतभेद को कम करने तथा उनको एक साथ लाने के प्रयासों से शुरू होता है।
- स्थाई शांति के लिये अमेरिका और ईरान के बीच अफगानिस्तान पर एक सहमति बनानी आवश्यक है। इसमें भारत मध्यस्थ के रूप में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।
- भारत को कोविड-19 महामारी के दौरान संघर्षों में विराम लगाने के लिये संयुक्त राष्ट्र के आह्वान का उपयोग करना चाहिये। अंततः, इन सबके अतिरिक्त, नई दिल्ली को अफगानिस्तान में अपने प्रयासों को मजबूत करने हेतु एक विशेष दूत कि नियुक्त पर भी विचार करना चाहिये क्योंकि अतीत में ऐसा किया जा चुका है।