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कृषि कानून और उनकी संवैधानिक वैधता

(प्रारंभिक परीक्षा- भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : संघीय ढाँचे से संबंधित विषय एवं चुनौतियाँ)

संदर्भ

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि कानूनों के संचालन पर रोक लगाने के साथ-साथ सरकार तथा किसानों के साथ बातचीत करने के लिये विशेषज्ञों की एक समिति गठित की है। इसके गठन को लेकर किसान संघों की प्रतिक्रिया नकारात्मक रही है, जिससे किसानों द्वारा किया जा रहा आंदोलन एक नए चरण में प्रवेश कर रहा है। किसानों का कहना है कि इस समिति में शामिल अधिकांश विशेषज्ञ पूरी तरह से निष्पक्ष नहीं हैं और वे कृषि कानूनों के प्रबल समर्थक हैं।

वर्तमान स्थिति

  • सरकार और किसानों के साथ बातचीत करने के लिये समिति के सदस्यों को मुख्य मुद्दों पर खुले दिमाग से विचार करना चाहिये, जो संबंधित पक्षों में विश्वास पैदा करेगा। हालाँकि, किसान इन कानूनों को निरस्त करने को लेकर अडिग हैं, जिसका तात्पर्य है कि वर्तमान आंदोलन अनिश्चित काल तक जारी रह सकता है।
  • साथ ही, यह स्पष्ट नहीं है कि इस समिति की सिफारिश का कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अत: कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता का सवाल न्यायालय के समक्ष मामले की उचित सुनवाई के बाद ही तय किया जा सकता है। यदि न्यायालय कानूनों की वैधता की पुष्टि करता है, तो इस विरोध प्रदर्शन के जारी रहने की संभावना है।
  • ऐसा लगता है कि कृषि कानूनों को निरस्त करने के मुद्दे को सरकार अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर देख रही है, क्योंकि किसी कानून का निरसन एक साधारण विधायी कार्य है।

कृषि कानून की वैधता और नियम

  • कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य रूप से इस आधार पर चुनौती दी गई है कि संसद के पास इन कानूनों को लागू करने की कोई विधायी शक्ति नहीं है, क्योंकि यह विषय दरअसल राज्य सूची का विषय है।
  • हालाँकि, इन अधिनियमों को चुनौती देने का मौलिक कारण ज़्यादा है, जिसकी अब जाँच की जाएगी क्योंकि यह कहा जा रहा है राज्य सभा में इन विधेयकों पर मतदान सदन के नियमों के अनुसार नहीं कराया गया था।
  • इन नियमों के अनुसार, एक सदस्य द्वारा भी माँग किये जाने की स्थिति में अध्यक्ष को सदस्यों द्वारा मतदान (विभाजन) की रिकॉर्डिंग का आदेश देने की आवश्यकता होती है, जबकि कुछ सदस्यों की माँग के बावजूद उस समय मत विभाजन का आदेश नहीं दिया गया था। अत: ध्वनि मत से विधेयकों को पारित करने से सदन के नियमों का उल्लंघन हुआ।

ध्वनि मत और संबंधित समस्या

  • यहाँ मामला सदन के नियमों के उल्लंघन से परे है क्योंकि इसमें स्वयं संविधान का उल्लंघन शामिल है। अनुच्छेद 100 के अनुसार, किसी भी सदन के किसी भी बैठक में सभी प्रश्न उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से निर्धारित किये जाएँगे।
  • बहुमत को केवल संख्या के संदर्भ में निर्धारित किया जा सकता है और इसलिये इस अनुच्छेद के अनुसार सदन में सभी प्रश्नों का निर्धारण उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का वोट रिकॉर्ड करके किया जाना चाहिये।
  • वास्तव में संविधान बहुमत निर्धारित करने के लिये ध्वनि मत को मान्यता नहीं देता है। हालाँकि, ध्वनि मत के द्वारा प्रश्नों को तय करना सभी जगह प्रचलित है।
  • इस व्यवस्था की परिकल्पना सुविधा के लिये की गई थी। यह धारणा है कि चूँकि सरकार के पास बहुमत होता है, अत: सदन के किसी भी प्रस्ताव को बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है।
  • हालाँकि, जब कोई सदस्य सदन में मतदान की माँग करता है तो अध्यक्ष के पास वास्तविक मतदान का आदेश देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। चूँकि इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया तथा विधेयकों को ध्वनि मत से पारित किया गया और इसलिये यह नियमों के साथ-साथ संविधान का भी उल्लंघन है।

सदन की कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा

  • यद्यपि संविधान का अनुच्छेद 122 सदन की कार्यवाही को न्यायिक समीक्षा से सुरक्षा प्रदान करता है। हालाँकि, यह सुरक्षा केवल तभी उपलब्ध होती है जब कार्यवाही को प्रक्रिया की अनियमितता के आधार पर चुनौती दी जाती है।
  • संविधान का उल्लंघन मात्र प्रक्रिया की अनियमितता नहीं है। ‘राजा राम पाल मामले’ में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि कार्यवाही को संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन जैसे महत्वपूर्ण आधारों पर चुनौती दी जा सकती है।
  • राज्य सभा में कृषि विधेयक को संविधान के अनुच्छेद 100 के उल्लंघन में पारित किया गया है और इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी जा सकती है।

न्यायपालिका के समक्ष विकल्प

  • न्यायालय सभी कानूनों को पूरी तरह से रद्द कर सकता है क्योंकि अनुच्छेद 107 के अनुसार तय प्रक्रिया को पूरा नहीं किया गया है। इसके अनुसार, किसी विधेयक को तब तक पारित नहीं माना जाएगा जब तक कि दोनों सदनों द्वारा इस पर सहमति नहीं बन जाती।
  • न्यायालय राज्य सभा की कार्यवाही को भी अमान्य घोषित कर सकता है और तीनों अधिनियमों को संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार आगे की कार्यवाही के लिये उस सदन को वापस भेज सकता है।
  • यदि ऐसा होता है, तो सरकार के पास इन कानूनों को पुन: प्रस्तुत करने का एक अच्छा अवसर होगा। इन्हें राज्य सभा की एक प्रवर/चयन समिति को भेजा जा सकता है जो किसानों और अन्य सभी हितधारकों से परामर्श करके अंतत: एक बेहतर विधेयक ला सकती है।
  • इस समस्या का समाधान खोजने के लिये इन विकल्पों की संभावना पर रचनात्मक रूप से विचार किया जा सकता है।
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