प्रारंभिक परीक्षा - कृषि कानून, गांधी जी की व्यापार नीति, राशनिंग प्रणाली, खाद्यान्न नीति समिति मुख्य परीक्षा - सामान्य अध्ययन, पेपर-3 |
संदर्भ-
- कृषि व्यापार को मुक्त करने की कोशिश करने वाले कृषि कानूनों से मोदी सरकार नियंत्रण और अंकुश पर वापस लौट आई है। यह काफी हद तक 1947-48 में नेहरू के अधीन विनियंत्रण के पहले अल्पकालिक प्रयोग की तर्ज पर है।
मुख्य बिंदु-
- नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अपने तीन कृषि सुधार कानूनों को लागू किए हुए तीन साल से अधिक समय बीत चुका है - पहले जून 2020 में अध्यादेश के माध्यम से, फिर सितंबर 2020 में संसदीय कानून के माध्यम से।
- इसे भारतीय कृषि के लिए 1991 के सुधारों के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
- सुधार कानूनों को नवंबर 2021 में निरस्त कर दिया गया।
- नीति में बदलाव के लिए केवल कृषि यूनियनों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
- ये सरकार की ओर से भी आए हैं, क्योंकि भारतीय खाद्य निगम (FCI) और मिलों के पास गेहूं, चावल और चीनी के स्टॉक सहित उपज की समग्र आपूर्ति स्थिति अधिशेष से संतुलित हो गई है।
कानूनों ने मुक्त व्यापार का समर्थन किया था-
- संशोधित कृषि कानूनों में किसानों के पास अपने उपज को देश के किसी भी व्यक्ति और किसी भी स्थान पर बेचने का विकल्प था।
- यह व्यापार क्षेत्र अब राज्य सरकार द्वारा विनियमित बाजार मंडियों तक ही सीमित नहीं था।
- व्यापारी, खुदरा विक्रेता, प्रोसेसर और निर्यातक भी किसानों से सीधे कृषि उपज खरीद सकते थे, जिसमें अनुबंध खेती और आपूर्ति समझौते भी शामिल थे।
- आवाजाही में कोई बाधा नहीं होगी या इस पर कोई सीमा भी निर्धारित नहीं होगी कि वे कितनी उपज खरीद सकते हैं और स्टॉक कर सकते हैं।
व्यावहारिक स्तर पर-
- पिछले एक साल या उससे अधिक समय से इन कृषि कानूनों की उपयोगिता धुंधली होती देखी गई है।
- मई 2022, में मोदी सरकार ने गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया।
- चीनी के निर्यात को "मुक्त" से "प्रतिबंधित" श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया, जबकि एक वर्ष में निर्यात की जाने वाली कुल मात्रा को सीमित कर दिया।
- सितंबर 2022, में टूटे हुए चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और अन्य गैर-उबले हुए गैर-बासमती किस्मों के शिपमेंट पर 20% का शुल्क लगाया गया था।
- गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध जारी है, जबकि मई 2023 के बाद किसी भी प्रकार के चीनी को भारतीय तटों से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी गई है।
- जुलाई 2023, में सभी गैर-उबले हुए गैर-बासमती चावल के निर्यात को पूरी तरह से बंद करने का निर्णय लिया गया।
ये प्रतिबंध केवल बाहरी व्यापार के लिए नहीं हैं-
- मोदी सरकार ने जून 2023 में तुअर (अरहर) और उड़द (काला चना) पर स्टॉक सीमा तय कर दी।
- किसी भी थोक विक्रेता या बड़ी शृंखला के खुदरा विक्रेता को 200 टन से अधिक दाल रखने की अनुमति नहीं थी, सामान्य दुकानों के लिए ये सीमा पांच टन और दाल मिल मालिकों के लिए वार्षिक स्थापित क्षमता का 25% थी।
- इसी तरह की सीमाएं - आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत, अब तीन निरस्त कृषि कानूनों में से एक को गेहूं तक बढ़ा दिया गया था।
ऐतिहासिक परिदृश्य-
- भारत के लिए इस तरह की नीतिगत उलटफेर कोई नई बात नहीं है।
- सबसे पुराना मामला 1947-48 का है, जब देश को आज़ादी ही मिली थी। इसका संबंध खाद्यान्न व्यापार को नियंत्रण मुक्त करने के एक अल्पकालिक प्रयोग से था, जिसका आह्वान महात्मा गांधी ने किया था।
- 8 दिसंबर, 1947 को एक प्रार्थना सभा में गांधीजी ने उपज के व्यापार को नियंत्रणमुक्त करने का आह्वान किया, ताकि "हमारे जीवन को प्राकृतिक बनाया जा सके"।
- गांधी जी के अनुसार, “ऊपर से लगाए गए नियंत्रण हमेशा बुरे होते हैं और जब उन्हें हटा दिया जाएगा, तो लोगों को स्वतंत्रता की अनुभूति होगी।“
- गांधी जी अनिवार्य रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शुरू की गई ‘भोजन राशनिंग प्रणाली’ को खत्म करने की वकालत कर रहे थे, जो 1943 में बॉम्बे से शुरू हुई और अगले कुछ वर्षों में भारत के बड़े हिस्से तक फैल गई।
- अगस्त 1947 में, लगभग 60 मिलियन लोग (जनसंख्या का 18% से थोड़ा कम) प्रत्यक्ष राशनिंग के अंतर्गत थे, उन्हें औसतन प्रति व्यक्ति प्रति दिन 10 औंस (0.28 किलोग्राम) अनाज मिलता था।
- जबकि 1,600 किलो कैलोरी ऊर्जा देने के लिए मूल रूप से परिकल्पित एक पाउंड (16 औंस या 0.45 किग्रा) दैनिक राशन से कम होने पर, प्रणाली को बनाए रखना शारीरिक, वित्तीय और प्रशासनिक रूप से कठिन हो गया था।
- उन दिनों भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं था, अधिशेष तो भूल ही जाइए। 1944-45 में, इसने 14 करोड़ रुपये का अनाज आयात किया, जो अगले तीन वित्तीय वर्षों में बढ़कर 24 करोड़ रुपये, 89 करोड़ रुपये और 110 करोड़ रुपये हो गया।
- लगभग 2.3 मिलियन टन के आयात के अलावा, सरकार को 1947 के दौरान राशनिंग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आंतरिक रूप से 5.5 मिलियन टन की खरीद करनी पड़ी।
- इसमें विदेशी मुद्रा की निकासी और किसानों पर जबरन कर लगाना शामिल था, जो कि एक टन से अधिक उत्पादन करने वाले किसानों पर लागू होता था।
- यह अकारण नहीं है कि तत्कालीन वित्त मंत्री आरके शनमुखम चेट्टी ने अपने 1947-48 के केंद्रीय बजट भाषण में "राशन प्रणाली के टूटने के गंभीर खतरे" की चेतावनी दी थी।
विनियंत्रण और रोल-बैक-
- अक्टूबर 1947 में, एक ‘खाद्यान्न नीति समिति’, जिसके तीन प्रमुख उद्योगपति (पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, घनश्याम दास बिड़ला और लाला श्री राम) सदस्य थे, ने खाद्य आयात पर भारत की निर्भरता में कमी के साथ-साथ राशनिंग प्रणाली में कटौती की सिफारिश की।
- यह प्रस्ताव गांधीजी के आत्मनिर्भरता के दर्शन के अनुरूप था।
- सरकार को लोगों को यह सिखाना चाहिए कि कमी का सामना कैसे किया जाए और घरेलू उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कैसे काम किया जाए।
- इसके लिए किसानों के हित को ध्यान में रखना जरूरी था। ज्यादातर किसान जो उगाते हैं वही खाते हैं।
- जीवन की अन्य आवश्यकताएँ खरीदने के लिए वह अपना थोड़ा-सा अधिशेष बेच देते हैं।
- नियंत्रणों का एक परिणाम यह है कि किसान को अपनी उपज के लिए बाजार से बहुत कम कीमत मिलती है।
- गांधी के ज़ोर देने पर जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 10 दिसंबर, 1947 को "योजनाबद्ध, क्रमिक और प्रगतिशील विनियंत्रण" के एक कार्यक्रम की घोषणा की।
- राज्यों से कहा गया कि वे विभिन्न चरणों में अपनी राशनिंग प्रणालीको कम करें और किसी भी शेष जरूरतों को पूरा करने के लिए आयात के बजाय आंतरिक खरीद पर भरोसा करें।
- केंद्र अनाज का आयात करेगा, लेकिन बाज़ार में हस्तक्षेप के लिए केवल 0.5-1 मिलियन टन का आपातकालीन आरक्षित भंडार रखेगा।
- अखिल भारतीय स्तर पर मूल्य नियंत्रण समाप्त हो जाएगा।
- कृषि मंत्री राजेंद्र प्रसाद (बाद में भारत के राष्ट्रपति) को अनुमान था कि विनियंत्रण के परिणामस्वरूप शुरू में कीमतें बढ़ेंगी।
- लेकिन ऊंची और मुक्त कीमतों के साथ किसानों और व्यापारियों जमाखोरी की गई उपज खुले बाजार में आ जाएगी और अंततः कीमतें उचित स्तर पर स्थिर हो जाएंगी।
- यह बिल्कुल वैसा नहीं हुआ, क्योंकि नवंबर 1947 और जुलाई 1948 के बीच खाद्य वस्तुओं की थोक कीमतें लगभग एक तिहाई बढ़ गईं।
- सितंबर 1948 तक सरकार को भारत के पहले खाद्य विनियंत्रण प्रयोग को वापस लेना पड़ा, जो पूरे नौ महीने तक चला।
क्या सीख मिला-
- 1948 में विनियंत्रण का प्रयास उस समय किया गया था, जब भारत बढ़ती आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन का उत्पादन नहीं कर सका।
- महात्मा गांधी के "हमारे जीवन को प्राकृतिक बनाने" के आह्वान के बावजूद यह विफल हुआ।
- 1952-54 के दौरान नेहरू सरकार ने फिर कोशिश की, जब अच्छे उत्पादन स्तर ने उन्हें नियंत्रण में ढील देने और राशन में कटौती करने के लिए प्रोत्साहित किया।
- लेकिन 1950 के दशक के उत्तरार्ध में, विशेष रूप से 1957 के सूखे के बाद, यह महसूस किया गया कि संरचनात्मक रूप से भोजन की कमी वाले देश के लिए विनियंत्रण और मुक्त व्यापार टिकाऊ नहीं था।
समीक्षा-
- 1948 के विपरीत, भारत अब अधिकांश फसलों में "स्थायी अधिशेष" के युग में प्रवेश कर चुका है, एफसीआई के गोदाम तेजी से बढ़ रहे हैं। विनियंत्रण के लिए स्थिति इससे बेहतर नहीं हो सकती थी।
- 2020 में जब कृषि कानून पारित किए गए थे तो, इन्हें किसानों को उनकी उपज के लिए वैकल्पिक विपणन चैनल खोलकर "पसंद की अधिक स्वतंत्रता" देने के रूप में विज्ञापित किया गया था।
- किंतु उपर्युक्त घटनाओं ने साबित कर दिया है कि नियंत्रणमुक्त करना और "जीवन को प्राकृतिक" बनाना अवास्तविक महत्वाकांक्षाएँ हैं।
- जब भोजन और कृषि की बात आती है, तो सभी सुधारवादी सरकारें भी नरम रुख अपना लेती हैं और उत्पादन की कमी या मूल्य दबाव का थोड़ा सा संकेत मिलते ही नियंत्रण की ओर लौट जाती हैं। मोदी सरकार भी इस नियम की अपवाद नहीं है।
- भारतीय कृषि में उदारीकरण और संरचनात्मक परिवर्तन लाने के लिए कानून बनाने से लेकर अब यह नियंत्रण पर वापस आ गया है।
प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रश्न- निम्नलिखित कथनों विचार कीजिए।
- सर्वप्रथम खाद्यान्न व्यापार को नियंत्रण मुक्त करने का प्रयास वर्ष 1991 में किया गया।
- गांधी जी ने मुक्त व्यापार का विरोध किया।
- जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने "योजनाबद्ध, क्रमिक और प्रगतिशील विनियंत्रण" के एक कार्यक्रम की घोषणा की थी।
उपर्युक्त में से कितना/कितने कथन सही है/हैं?
(a) केवल एक
(b) केवल दो
(c) सभी तीनों
(d) कोई नहीं
उत्तर- (a)
मुख्य परीक्षा के लिए प्रश्न - वर्तमान में कृषि कानून,2020 विफल होता दिखायी दे रहा है। ऐतिहासिक संदर्भ में इसकी समीक्षा करें।
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स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस