(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 , अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम)
संदर्भ
- पद-ग्रहण करने के महज 36 दिन बाद ही नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति जोबाइडन ने विदेश में पहले हवाई हमले के आदेश दे दिये थे।
- वस्तुतः इरबिल (इराकी कुर्दिस्तान की राजधानी) पर तथा कथित रूप से शिया समर्थित उग्रवादी समूहों द्वारा रॉकेट हमले की प्रतिक्रिया स्वरुप अमेरिका ने सीरिया में ईरान समर्थित उग्रवादियों पर बमबारी की थी।
- इसके साथ-साथ बाइडन प्रशासन ने ईरान परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करने के प्रयास भी किये हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्डट्रंप ने अमेरिका को इस समझौते से अलग कर लिया था।
रणनीतिक वास्तविकता
- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से लगभग सभी अमेरिकी राष्ट्राध्यक्षों ने पश्चिम एशिया क्षेत्र पर गहरी नीतिगत छाप छोड़ी है।
- यद्यपि बराक ओबामा और ट्रंप दोनों ने पश्चिम एशिया से हटकर पूर्वी एशिया(जहाँ चीनअपने प्रभुत्व का विस्तार कर रहा था) की ओर अपनी विदेश नीति को केंद्रित करने के प्रयास भी किये थे।
- ओबामा ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पश्चिम एशिया में अपनी विदेशनीति की प्राथमिक चुनौती के रूप में लिया था। इससे क्षेत्र में न सिर्फ़ इज़रायल के परमाणु एकाधिकार को समाप्त किया जा सकता था,बल्कि हथियारों के बाज़ार में पुनः तेज़ी भी लाई जा सकती थी। यद्यपि ओबामा ने इसे कूटनीतिक तरीके से हल करने का प्रयास किया क्योंकि ईरान के साथ युद्ध बहुत जोख़िम भरा हो सकता था।
- यद्यपि बराक ओबामा के मुकाबले डोनाल्ड ट्रंपने ईरान के प्रति अधिक आक्रामक रवैया अपनाया। उन्होंने परमाणु समझौते से अमेरिका को अलग करके, ईरानपर पूर्व में लगे प्रतिबंधों को पुनःबहाल कर दिया साथ ही, ईरान (और साथी देशों) को कमज़ोर करने के लिये परोक्ष रूप से सऊदी अरब और इज़रायल को बिना शर्त समर्थन की पेशकश की और एक शीर्ष ईरानी जनरल की हत्या में भी शामिल रहे।
- देखा जाए तो ट्रंपने सभी कार्य परोक्ष रूप से ही कियेऔर वह भी ईरान के साथ सीधे युद्ध से बचते रहे।उन्होंने क़ासिम सुलेमानी पर तब हमला करवाया जब वह ईराक में थे, न कि ईरान में। किंतु, जब ईरान ने जवाबी कार्रवाई करते हुए इराक में अमेरिकी ठिकानों पर मिसाइलें दागीं या जब उसने खाड़ी में अमेरिकी ड्रोन को मार गिराया, तोट्रंप किसी भी जवाबी हमले से बचते दिखे।
पश्चिम एशिया में किंकर्तव्यविमूढ़ अमेरिका
- चीन के साथ अमेरिकी प्रतिस्पर्धा ने शीतयुद्ध की यादों को पुनः जीवंत कर दिया है, जिस वजह से अमेरिकी प्रशासन हिंद-प्रशांत (Indo-Pacific) क्षेत्र में अपने गठबंधन को और मज़बूत करने के लिये निरंतर प्रयास कर रहा है।
- ध्यातव्य है कि बाइडन लंबे समय तक पश्चिम एशिया में ही ध्यान केंद्रित नहीं रख सकते,लेकिन इस क्षेत्र में अमेरिका के बहुत से निकटतम सहयोगी हैं, अतः अमेरिका इस क्षेत्र कोहल्के में भी नहीं ले सकता।
- बाइडन के निर्णयों की दिशा देखकर लगता है कि ईरानी परमाणु कार्यक्रम उनकी सूची में शीर्ष पर है क्योंकि यदि इस समझौते को उचित तरीके से नहीं संभाला गया तो यह क्षेत्र में कई घटनाओं को प्रेरित कर सकता है। ऐसे में, इन घटनाओं की वजह से यदि अमेरिका लंबे समय तक इसी क्षेत्र में फँसा रहा तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका कमज़ोर पड़ जाएगा।
- एक तरफ, जहाँ ओबामा ने सूक्ष्म तरीके से ईरान परमाणु कार्य क्रम पर ध्यान केंद्रित किया था (उन्होंने ईरान या इसके निकटवर्ती देशों के खिलाफ बल का उपयोग नहीं किया,जो परमाणुवार्ता को खतरे में डाल सकता था),वहीं दूसरी तरफ दूसरी ओर, बाइडन अलग ही महत्वाकांक्षा के साथ आगे बढ़ रहे हैं; जहाँ उन्होंने ईरान से वार्ता की पेशकश की, वहीं दूसरी ओर ईरान के छद्म सहयोगियों पर बमबारी भी की। साथ ही, यमन-सऊदी अरब युद्ध से खुद को पीछे भी खींचा। इन बातों से स्पष्ट होता है कि अमेरिका इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों और विरोधियों दोनों के सापेक्ष संतुलन स्थापित करना चाहता है।
सऊदी अरब और इज़राइल के प्रति रुख
- हाल के वर्षों में,सऊदी अरब पर अमेरिका की निर्भरता तथा अमेरिका पर सऊदी अरब की निर्भरता कम हुई है।
- सितंबर2019 में जब सऊदीअरब के तेल उत्पादक क्षेत्र पर हमला हुआ तो अमेरिका ने कोई विशेष प्रतिक्रया नहीं दी।साथ ही, सऊदी अरब को यह अनुभव भी हो रहा है कि क्षेत्र में अमेरिका की कूटनीतिक पकड़ कम हुई है और तुर्की से लेकर रूस तक शक्ति के नए केंद्र भी बन रहे हैं।
- सऊदी क्राउन प्रिंस ने व्लादिमीर पुतिन के साथ बेहतर कार्य संबंध स्थापित किये हैं। इसके अलावा,सऊदी अरब कतर से भी अपने रिश्ते मज़बूत कर रहा है।
- ऐसे में, जो बाइडन पश्चिम एशिया के संबंध में अपनी रणनीति में इज़राइल के लिये क्या रवैया अपनाएंगे,यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा।
- यदि बाइडन यमन के साथ युद्ध में सऊदी अर बद्वारा किये गए मानवाधिकारों के हनन की बात करते हैं तो इज़राइल द्वारा किये मानवाधिकारों के हनन को कैसे न्यायोचित ठहराएंगें? ध्यातव्य है कि इज़राइली नियंत्रण वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में किये गए युद्ध अपराधों के लिये इज़राइल पर अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में जाँच चल रही है। अतः यदि अमेरिका इज़राइल का समर्थन करता है तो उसकी नीति खोखली नज़र आएगी।
- यदि अमेरिका शिया उग्रवादियों द्वारा किये जा रहे हमलों के लिये ईरान को ज़िम्मेदार ठहराता है और वेस्ट बैंक में इज़राइल द्वारा किये जा रहे अतिक्रमण पर चुप रहता है तो उस पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप लगेगा।
- यदि इज़राइल के प्रति अमेरिका कड़ा रुख अपनाता है और फिलिस्तीन में रुकी हुई शांति प्रक्रिया बहाल करने की बात करता है तो वह इज़राइल को नाराज़ कर सकता है, जो ईरान पर अमेरिकी नीति को पूरी तरह से ध्वस्त कर देगा। ध्यातव्य है कि पूर्व में इज़राइल ने ईरान में खुफिया ऑपरेशन किये थे और उस पर लक्षित हत्याएँ करने का भी आरोप था।
आगे की राह
अमेरिका की सफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि वह इस क्षेत्र की तीन प्रमुख शक्तियों के बीच संतुलन कैसे कायम करता है। साथ ही, यदि इस क्षेत्र में वह अपनी नीति को संतुलित विस्तार देना चाहता है तो उसे अपनी शक्ति , कूटनीति व अनुभव का उचित प्रयोग करना पड़ेगा।