(प्रारंभिक परीक्षा- भारत का इतिहास और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 : 18वीं सदी के लगभग मध्य से लेकर वर्तमान समय तक का आधुनिक भारतीय इतिहास- महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, व्यक्तित्व, विषय)
पृष्ठभूमि
1840 के दशक में बंगाल प्रेसीडेंसी के मछुआरा समुदाय को अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ रहा था, क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी ने मछली पकड़ने वाली नौकाओं पर कर लगा दिया था। इसके लिये यह तर्क दिया गया कि मछली पकड़ने से घाटों पर आवाजाही में बाधा आती है। यहाँ पर ‘सिल्वर हिल्सा’ मछली का शिकार किया जाता था, जो बंगाली व्यंजनों का प्रमुख हिस्सा है। अंतत: ये मछुवारे मध्य कलकत्ता के उद्यमी स्वर्गीय राजचंद्र दास के घर गए। उनकी विधवा पत्नी रशमोनी दास उनकी आखरी उम्मीद थी, जो एक शूद्र थी। विदित है कि ज्यादातर मछुआरे केवट (कैवर्त्य) और मालो समुदायों से थे।
अगला कदम और परिणाम
- इसके बाद भारत के औपनिवेशिक इतिहास की एक उल्लेखनीय घटना घटी। रेशमोनी ने ईस्ट इंडिया कंपनी को हुगली नदी (गंगा की प्रसिद्ध जल वितरिका) के 10 किमी. लंबे खंड का इजारा (Ijara) या पट्टा लेने के लिये ₹10,000 की पेशकश की। इसके तट पर तत्कालीन औपनिवेशिक भारत की राजधानी कलकत्ता बसा हुआ था।
- रश्मोनी ने लीज-होल्डिंग दस्तावेज़ प्राप्त करने के बाद गंगा के आर-पार दो विशाल लोहे की जंजीरें लगवाई और संकटग्रस्त मछुआरों को इस क्षेत्र में अपना जाल डालने के लिये आमंत्रित किया।
- जैसे-जैसे इस क्षेत्र में छोटी नावें आती गई, हुगली पर सभी बड़े वाणिज्यिक और यात्री यातायात ठप्प हो गए। रशमोनी ने तर्क दिया कि नदियों में लगातार यातायात के कारण इजारा क्षेत्र में मछुआरों को जाल डालना मुश्किल हो रहा है, जिससे इनका लाभ कम हो रहा है।
- ब्रिटिश कानून के तहत, एक पट्टाधारक होने के नाते वह अपनी संपत्ति से होने वाली आय की रक्षा करने की हकदार थी। कंपनी के पास कोई समझौते करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प सीमित थे। अंतत: कर को निरस्त कर दिया गया, जिससे मछुआरों को गंगा तक निर्बाध पहुँच प्राप्त हो गई। इस प्रकार, एक बंगाली शूद्र विधवा ने एंग्लो-सैक्सन पूंजीवाद के शक्तिशाली हथियार (निजी संपत्ति) का उपयोग करके मछली पकड़ने के अधिकारों के लिये गंगा की रक्षा की थी।
नए अभिजात वर्ग का उदय
- वर्ष 1960 में गौरांग प्रसाद घोष ने रश्मोनी की पहली बार जीवनी लिखी। रश्मोनी का प्रतिरोध लोककथाओं का हिस्सा बन गया। बंगाली लेखक समरेश बसु ने अपने मौलिक उपन्यास ‘गंगा’ (1974) में लिखा कि मछुआरों के लिये यह नदी हमेशा के लिये 'रानी रश्मोनिर जल' बन गई।
- रश्मोनी के पति और दास परिवार ने जल्द ही पर्याप्त भूमि और संपत्ति हासिल कर ली, जिससे यह परिवार वणिक (उद्यमी) से जमींदार में बदल गया। उल्लेखनीय है कि 19वीं शताब्दी में कलकत्ता में नए स्थानीय अभिजात वर्ग का उदय हो रहा था।
- पिछली शताब्दी के विपरीत, जब सत्ता ग्रामीण क्षेत्रों के जमींदारों द्वारा संचालित की जाती थी, इस सदी में शहरी व्यापारियों के रूप में नए अभिजात्य वर्ग का उदय हुआ। इनमें से कई लोगों ने जमींदार वर्ग की संपत्ति खरीद ली। इस नए अभिजात वर्ग ने कलकत्ता के ‘अभिजाता भद्रलोक’ (उच्च समाज) को जन्म दिया। इतिहासकार एस. एन. मुखर्जी ने अपने निबंध ‘कलकत्ता: एसेस इन अर्बन हिस्ट्री’ (1993) में इस बात का उल्लेख किया है।
दूरदर्शिता
- स्नान, दाह संस्कार और वाणिज्यिक गतिविधिओं के रूप में हुगली के घाट जल और शक्ति के केंद्रबिंदु थे। इसी समय बाबू राजचंद्र दास घाट या बाबूघाट तथा अहिरीटोला घाट का निर्माण हुआ। 42 ऐतिहासिक घाटों में से ये दोनों घाट सबसे पुराने और सबसे व्यस्त हैं। इन घाटों के निर्माण का विचार भी रश्मोनी का ही माना जाता है।
- रश्मोनी ने अपने व्यावसायिक कौशल का प्रयोग भी बखूबी किया। गौरी मित्रा ने रश्मोनी की जीवनी में लिखा है कि सन् 1857 के विद्रोह के दौरान कई भारतीय और यूरोपीय व्यापारियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी में अपने शेयर बेचना शुरू कर दिया। रश्मोनी ने इन्हें सस्ते दामों में खरीदा और विद्रोह के बाद भारी मुनाफा अर्जित किया।
- कैवर्त्य जाति की एक विधवा के लिये पुरुष-प्रधान रूढ़िवादी हिंदू समाज में ऐसा करना एक असामान्य घटना थी। उन्होंने हुगली नदी के पूर्वी तट पर दक्षिणेश्वर काली मंदिर का निर्माण भी कराया।
धर्मों में समभाव
- इस मंदिर भूमि को एक प्रोटेस्टेंट अंग्रेजी व्यवसायी, मुसलमानों और हिंदू ग्रामीणों से खरीदा गया था। कलकत्ता के पुजारियों ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर को हिंदू पूजा स्थल के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया।
- हालाँकि, बाद में रश्मोनी ने मंदिर की सारी जमीन और संपत्ति एक गरीब ब्राह्मण विद्वान रामकुमार चट्टोपाध्याय को सौंप दी। रामकुमार चट्टोपाध्याय अपने किशोर भाई ‘गदाधर’ को लेकर मंदिर परिसर आए। गदाधर नाम का यह बालक बाद में भारत के सबसे महान हिंदू दार्शनिकों और मनीषियों में से एक ‘रामकृष्ण परमहंस’ कहलाए।
निष्कर्ष
उच्च जाति के पुरुष नायकों, जैसे- राजाराम मोहन रॉय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद आदि की तरह 19वीं सदी की प्रभावशाली स्त्री प्रतीकों में से एक रश्मोनी को इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला। हालाँकि, लोककथाओं के माध्यम से वे आज भी जीवित हैं।