(प्रारंभिकपरीक्षा: भारतीय राजव्यवस्था)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन- 2: संसद और राज्य विधायिका- संरचना, कार्य, कार्य-संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार तथा इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)
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संदर्भ
भारत में दलबदल रोधी कानून, सरकारों की स्थिरता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की अखंडता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण साधन है। यह दल बदल की प्रथा को रोकने में कुछ सीमा तक प्रभावी रहा है किंतु समय के साथ इसमें कई कमियां और कार्यान्वयन संबंधी विभिन्न मुद्दे सामने आए हैं। वस्तुतः इसमें अतिरिक्त सुधार की आवश्यकता है।
दलबदल से तात्पर्य
- भारतीय राजनीति के संदर्भ में सामान्य अर्थों में दलबदल से तात्पर्य संसद या राज्य विधानमंडल के किसी सदस्य द्वारा अपने राजनीतिक दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होने की प्रक्रिया से है।
- इससे प्राय:सरकारों की स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि इससे सत्ता की गतिशीलता में बदलाव,बहुमत या समर्थन की स्थिति में बदलाव और सत्तारूढ़ गठबंधन के संभावित पतन या सरकार गिरने की संभावना हो सकती है।
दलबदल के प्रमुख पहलू
- दल के प्रति निष्ठा : दलबदल के कारण निर्वाचित प्रतिनिधियों की उस दल के प्रति निष्ठा पर सवाल उठता है जिस दल से वे चुने गए थे। इससे मतदाताओं द्वारा दिए गए चुनावी जनादेश पर प्रभाव पड़ता है।
- राजनीतिक अस्थिरता :बार-बार दलबदल से सरकारें अस्थिर हो सकती हैं क्योंकि दल के प्रति निष्ठा में बदलाव के परिणामस्वरूप बहुमत या विपक्ष की स्थिति में अचानक परिवर्तन हो सकता हैऔर पुनः चुनाव की स्थिति या राजनीतिक संकट उत्पन्न हो सकता है।
- सार्वजनिक धारणा: मतदाताओं द्वारा दलबदल को प्राय:नकारात्मक माना जाता हैक्योंकि इसे मतदाताओं के साथ विश्वासघात और वित्तीय प्रोत्साहन या मंत्री पद जैसे व्यक्तिगत लाभ से प्रेरित होनेके रूप में देखा जा सकता है।
दलबदल रोधी कानून की पृष्ठभूमि
- आवश्यकता : ‘आया राम,गया राम’मुहावरा दल-बदल के मुद्देको स्पष्ट करता है। वस्तुतः वर्ष 1960 के दशक में हरियाणा में एकविधायक ‘गया लाल’ने एक ही दिन में कई बार दल (पार्टी) बदल लिया था।
- ऐसी घटनाओं ने इस प्रथा को रोकने के लिए एक कानून की आवश्यकता को रेखांकित किया।
- कार्यान्वयन : भारतीय संसद ने 52वें संविधान संशोधन के माध्यमसे दलबदल रोधी कानून बनाया और इसे दसवीं अनुसूची के अंतर्गत रखा है।
- यह कानून उन संसद सदस्यों या विधायकों को अयोग्य घोषित करता है जो स्वेच्छा से अपने दल से त्यागपत्र(इस्तीफा) दे देते हैं या महत्वपूर्ण मतों (जैसे- विश्वास प्रस्ताव या बजट अनुमोदन)के मुद्दे पर ‘पार्टी व्हिप’ की अवहेलना करते हैं।
- उद्देश्य : यह कानून सरकारों को स्थिर करने और चुनावी जनादेश के प्रति निष्ठा बनाए रखने के लिए निर्मित किया गयाहै।
प्रारंभिक कानून में खामियां
- दलीय विभाजन : मूल कानून के अनुसार, यदि किसीदल के एक-तिहाई (निर्वाचित)सदस्य दलबदल कर लेते हैं तो दलमेंविभाजन हो जाता था, जिसके कारण प्राय:बड़े पैमाने पर दलबदल की घटना होती थी।
- वर्ष 2003 के 91वेंसंविधान संशोधन ने इस मुद्दे को संबोधित किया, जिसमेंयह अनिवार्य कर दिया गया कि अयोग्यता से बचने के लिए किसी दल के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों को ‘विलय’ के लिए सहमत होना होगा।
- अर्थात् यदि किसी दल के दो-तिहाई सदस्य किसी अन्य दल में शामिल हो जाते हैं तो उन पर दलबदल रोधी कानून लागू नहीं होगा।
- फलतः छोटे पैमाने पर दलबदलकी घटनाएं कमहुईं।
कार्यान्वयन चुनौतियाँ
- निर्णय लेने में विलंब : दलबदल के मामलों पर निर्णय देने में स्पीकर (यासदन अध्यक्ष) द्वारा देरी करनेसे कानून का उद्देश्य कमजोर हो जाता हैतथा दलबदलुओं को अपने पदों पर बने रहने का अवसर मिल जाता है।
- समयबद्धता का अभाव : निर्णयों के लिए निर्धारित समय-सीमा केअभाव के कारण अध्यक्ष या सभापति में निहित विवेकाधीन शक्ति प्राय:विवाद का विषय बन जाती है।
पार्टी व्हिप के साथ पारदर्शिता के मुद्दे
- व्हिप संचार संबंधी मुद्दे: पार्टी व्हिपकी आंतरिक प्रकृति के कारण इस बात पर विवाद हो सकता है कि व्हिप के बारे में सदस्यों को सूचित किया गया था या नहीं। इससे दलबदल के मामलों की वैधता निर्धारित करना जटिल हो सकता है।
- न्यायिक अनिच्छा : न्यायालय प्राय:विधायी स्वायत्तता का सम्मान करने के लिए दलबदल के मामलों में हस्तक्षेप करने से बचते हैं। इससे जवाबदेही सीमित हो जाती है।
व्हिप
व्हिप राजनीतिक दलों द्वारा अपने सदस्यों के बीच अनुशासन सुनिश्चित करने के लिए प्रयुक्तकिया जाने वालाआवश्यक साधन है, विशेषकर महत्वपूर्ण मतदान के मुद्दे पर।
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दलबदल रोधी कानून को मजबूत बनाने और इसकी निष्पक्षता बढ़ाने के लिए दो प्रमुख संशोधन प्रस्तावित हैं-
- निर्णय के लिए समय-सीमा का निर्धारण : दलबदल के मामलों पर निर्णय लेने हेतुअध्यक्ष या सभापति के लिए चार सप्ताह की अवधि निर्धारित की जानी चाहिए।
- समय-सीमा के भीतर निर्णय नहीं होने की स्थिति में दलबदल करने वाले सदस्यों को उनके पदों के लिए अयोग्य माना जाना चाहिए।
- पार्टी व्हिप की सार्वजनिक सूचना : ‘पार्टी व्हिप’की सार्वजनिक सूचना (जैसे- समाचार पत्रों या इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के माध्यम से) के लिए एक रूपरेखा लागूकियाजाना चाहिए।
सुझाव
- स्वतंत्र न्यायाधिकरण की सिफारिश: केशम मेघचंद्र सिंह बनाम माननीय अध्यक्ष मणिपुर विधानसभा एवंअन्य (2020) में सर्वोच्च न्यायालय ने दलबदलरोधी मामलों में अध्यक्ष की भूमिका को एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण या भारत के चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त निकाय से बदलने की सिफारिश की थी।
- हालांकि, अध्यक्ष या सभापति संसदीय अखंडता को बनाए रखने और निष्पक्षता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण हैं। वस्तुतः इन सुधारों से संसदीय अखंडताको बनाए रखने में अध्यक्ष या सभापतिकी भूमिका को मजबूत किया जाना चाहिए, न कि उसे दरकिनार।
- विभिन्न समितियों की सिफारिशें : भारत सरकार को दलबदल रोधी कानून को मजबूत बनाने के लिए विभिन्न समितियों द्वारा विभिन्न सुझावों दिए गए हैं जिन पर विचार किया जा सकता है।इनसमितियों में शामिल हैं-
- दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट (1990)
- हाशिम अब्दुल हलीम समिति की रिपोर्ट (1994)
- भारतीय विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट (1999)
- भारतीय संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट (2002)
- हाशिम अब्दुल हलीम समिति की रिपोर्ट (2003)
- भारतीय विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट (2015)
निष्कर्ष
केंद्र सरकार की एक राष्ट्र, एक चुनाव पहल के प्रभावी कार्यान्वयन को सुविधाजनक बनाने के लिए दलबदल विरोधी कानून में उचित संशोधन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अतः उपरोक्त संशोधनों को लागू करके, दलबदल विरोधी कानून को वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में अपने उद्देश्य को बेहतर ढंग से पूरा करने के लिए पुनर्जीवित किया जा सकता है।