(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2; विषय – स्वास्थ्य)
चर्चा में क्यों?
- सम्पूर्ण विश्व में रोगाणुरोधी (एंटी माइक्रोबियल) जागरूकता सप्ताह 18 से 24 नवम्बर तक मनाया जा रहा। रोगाणुरोधी प्रतिरोध पूरी तरह से विकसित और लम्बे समय तक टिकने वाली महामारी है, जो विगत कई वर्षों से जानलेवा साबित हो रही है और अभी भी इस दिशा में ठोस विनियमन का अभाव है।
- एक अनुमान के अनुसार, ऐसे संक्रमणों में दवा भी असर नहीं करती और विश्वभर में हर वर्ष लगभग सात लाख लोगों की मौत हो रही है।
- यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो वर्ष 2050 तक एक साल में मरने वालों की संख्या एक करोड़ तक पहुँच जाएगी। अर्थात् वर्ष 2050 तक हर दिन 27,400 (हर घंटे लगभग 1,140) लोगों की मृत्यु हो सकती है। ये आँकड़े कोविड-19 से होने वाली मौतों से कहीं ज़्यादा हैं।
मुख्य बिंदु
- यदि स्वास्थ्य क्षेत्र की बात करें तो संक्रामक रोगों को फैलने से रोकने के लिये एंटीबायोटिक दवाएँ अहम बचाव हैं और चूँकि लोगों को किसी भी दवा की दुकान से आसानी से एंटीबायोटिक मिल जाती है अतः लोगों तक इसकी पहुँच भी ज़्यादा है।
- वर्तमान में रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी कम होती एंटीमाइक्रोबियल क्षमता मानव स्वास्थ्य के लिये बहुत बड़ा खतरा है। एंटीमाइक्रोबियल रजिस्टेंस (ए.एम.आर.) तब होता है, जब कोई सूक्ष्मजीवी जो पहले एंटीबायोटिक से प्रभावित होता था, धीरे-धीरे उस एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर ले और वह एंटीबायोटिक उस पर बेअसर हो जाए।
- प्रतिरोधक क्षमता का बढ़ना विकास सम्बन्धी प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया एंटीबायोटिक की मौजूदगी से तेज़ हो जाती है। इससे प्रतिरोध कर पाने वाले सूक्ष्मजीवी बच जाते हैं और बाकी नष्ट हो जाते हैं।
- इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि वैयक्तिक और सामुदायिक दोनों स्तरों पर एंटीबायोटिक के सेवन में और बैक्टीरिया के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने में गहरा सम्बंध हैं।
- वर्ष 2015 में अमेरिका स्थित सेंटर फॉर डिजीज डायनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी की तरफ से जारी की गई रिपोर्ट- द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स एंटीबायोटिक्स में दो विशेष कारण बताए गए, जिनकी वजह से वैश्विक स्तर पर एंटीबायोटिक के सेवन में बढ़ोतरी हो रही है।
1. आमदनी बढ़ने से एंटीबायोटिक दवाएँ ज़्यादा लोगों की पहुँच में आ रही हैं और इससे जानें बच रही हैं, लेकिन इससे एंटीबायोटिक की उचित और अनुचित दोनों तरह की खपत भी बढ़ रही है। इसके चलते प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ रही है।
2. कृषि में भी एंटीबायोटिक का प्रयोग बढ़ रहा है (पशुओं के भोजन के लिये), जिससे प्रतिरोधक क्षमता बढ़ रही है।
प्रतिरोधक क्षमता का बढ़ना
- अगस्त 2014 में द लैंसेट इन्फेक्शस डिज़ीज़ेस में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2000 और 2010 के बीच विश्वभर में एंटीबायोटिक दवाओं के सेवन में होने वाली कुल वृद्धि का 76% ब्रिक्स देशों ( ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में देखा गया। इसमें से 23% हिस्सेदारी अकेले भारत की थी।
- वर्ष 2013 और 2014 के बीच भारत में 12.6 अरब डॉलर की दवा की बिक्री हुई थी, जिसमें से एंटी माइक्रोबियल दवाओं की हिस्सेदारी लगभग 16.8% थी।
- व्यापक स्वास्थ्य बीमा लाभ और आर्थिक जोखिम को कम करने की प्रक्रिया के न होने की वजह से इस बिक्री का एक बड़ा हिस्सा आउट ऑफ पॉकेट यानी जेब से बाहर के खर्चों से किया गया।
- भारत के सामने एक जटिल परिस्थति है। जहाँ एक तरफ शहरी इलाकों और प्राइवेट सेक्टर में नए तरीके की एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक प्रयोग हो रहा है, जो सम्भावित रूप से ए.एम.आर. की वजह बन रहा है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में एंटीबायोटिक की कमी के चलते लोग रोगों के शिकार होने की वजह से समय से पहले ही मृत्यु के शिकार हो रहे हैं।
- अनुमानों के अनुसार वर्ष 2012 और 2016 के बीच भारत में एंटीबायोटिक का प्रतिव्यक्ति सेवन लगभग 22 % बढ़ गया था।
- हालाँकि भारत में एंटीबायोटिक दवाओं की खपत की दर यूरोप के मुकाबले कम है, फिर भी कार्बापेनेम्स, थर्ड जनरेशन सिफालोस्पोरिन और बीटा-लेक्टामैस इन्हीबिटर युक्त पेनसिलिन जैसी एंटीबायोटिक की नई क्लास का उपयोग बढ़ रहा है।
- द लैंसेट के अध्ययन के अनुसार जिन देशों में प्रतिव्यक्ति एंटीबायोटिक की खपत ज़्यादा होती है वहां एंटीबायोटिक प्रतिरोध की दर ज़्यादा है। एंटीबायोटिक के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में शामिल भारत में ए.एम.आर. डाटा इस चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।
- एक अन्य अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि 70% एन्टेरोबैक्टीरियासै (स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली जगहों में संक्रमण फ़ैलाने वाले एक प्रकार का बैक्टीरिया) सिफालोस्पोरिन के लिये प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर चुका है। एन्टेरोबैक्टीरियासै उपजाति में से क्लेबसिएला और ई कोलाई बैक्टीरिया थर्ड जनरेशन सिफालोस्पोरिन (80 %) के प्रति प्रतिरोधी पाए गए।
- इस से पहले, न्यू दिल्ली मिटेलो-बिटा-लाक्टामेस 1 (एनडीएम-1) एंजायम के कारण रेजिस्टेंस हुए ग्राम-नेगेटिव एंटरोबैक्टीरिया भी भारत से रिपोर्ट किए गए थे।
- ए.एम.आर. की यह परिस्थिति और भी जटिल इसलिये हो जाती है क्योंकि उत्पादकों के पास नए एंटीबायोटिक बनाने की कोई नई योजना नहीं है। खाद्य एवं औषधि प्राधिकरण ने वर्ष 2008 से 2012 के बीच सिर्फ 3 रोगाणुरोधी दवाओं को स्वीकृति दी जबकि वर्ष 1983 से 1987 के बीच में 16 दवाओं को स्वीकृति मिली थी।
- साथ ही कई नई एंटीबायोटिक दवाएं जो हाल ही में बाज़ारों में उतारी गई हैं, वे एंटीबायोटिक्स की एक सीमित श्रेणी से तैयार की गई हैं, जिसे 1980 के दशक के मध्य में खोजा गया था।
सामाजिक असर
- एंटीबायोटिक्स को ‘ट्रेजडी ऑफ कॉमन्स’ क्लासिक केस की तरह देखा जा सकता है- जिसमें लोग अपने निजी स्वार्थ के लिये किसी ऐसे संसाधन को नष्ट कर देते हैं, जिसपर सबका अधिकार है।
- ए.एम.आर. के कारण बीमार होने वाली लोगों की संख्या बढ़ने से कामकाज़ी आबादी भी घटेगी और इससे मज़दूर वर्ग की काम करने की क्षमता भी प्रभावित होगी।
- इतना ही नहीं, मज़दूर परिवार में काम न करने वाला कोई सदस्य अगर ए.एम.आर. के चलते बीमार पड़ता है तो परिवार के अन्य कामकाज़ी सदस्यों को उसकी देखभाल में लगना पड़ता है जिससे श्रम आपूर्ति कम होती है। श्रमिक आपूर्ति पर पड़ने वाले इस नकारात्मक प्रभाव को आर्थिक सम्बंध में मापा जा सकता है। इसे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर ए.एम.आर. का आर्थिक असर कहेंगे।
- आसान शब्दों में कहा जाए तो ए.एम.आर. के कारण स्वास्थ्य सेवाओं की लागत में होने वाली प्रत्यक्ष वृद्धि को अतिरिक्त जाँचों, अतिरिक्त इलाज और अस्पताल में अधिक दिन भर्ती रहने के खर्चों से जोड़कर देखा जा सकता है।
सम्भावित नुकसान
- अध्ययन बताते हैं कि अकेले यूरोपीय संघ में ही ए.एम.आर. के अतिरिक्त भार के रूप में लोगों को लगभग 25 लाख दिन अस्पताल में बिताने पड़ते हैं, 25000 मौतें होती हैं और अतिरिक्त स्वास्थ्य सेवा खर्चों और उत्पादकता में गिरावट के कारण 1.5 अरब यूरो का नुकसान होता है।
- ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के कार्यालय द्वारा ए.एम.आर. पर गठित की गई एक समीक्षा समिति ने बताया कि वर्ष 2050 तक दुनियाभर में हर साल 1 करोड़ लोगों की जान जाने की आशंका है। अभी यह आंकड़ा 70 लाख के करीब है।
- नुकसान के सभी पहलुओं को साथ रखा जाए तो दवाओं के प्रति प्रतिरोधी हो चुके संक्रमणों की वजह से कुल मिलकर 100 लाख करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान होने की आशंका है।
- विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार गरीबी पर ए.एम.आर. का प्रभाव बेहद चिंताजनक है। अगर ए.एम.आर. का अधिक प्रभाव पड़ता है तो अतिरिक्त 24 मिलियन लोग 2030 तक गरीबी में आ जाएंगे और दुर्भाग्य से सबसे ज़्यादा प्रभाव कम आय वाले देशों पर पड़ेगा।
आगे की राह
- बढ़ती ए.एम.आर. दरों का आर्थिक प्रभाव फिलहाल वैश्विक अजेंडे में सबसे ऊपर है, न सिर्फ इसलिये क्योंकि ये स्वास्थ्य सुरक्षा के लिये एक ख़तरा है बल्कि इसलिये भी क्योंकि इसके आर्थिक परिणाम काफी भयावह होंगे।
- 21 सितंबर, 2016 को संयुक्त राष्ट्र आम सभा में AMR पर हुई उच्च-स्तरीय बैठक ने ए.एम.आर. की समस्या से निपटने के लिये वैश्विक प्रतिबद्धता को और पुख्ता कर दिया है।
- भारत सही सभी देशों को यह चाहिये कि इस क्षेत्र में सख्त विनियमन के साथ ही लोगों में भी जागरूकता फैलाई जाए क्योंकि बड़े स्तर पर लोगों में भी जागरूकता का अभाव है।