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शहरी रोज़गार से संबंधित पहलू

(प्रारंभिक परीक्षा- आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था और विकास व रोज़गार से संबंधित विषय) 

संदर्भ

भारतीय अर्थव्यवस्था में ऋणात्मक संकुचन के बाद धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। आर्थिक विश्लेषक वित्तीय विस्तार की आवश्यकता और ‘वी-शेप रिकवरी’ की व्यवहार्यता पर बहस कर रहे हैं, जिसने रोज़गार से ध्यान हटा दिया है। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के हालिया आँकड़े जुलाई माह से रोज़गार की रिकवरी में क्रमिक मंदी की ओर संकेत कर रहे हैं। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय बेरोज़गारी दर में वृद्धि हुई है और यह नवंबर में 6.51% से बढ़कर दिसंबर में 9.06% हो गई है।

शहरी बेरोज़गारी और मनरेगा पर व्यय

  • ग्रामीण क्षेत्र की ओर श्रमिकों के लौटने के कारण महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के व्यय में वृद्धि हुई है और मनरेगा के कार्यदिवस में 243% की वृद्धि देखी गई।
  • इससे मनरेगा पर निर्भरता बढ़ गई है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नवंबर महीने तक कुल आवंटन का लगभग 90% खर्च किया है, जबकि अभी भी काम की माँग करने वाले 75 मिलियन परिवारों में से लगभग 13% की माँगे पूरी नहीं हो पाईं हैं।
  • हालाँकि, कई भारतीय शहरों में बंद पड़े कारोबार का अर्थ है कि लाखों श्रमिकों ने या तो काम छोड़ दिया है या वे नए प्रकार के कार्यों में संलग्न हो गए हैं। कुछ लोगों के लिये गिग अर्थव्यवस्था उनके रोज़गार का एकमात्र स्रोत है।

मूल्यांकन, विनियमन और समर्थन की आवश्यकता

  • उचित वेतन, स्थिति, अनुबंध, प्रबंधन और प्रतिनिधित्व के पाँच मैट्रिक्स के आधार पर शहरी रोज़गार से संबंधित एक मूल्यांकन किया गया। इनमें उबर, ओला, स्विगी और ज़ोमैटो जैसे रोज़गार प्रदाता मंच शामिल हैं।
  • मनरेगा के समकक्ष कोई शहरी मंच उपलब्ध न होने के कारण रोज़गार के नए स्वरूपों का मूल्यांकन, विनियमन और समर्थन करने की आवश्यकता है, जो वर्तमान में रोज़गार की तलाश कर रहे लोगों के लिये एक अनौपचारिक सुरक्षा जाल के रूप में कार्य कर सकती है।

मूल्यांकन

  • पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य मूल्यांकन का रहता है। गिग श्रम के कार्य और श्रमिकों के बारे में मौजूदा समझ स्वयं इन मंचों द्वारा प्रदान किये गए सीमित आँकड़ों पर निर्भर है।
  • इसके अलावा, इन रोज़गार प्रदाता मंचों के पैमाने और प्रभाव का मूल्यांकन करने वाले स्वतंत्र अध्ययन बहुत कम हैं। इनमें से अधिकांश नियामक इन मंचो से संबंधित श्रम और उसके आसपास के बुनियादी आँकड़ों व सवालों पर अंधेरे में ही रहते हैं।
  • अब तक भारत में गिग श्रमिकों की कुल संख्या से संबंधित कोई आधिकारिक अनुमान उपलब्ध नहीं हैं। हालाँकि, इन प्लेटफॉर्मों की केंद्रीकृत प्रकृति और बड़े आकार के कारण श्रम मंत्रालय के लिये डाटा के संग्रहण को अपेक्षाकृत सीधा व आसान बनाया जाना चाहिये।

विनियमन का मुद्दा

  • अगला मुद्दा विनियमन का है, जो काफी संवेदनशील है। संवेदनशीलता का कारण प्राथमिक रूप से गिग श्रम की विविधतापूर्ण प्रकृति है। कुछ श्रमिक इन मंचों का उपयोग अनियमित आजीविका या अंशकालिक नौकरी के लिये करते हैं, जबकि कुछ के लिये यह रोज़गार का प्राथमिक स्रोत है।
  • यह गत्यात्मकता ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ जैसी विनियामक रणनीति के जोखिम से और अधिक जटिल हो जाती है, जो एक जैसे बाज़ारों के साथ-साथ फ्रीलांसरों (अत्यधिक कुशल और अत्यधिक भुगतान पाने वाले) के रूप में उभर रहे नए व अलग प्रकार के बाज़ारों को भी अनजाने मेंनुकसान पहुँचाती है। गौरतलब है कि महामारी के चलते फ्रीलांस मार्केट का तेजी से विकास हुआ है।
  • इसके लिये कुछ फ्लैगशिप योजनाओं के माध्यम से सरकार इन प्लेटफॉर्मों के साथ सशर्त भागीदारी कर सकती है। इस संबंध में प्रधानमंत्री स्वनिधि (पीएम स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर निधि) योजना के अंतर्गत स्विगी का स्ट्रीट फूड वेंडर प्रोग्राम एक अच्छा उदाहरण साबित हो सकता हैं।
  • इसके तहत स्थापित किये जाने वाले स्ट्रीट वेंडर को भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण द्वारा पंजीकरण व प्रमाणन सुनिश्चित किया जा रहा है।
  • नौकरियों के सृजन के साथ-साथ स्वैच्छिक रूप से गुणवत्ता मानकों को अपनाना सरकार और रोज़गार प्रदाता के बीच पारस्परिक रूप से लाभप्रद साझेदारी का एक उदाहरण है।

आगे की राह

  • इन मंचो को सरकारी समर्थन प्राप्त करने के लिये मानदंडों और श्रमिक क्षतिपूर्ति मानकों का अनुपालन करने की आवश्यकता होती है, जो शहरी रोज़गार प्रदान करने के साथ-साथ सरकार के लिये आँकड़ो को एकत्रित करने में सहायक हो सकती है।
  • शहरी रोज़गार गारंटी के मौजूदा प्रस्तावों में सरकारी खजाने से ₹1 लाख करोड़ की लागत से श्रमिकों को लगभग ₹300 दैनिक वेतन दिया जा सकता है।
  • श्रमिकों की नियुक्ति के लिये श्रम प्लेटफॉर्मों के साथ सहयोग करने से न केवल लागत में उल्लेखनीय कमी आएगी (सरकार और भागीदारों के लिये) बल्कि इससे एक ऐसे वातावरण का भी निर्माण होगा, जहाँ फर्मों को सरकार के साथ सहयोग करने की संभावना में वृद्धि होगी।
  • सीमित वित्तीय साधन और देश के उपभोग आधार को बढ़ाने की आवश्यकता सरकार को नए साझेदारों व भागीदारों के साथ सहजीवी संबंध बनाने के लिये प्रेरित कर सकती है।
  • शहरी श्रम प्रदान करने में उद्योग 0 प्लेटफॉर्मों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है अत: मूल्यांकन, सहयोग और विनियमन सरकार का लक्ष्य होना चाहिये।
  • महामारी के कारण भविष्य में भारत को अलग प्रकार से कार्य पद्धति और उसके प्रति समझ को परिभाषित करने की आवश्यकता है अतः इसके लिये नौकरियों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ आजीविका की गुणवत्ता पर भी ध्यान देना आवश्यक है।
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