पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, 'इनसाइडर-आउटसाइडर' राजनीतिक बहस का विषय बन गया है। हाल ही में, बंगाल के राजनेताओं ने बाहरी प्रचारकों को 'बार्गी' कहकर संबोधित किया।
बंगाल के इतिहास में “बार्गी’ लोगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्ष 1741-1751 के बीच पश्चिम बंगाल में कई मराठा आक्रमणों का संदर्भ मिलता है, जिसके परिणामस्वरूप तत्कालीन मुगल क्षेत्र में लूटपाट और नरसंहार की कई घटनाएँ सामने आईं थीं।
इस विशिष्ट अवधि की घटनाओं ने बंगाल की चेतना को अत्यधिक प्रभावित किया था तथा बंगाली लोककथाओं और साहित्य में इनकी पर्याप्त उपस्थिति देखी जा सकती है।
वर्तमान में बार्गी शब्द का उपयोग परेशान करने वाली बाहरी ताकतों के आकस्मिक संदर्भ के रूप में किया जाता है।
बार्गी कौन थे?
मराठा और मुगल सेनाओं में घुड़सवार सैनिकों को बारगी या बार्गी (Bargi) कहा जाता था।
यह शब्द फ़ारसी "बरगीर/बारगीर" (Bargir) से आया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "बोझ उठाने वाला"। इतिहासकार सुरेन्द्र नाथ सेन ने वर्ष 1928 की अपनी किताब ‘द मिलिट्री सिस्टम ऑफ़ द मराठाज़’ में सर्वप्रथम इसके बारे में लिखा था।
मुगल और मराठा सेनाओं में, ‘अपने नियोक्ता द्वारा दिये गए सुसज्जित घोड़े पर सवार सैनिकों’ को बार्गी कहा जाता था।
मराठा घुड़सवार सेना में, कोई भी सक्षम व्यक्ति एक बारगीर के रूप में भर्ती हो सकता था जब तक कि उसके पास घोड़ा और सैन्य पोशाक खरीदने का साधन ना हो।
बारगीर और सिलेदार (Silhedars), सरनोबत ("सर-ए-नौबत" या कमांडर इन चीफ के लिये फ़ारसी शब्द) के नियंत्रण में थे।
वर्ष 1741 से 1751 के बीच बंगाल के मुगल प्रांत (जिसमें बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क्षेत्र शामिल थे) में मराठा घुड़सवारों का प्रवेश हुआ, जो तत्कालीन मुगल भारत में गहन राजनीतिक अनिश्चितता का समय था।