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महँगाई, बेरोज़गारी तथा असमानता से संबंधित चुनौतियाँ

(प्रारंभिक परीक्षा : आर्थिक और सामाजिक विकास- सतत् विकास, गरीबी, समावेशन, जनसांख्यिकी, सामाजिक क्षेत्र में की गई पहल आदि)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय; समावेशी विकास तथा इससे उत्पन्न विषय) 

संदर्भ

भारतीय अर्थव्यवस्था की नियमित रूप से निगरानी करने वाले संस्थान ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (CMIE) के एक हालिया अध्ययन अनुसार, भारत की श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) लगातार तीन महीनों से गिरकर अप्रैल, 2021 में 40 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई है। यह विगत वर्ष लॉकडाउन घोषित किये जाने के बाद से अपने न्यूनतम स्तर पर है। इसके अतिरिक्त, बेरोज़गारी दर भी 8 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई है। 

अर्थव्यवस्था की स्थिति

  • ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2021’ रिपोर्ट में कोविड-19 कालीन भारतीय अर्थव्यवस्था और श्रम बाज़ार का अध्ययन प्रस्तुत किया गया। इसके अनुसार, लगभग 23 करोड़ व्यक्ति भारत के न्यूनतम वेतनमान ‘375 रुपए प्रतिदिन’ से नीचे कार्य कर हैं।
  • मार्च 2020 से अक्टूबर 2020 के मध्य गरीबी का अनुपात ग्रामीण क्षेत्रों में 15 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्रों में 20 प्रतिशत से ऊपर पहुँच गया है। इसका तात्पर्य है कि सबसे निचले पायदान पर रहने वाले भारतीय परिवारों को उनकी दो माह की आय के बराबर का नुकसान हुआ है।
  • महामारी की दूसरी लहर तथा लॉकडाउन के मद्देनज़र यह संभव नहीं है कि गरीबी अनुपात में शीघ्र ही कोई सुधार देखने को मिले और गरीबी की बढ़ती दर असमानता में वृद्धि का कारण भी बनेगी।
  • आय पिरामिड के दूसरे छोर पर ‘शेयर बाज़ार’ संपत्ति और पूँजीगत लाभ प्रदान कर रहा है। वैश्विक वित्तीय प्रोत्साहन (Global Fiscal Stimuli) की उम्मीद के चलते में तरलता में वृद्धि की संभावना है, इसलिये वैश्विक शेयर बाज़ारों में तेज़ी देखी जा रही है।
  • हालाँकि भारत में ‘उपभोग और निवेश’ दोनों ही न्यूनतम स्तर पर हैं। विगत दो वर्षों की अवधि में ‘औद्योगिक उत्पादन सूचकांक’ (Index of Industrial Production-IIP) में नकारात्मक वृद्धि रही है। इसका अर्थ है कि अर्थव्यवस्था अभी भी अपने पूर्व-महामारी के स्तर पर नहीं पहुँच पाई है। 

महँगाई की चुनौतियाँ

  • इस वर्ष अप्रैल में ‘थोक मूल्य सूचकांक’ (WPI) आधारित मुद्रास्फीति 10% से ऊपर रही। इसमें 20 प्रतिशत भाग ‘फ्यूल सब-कंपोनेंट’ का है, जो खुदरा बाज़ार में पेट्रोल और डीजल की कीमतों को दर्शाता है।
  • पेट्रोल व डीज़ल, दोनों की कीमतें 100 रुपए प्रति लीटर के आसपास हैं। इससे विनिर्मित उत्पादों सबंधी मुद्रास्फीति 9% के स्तर पर पहुँच गई है।
  • डब्लू.पी.आई. आधारित मुद्रास्फीति का अधिकांश भाग इस्पात, लौह अयस्क, सीमेंट, रसायन और अलौह धातुओं जैसी वस्तुओं की कीमतों को प्रदर्शित करता है।
  • वैश्विक स्तर पर, स्टील की वर्तमान कीमत $1,000 प्रति टन है, जो वर्ष 2008 के 'उच्चतम' मूल्य से भी अधिक है। इसके अलावा, ब्लूमबर्ग का ‘कमोडिटी स्पॉट इंडेक्स’ वर्ष 2011 के बाद के अपने सबसे उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है।
  • उक्त वृद्धि, आंशिक रूप से वैक्सीन कार्यक्रम तथा दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं, अमेरिका और चीन में विकास की मज़बूत संभावनाओं के कारण परिलक्षित हो रही है। चीन की अर्थव्यवस्था ने वर्ष 2021 की पहली तिमाही में 18% की संवृद्धि दर्ज़ की है तथा उम्मीद है कि आगे भी ‘चीन’ इसी गति से बढ़ता रहेगा।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) ने अपनी अवसंरचना के पुनर्निर्माण के लिये एक महत्त्वाकांक्षी राजकोषीय व्यय योजना तैयार की है। अनुमान है कि यू.एस.ए. की अर्थव्यवस्था भी गति पकड़ रही है क्योंकि उसकी नवीनतम मुद्रास्फीति दर 2% दर्ज़ की गई है।
  • कार्गो व कंटेनर शिपमेंट, दोनों के लिये कंटेनरों की कमी तथा बढ़ती माल ढुलाई दरों से यह प्रतीत हो रहा है कि वैश्विक व्यापार में भी तेज़ी आ रही है। 

महँगाई के प्रभाव

  • बढ़ती कीमतों ने ‘एग्रीकल्चर बास्केट’ को भी प्रभावित किया है। ‘खाद्य एवं कृषि संगठन’ (FAO) का ‘खाद्य मूल्य सूचकांक’ एक वर्ष में 31% बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त, चीनी की कीमतें 58 फीसदी बढ़ी हैं तथा वनस्पति तेल की कीमतें लगभग दोगुनी हो गई हैं।
  • भारत की डब्लू.पी.आई. मुद्रास्फीति, जो उत्पादकों के लिये बढ़ती ‘इनपुट लागत’ को प्रदर्शित करती है, का कितना दबाव अंतिम उपभोक्ताओं पर स्थानांतरित किया जाएगा, यह देखना अभी शेष है।
  • इसके अलावा, ईंधन की कीमतें भी बढ़ रही हैं और उपभोक्ताओं पर इसका असर पड़ना तय है। ‘उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ (CPI) में खाद्य पदार्थों का भारांश ज़्यादा होता है। एक अच्छा मानसून, जो फसल की बेहतर पैदावार सुनिश्चित कर सकता है, खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकता है।
  • ‘मानसून’ किसानों और ग्रामीण उत्पादकों के लिये आपदा का कारण भी बन सकता है क्योंकि यदि फलों और सब्जियों जैसी मौसमी उपज की कीमतों में गिरावट होती है, तो इससे से उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
  • ऐसा ही एक उदाहरण हरियाणा में देखने को मिला, जहाँ किसानों ने अपने टमाटर बहुत कम कीमतों पर बेचने के बजाय उन्हें नष्ट करने का विकल्प चुना। उन्होंने कहा कि चालू कीमतों पर वे इनपुट लागत को भी वसूलने में असमर्थ हैं।
  • भारत में गेहूँ, चावल जैसे कुछ अनाजों के लिये तो ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की व्यवस्था उपलब्ध है, लेकिन अन्य फसलों के लिये ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जो उनका मूल्य सुनिश्चित कर किसानों को राहत दे सके।
  • कोविड-19 की दूसरी लहर और लॉकडाउन के कारण ग्रामीण क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं और वे कम आय, उच्च मुद्रास्फीति, बेरोज़गारी तथा असमानता की समस्या का सामना कर रहे हैं। 

भावी राह

  • एम.एस.एम.ई. और अनौपचारिक क्षेत्र अभी भी संघर्षरत है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने हाल ही में उनके लिये विशेष ऋण और तरलता उपाय संबंधी प्रावधान किया है। इसके अतिरिक्त, उनके लिये ‘ऋण-पुनर्भुगतान स्थगन’ (Loan-repayment Moratorium) तथा पुराने ऋणों (Overdue Loans) को पुनर्गठित करने की आवश्यकता भी हो सकती है।
  • ‘प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता’ (Direct Fiscal Support) के माध्यम से मुद्रास्फीति और आय-क्षति की दोहरी मार झेल रहे परिवारों की सहायता की जा सकती है।
  • जैसा कि ‘वर्किंग इंडिया रिपोर्ट’ में सुझाया गया है कि ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (PDS) के सभी लाभार्थियों को कम से कम तीन महीने तक 5,000 रुपए प्रतिमाह का नकद हस्तांतरण करना उचित रहेगा।
  • गौरतलब है कि पी.डी.एस. का कवरेज जन-धन बैंक खातों की तुलना में दोगुना है। विगत वर्ष की भाँति इस वर्ष भी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये नि:शुल्क अनाज वितरण आवश्यक प्रतीत होता है। 

निष्कर्ष

नीति-निर्माताओं को सतर्क रहना चाहिये कि भारत में आय और आजीविका का संकट, खाद्य संकट में परिवर्तित न होने पाए। बेशक, तात्कालिक प्राथमिकता ‘स्वास्थ्य सेवाएँ’ सुनिश्चित करना है, लेकिन इसके लिये भी तीव्र सार्वभौमिक और नि:शुल्क टीकाकरण अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है। इन कार्यों के लिये आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटाने के लिये भी सरकार को गंभीर प्रयास करने चाहियें।

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