(प्रारंभिक परीक्षा : भारत का इतिहास) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 : भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू) |
संदर्भ
असम के मोइदम्स को सांस्कृतिक श्रेणी में प्रतिष्ठित 43वां यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का टैग प्राप्त हुआ है। नई दिल्ली में आयोजित विश्व धरोहर समिति की बैठक में मोइदाम को शामिल करने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया।
प्रमुख बिंदु
- ‘चराइदेव मोइदाम’ असम स्थित ताई-अहोम (Tai-Ahom) साम्राज्य के कब्रगाह स्तूप है। 18वीं सदी तक यह असम के ताई-अहोम समुदाय की दफन परंपरा थी।
- चराइदेव के 'मोइदाम' या टीला-दफन प्रणाली को सर्वप्रथम वर्ष 2014 में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की अस्थायी सूची में शामिल किया गया था।
- मोइदम्स विश्व धरोहर सूची में शामिल होने वाला पहला सांस्कृतिक स्थल (सांस्कृतिक विरासत श्रेणी से) और उत्तर पूर्व का तीसरा समग्र स्थल है। दो अन्य काजीरंगा और मानस हैं जिन्हें प्राकृतिक विरासत श्रेणी के अंतर्गत अंकित किया गया था।
मोइदाम : ताई-अहोम साम्राज्य की टीला-दफन प्रणाली
- मोइदाम ताई-अहोम सम्राटों की कब्रगाह है और इस समुदाय के लिये एक पवित्र स्थान है। इस साम्राज्य के कब्रगाह 'मोइदाम' को असम के पिरामिड के रूप में भी जाना जाता है। इसे प्राचीन मिस्र के पिरामिडों के सदृश्य माना जाता है।
- चराइदेव में राजाओं की करीब 31 एवं रानियों की करीब 160 मोइदाम हैं। अब तक खोजे गए 386 मोइदाम में से चराईदेव में 90 शाही मोइदाम इस परंपरा के सर्वाधिक संरक्षित एवं प्रतिनिधित्व के सर्वप्रमुख उदाहरण हैं।
- चराइदेव मोइदाम में इस साम्राज्य के सदस्यों के नश्वर अवशेष रखे गए हैं, जिन्हें उनकी साज-सामान के साथ दफनाया जाता था। शाही मोइदाम विशेष रूप से चराइदेव में पाए जाते हैं, जबकि अन्य मोइदाम असम के जोरहाट एवं डिब्रूगढ़ कस्बों में बिखरे हुए पाए जाते हैं।
- 18वीं शताब्दी के बाद इस साम्राज्य के शासकों ने दाह संस्कार की हिंदू पद्धति को अपना लिया। इसके बाद इनमें दाह संस्कार की हड्डियों एवं राख को दफनाना शुरू कर दिया गया था।
- शाही ताई-अहोमों का दाह संस्कार उनके पदानुक्रम को दर्शाते हुए बहुत ही धूमधाम एवं भव्यता के साथ किया जाता था।
- हालांकि, 20वीं सदी की शुरुआत में खजाने की खोज के कारण चराइदेव मोइदाम को बर्बरता से नष्ट कर दिया गया।
घ्राफालिया और लिखुराखान खेल के लोग
- यह उन लोगों का समूह है जिन्हें अहोम राजाओं द्वारा विशिष्ट कार्य करने के लिए नियुक्त किया गया था और प्रत्येक खेल (समुदाय / समूह) में एक से पांच हजार लोग होते थे।
- एक प्रथा के रूप में केवल घ्राफालिया और लिखुराखान खेल के लोगों को राजाओं व रानियों के शवों को दफनाने की अनुमति थी।
- ताबूत, जिसे रुंग-डांग के नाम से जाना जाता था, के संबंध में भी खेल के लोगों की विशेष भूमिका होती थी।
- ताबूत को उरियम (बेस्कोफिया जावानिका) नामक एक विशिष्ट प्रकार की लकड़ी से बनाया जाता था।
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मोइदाम की सरंचनात्मक शैली
निर्माण विधि
- चराइदेव एवं अन्य स्थानों के मोइदाम अहोम शैली में निर्मित किये गए हैं। संरचनात्मक रूप से एक मोइदाम में एक या एक से अधिक कक्षों के साथ वाल्ट (तिजोरी) होते हैं।
- वाल्ट्स में एक गुंबदाकार अधिसंरचना है जो एक अर्धगोलाकार मिट्टी के टीले से ढकी हुई है और जमीन के ऊपर ऊंची उठी हुई है। प्रत्येक गुंबददार कक्ष में एक केंद्रीय रूप से उठा हुआ मंच है, जहां पर मृत शरीर रखा जाता था।
- चोटी पर एक खुला मंडप है, जिसे चाउ-चाली कहते हैं। एक अष्टकोणीय छोटी दीवार से पूरे मोइदाम को घेरा गया है।
प्रयुक्त सामग्री
- मोइदाम के गुंबददार कक्ष में एक धनुषाकार मार्ग से प्रवेश किया जाता है। 13 सदी से 17वीं सदी के बीच की अवधि में इनके निर्माण के लिये प्राथमिक सामग्री के रूप में लकड़ी का उपयोग किया जाता था।
- 18वीं सदी के बाद से इनके आंतरिक कक्षों के लिये विभिन्न आकार के पत्थरों एवं पकी हुई ईंटों का उपयोग किया गया।
- इनकी अधिसंरचना के निर्माण के लिये विभिन्न आकारों के बोल्डर, टूटे हुए पत्थर, ईंटें एवं टूटी हुई ईंट का उपयोग किया गया है, जबकि उप-आधार के लिये बड़े पत्थर के स्लैब का उपयोग किया गया है।
- ताई-अहोमों द्वारा विकसित विहित पाठ ‘चांगरुंग-फुकन’ मोइदाम के निर्माण के लिये प्रयुक्त सामग्रियों का रिकॉर्ड रखता है।
ताई-अहोम साम्राज्य
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- इस कबीले का आगमन चीन से हुआ। इस समुदाय ने बाराही जनजाति को पराजित करके अपने साम्राज्य की स्थापना की।
- इन्होंने मध्यकाल के उत्तरार्ध (12वीं से 18वीं सदी के मध्य) में ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के विभिन्न हिस्सों में अपनी राजधानी स्थापित की।
- पहले ताई-अहोम राजा ‘चाओ लुंग सिउ-का-फा’ थे। उन्होंने वर्ष 1253 में चराइदेव को अहोम साम्राज्य की पहली स्थायी राजधानी बनाया।
- यह स्थान गुवाहाटी से 400 कि.मी. पूर्व में पटकाई पर्वत रेंज की तलहटी में स्थित है।
- इस साम्राज्य के 600 वर्षों के शासनकाल में राजधानी में परिवर्तन होता रहा किंतु चराइदेव ताई-अहोम की शक्ति का प्रतीक बना रहा। वर्ष 1826 में अंग्रेजों ने असम सहित इस पर आधिपत्य कर लिया।
- ‘लाचित-बोरफुकन’ एक महान ताई-अहोम सेनापति थे, जिन्होंने वर्ष 1671 में मुगलों के विरुद्ध युद्ध किया था।
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