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चीन की जलवायु प्रतिबद्धता : पृथ्वी और भारत के लिये निहितार्थ

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र-3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चीन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलते हुए जलवायु परिवर्तन के सम्बंध में दो घोषणाएँ की, जिसका जलवायु कार्य कर्ताओं ने स्वागत किया है।

पृष्ठभूमि

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन प्रत्येक वर्ष सामान्यत: अंतिम तिमाही में आयोजित की जाती है। उल्लेखनीय है कि COP-26 मूलत: 9 से 19 नवम्बर 2020 तक ग्लासगो, यूनाइटेड किंगडम में सम्पन्न होने वाली था परंतु कोविड-19 के कारण इसे वर्ष 2021 तक स्थगित कर दिया गया।

चीन की घोषणा

  • प्रथम घोषणा के अनुसार वर्ष 2060 तक चीन ने ‘नेट कार्बन उत्सर्जन शून्य’ या ‘कार्बन तटस्थता’ (कार्बन नेट-ज़ीरो) की स्थिति हासिल करने का लक्ष्य रखा है।‘नेट-ज़ीरो’ एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी देश के उत्सर्जन की क्षतिपूर्ति वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण और उसके निष्कासन द्वारा की जाती है।
  • ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण को अधिक कार्बन सिंक (जैसे- वन) के सृजन से बढ़ाया जा सकता है, जबकि निष्कासन में कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी तकनीकों का अनुप्रयोग शामिल है।
  • दूसरी घोषणा के अनुसार चीन का लक्ष्य वर्ष 2030 से पहले ही CO2 उत्सर्जन के स्तर में कमी करना है। चीन पहले से ही वर्ष2030 तक अपने उत्सर्जन स्तर में कमी करने को लेकर प्रतिबद्ध था।
  • इसका मतलब है कि चीन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को अपने उच्चतम बिंदु / अधिकतम स्तर से आगे नहीं बढ़ने देगा। हालाँकि, चीन ने ‘वर्ष 2030 से पहले’ की अवधि का उल्लेख नहीं किया है परंतु इसे विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक के द्वारा एक अत्यंत सकारात्मक कदम के रूप में देखा जा रहा है।

नेट ज़ीरो का लक्ष्य : महत्त्व

  • विगत कुछ वर्षों से, वर्ष 2050 तक ‘जलवायु तटस्थता’ की स्थिति प्राप्त करने के लिये बड़े उत्सर्जकों व अन्य देशों की प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करने के लिये एक ठोस अभियान चलाया जा रहा है।
  • इसे कभी-कभी ‘शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की स्थिति’ के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसमें देशों को अपने उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता होती है, जबकि भूमि या वन के रूप में सिंक बढ़ाने की आवश्यकता होती है, जो उत्सर्जन को अवशोषित करते हैं।
  • यदि सिंक पर्याप्त नहीं हैं, तो देश उन प्रौद्योगिकियों को अपना सकते हैं, जो वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीनहाउस गैसों को भौतिक रूप से निष्कासित करते हैं।हालाँकि, इस तरह की अधिकांश तकनीकें अभी भी अप्रमाणित और बेहद महँगी हैं।
  • वैज्ञानिकों और जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ‘पूर्व-औद्योगिक’काल की तुलना में वैश्विक तापमान को 2°C से आगे बढ़ने से रोकने के पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्ष 2050 तक वैश्विक कार्बन तटस्थता की स्थिति को प्राप्त करना है।
  • उत्सर्जन की वर्तमान दर के अनुसार विश्व, वर्ष 2100 तक तापमान में 3° से 4°C की वृद्धि की ओर अग्रसर है।

चीन की प्रतिबद्धता का महत्त्व

  • चीन, विश्व में ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। वैश्विक उत्सर्जन में इसकी हिस्सेदारी लगभग 30% है, जोअगले तीन सबसे बड़े उत्सर्जनकर्ता-अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत के संयुक्त उत्सर्जन से अधिक है।
  • चीन द्वारा नेट-ज़ीरो लक्ष्य के लिये स्वयं को प्रतिबद्ध करना एक बड़ी सफलता है, भले ही यह 10 वर्ष बाद हो। विशेषकर ऐसी स्थिति में जब कई देश इस तरह की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं के प्रति वचनबद्ध नहीं हैं, यह घोषणा और महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
  • अभी तक यूरोपीय संघ ही एकमात्र बड़ा उत्सर्जक था जिसने वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की स्थिति के लिये स्वयं को प्रतिबद्ध किया है।
  • इसके अतिरिक्त 70 से अधिक अन्य देशों ने भी इसी तरह की प्रतिबद्धताएँ व्यक्त की हैं। हालाँकि, उनमें से अधिकांश देश अपेक्षाकृत कम उत्सर्जन करते हैं, जिस कारण उनकी नेट-ज़ीरो उत्सर्जन स्थिति भी पृथ्वी के लिये बड़े पैमाने पर मददगार नहीं होगी।
  • पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये चार बड़े उत्सर्जकों, यथा-चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत की जलवायु क्रियाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो एक साथ मिलकर आधे से अधिक वैश्विक उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार हैं। इसके बाद रूस, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश आते हैं।
  • कुछ समय पूर्व ही दक्षिण अफ्रीका ने भी वर्ष 2050 तक कार्बन-तटस्थ देश बनने की इच्छा जताई है, परंतु अन्य कई देश इस कदम से पीछे हट गए हैं। पेरिस समझौते से अमेरिका भी बाहर हो गया है और यहाँ तक की अब वह इन लक्ष्यों पर विश्वास भी नहीं करता है।

भारत की प्रतिबद्धता

  • भारत ने विकसित देशों द्वारा अपने पिछले वादों को निभाने में पूरी तरह से विफल रहने और उनके द्वारा पहले की गई प्रतिबद्धताओं पर कभी अमल नहीं करने का हवाला देते हुए उत्सर्जन को लेकर दीर्घकालिक प्रतिबद्धता के लिये बनाए जा रहे दबाव का विरोध किया है।
  • भारत यह भी तर्क दे रहा है कि उसके द्वारा की जा रही जलवायु परिवर्तन की कार्रवाइयाँ विकसित देशों की तुलना में सापेक्षिकरूप से कहीं अधिक मज़बूत हैं।
  • चीन अब तक कमोबेश भारत के समान इसी तरह के तर्क देता रहा है। दोनों देशों ने जलवायु परिवर्तन वार्ता में ऐतिहासिक रूप से एक साथ मिलकर मुद्दे उठाए हैं, भले ही पिछले कुछ दशकों में उनके उत्सर्जन और विकास की स्थिति में भारी अंतर आया हो।

भारत के लिये चीन की प्रतिबद्धता के निहितार्थ

  • चीनी घोषणा के द्वारा स्वाभाविक रूप से भारत पर नियमों का पालन करने के लिये दबाव बढेगा और कुछ दीर्घकालिक प्रतिबद्धताएँ भी अपेक्षित होंगीं।
  • वास्तव में, यदि पेरिस समझौते में किये गए वादों को देखा जाए, तो भारत एकमात्र G20 देश है, जिसका कार्य 2° लक्ष्य को पूरा करने के लिये बढ़िया तरीके से आगे बढ़ रहा है।
  • अन्य विकसित देश वास्तव में 1.5° की दिशा में प्रयासरत हैं परंतु वे 2° के लक्ष्य को पूरा करने में भी विफल साबित हो रहे हैं।इसलिये दबाव बढ़ाना होगा।
  • जलवायु एक्शन ट्रैकर भी भारत के कार्यों को ‘2 °C के अनुरूप’ मानता है, जबकि अमेरिका, चीन और यहाँ तक ​​कि यूरोपीय संघ के वर्तमान प्रयासों को ‘अपर्याप्त’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  • इस वर्ष की शुरुआत में, भारत अपने लिये एक लम्बी अवधि की जलवायु नीति तैयार करने की प्रक्रिया में था, लेकिन ऐसा लगता है कि यह प्रयास अब समाप्त हो चुका है।
  • चीन के फैसले का एक और दुष्परिणाम यह है कि भारत और चीन के बीच जलवायु वार्ता में मतभेद बढ़ सकते हैं। एक विकासशील देश के रूप में भारत के साथ गठबंधन करने के लिये चीन के पास अब बहुत कम आधार शेष हैं।

निष्कर्ष

  • पेरिस समझौते की सफलता के लिये चीन का निर्णय एक बड़ा कदम है। इससे यह सुनिश्चित हो गया है कि इस महामारी के दौरान जलवायु परिवर्तन के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है।
  • क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुसार, यदि चीनी लक्ष्य को साकार रूप मिल जाए, तो वर्ष 2100 के ग्लोबल वार्मिंग के अनुमानों को 0.2° से 0.3°C किया जा सकता है, जो किसी भी देश द्वारा अब तक का सबसे प्रभावशाली एकल कार्य माना जाएगा।
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