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सिविल डेथ एवं संबंधित मुद्दे

प्रारंभिक परीक्षा

(भारतीय राजनीतिक व्यवस्था)

मुख्य परीक्षा

(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य; विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान)

संदर्भ 

सर्वोच्च न्यायालय ने 7 नवंबर, 2024 को वेतनभोगी ननों (Salaried Nuns) को आयकर से छूट देने के लिए विभिन्न मिशनरियों द्वारा दायर 93 याचिकाओं को खारिज कर दिया है। देश में ननों एवं पादरियों को आयकर में छूट देने का नियम चालीस के दशक में शुरू हुआ और तर्क दिया गया कि यह तबका समाजिक कल्याण के लिए कार्य कर रहा है अत: उनके लिए छूट होनी ही चाहिए। बाद में इसे औपचारिक स्वरूप प्रदान कर दिया गया। 

मिशनरियों का तर्क

  • मिशनरियों ने तर्क दिया था कि जब नन एवं पादरी ‘धनहीनता की शपथ’ (Vow of Poverty) लेते हैं तो वे ‘सिविल डेथ’ (Civil Death) की स्थिति में आ जाते हैं और उन्हें कर देने की आवश्यकता नहीं होती है।
  • ये न तो विवाह कर सकते हैं, न ही स्वयं की संपत्ति बना सकते हैं। उन्हें प्राप्त होने वाले वेतन को वे धार्मिक संस्थाओं को भेज देते हैं ताकि चैरिटी हो सके। इसलिए उन्हें कर के दायरे से अलग रखा जाना चाहिए। 
  • सिविल डेथ की स्थिति में नन या पादरी के परिवार की मौत होने पर भी वह अपनी विरासत पर कोई अधिकार नहीं दिखा सकते हैं। वे स्वयं को परिवार से अलग एवं एकाकी मान लेते हैं। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ इससे सहमत नहीं हुई।

सिविल डेथ के बारे में 

  • सिविल डेथ से तात्पर्य किसी व्यक्ति की ऐसी कानूनी स्थिति से है जिसमें व्यक्ति शरीरिक रूप से जीवित होता है किंतु वह नागरिक या समाजिक सदस्य के रूप में प्रदत्त अधिकारों एवं विशेषाधिकारों से वंचित होता है। 
    • सामान्य शब्दों में किसी व्यक्ति को उसके नागरिक अधिकारों से वंचित करना उसकी ‘सिविल डेथ’ कहलाता है। आजीवन कारावास की सजा पाए व्यक्ति की कानूनी स्थिति ऐसी ही होती है।

भारतीय कानून में सिविल डेथ की स्थिति 

  • भारत में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 108 के तहत 7 वर्ष से अधिक समय से लापता व्यक्ति की ‘सिविल डेथ’ की धारणा है। 
    • हालांकि, यदि कोई अन्य व्यक्ति, ऐसे व्यक्ति के लापता होने से प्रभावित होता है तो वह अन्य व्यक्ति कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में लापता व्यक्ति की मृत्यु की घोषणा के लिए मुकदमा भी दायर कर सकता है। 
    • किसी व्यक्ति की सिविल डेथ की घोषणा होने पर मृत घोषित व्यक्ति के कानूनी उत्तराधिकारियों को क़ानूनी लाभ प्राप्त हो जाते हैं।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 107 का संबंध 30 वर्षों के भीतर किसी व्यक्ति की मृत्यु को सिद्ध करने के दायित्व के बारे में है, जिसके बारे में ज्ञात है कि वह जीवित था। 

सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के बारे में 

  • वाद क्या है : 1 दिसंबर, 2014 को आयकर विभाग ने शिक्षा अधिकारियों एवं जिला कोषागार अधिकारियों को एक निर्देश दिया। इस निर्देश में सरकार से वेतन प्राप्त करने वाले धार्मिक मण्डलों के सदस्यों की आय के स्रोत पर कर कटौती (TDS) करने के लिए कहा गया। 
  • केरल उच्च न्यायालय में चुनौती : इस आदेश के विरोध में ईसाई धार्मिक मंडलों द्वारा केरल उच्च न्यायालय में आयकर विभाग के इस फैसले को चुनौती दी गई किंतु इसमें सफलता नहीं मिली। 
  • ईसाई संप्रदायों का मत : फ्रांसिस्कन से लेकर कार्मेलाइट तक ईसाई मिशनरी संप्रदायों ने न्यायालय में तर्क दिया है कि नन एवं पादरी जब धनहीनता की शपथ लेते हैं तो वे सिविल डेथ की स्थिति में चले जाते हैं और इसलिए उन्हें कर का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं होती है। 
    • एक नन कठोर प्रशिक्षण से गुजरने के बाद आज्ञाकारिता, शुद्धता एवं निर्धनता (Obedience, Chastity & Poverty) की तीन पवित्र प्रतिज्ञाएँ लेती है।
    • नन संपत्ति की मालिक नहीं हो सकती है, कभी विवाह नहीं करती है और तपस्वी का जीवन जीती हैं।
    • वे जो आय अर्जित करती हैं, वह उनकी मंडली की होती है। यदि आवश्यक हो, तो मंडली द्वारा आय स्रोत पर कर रिटर्न जमा किया जाता है।
  • केरल उच्च न्यायालय का मत : उच्च न्यायालय के अनुसार, धार्मिक मण्डली के कैनन कानून (Canon Laws) के सिद्धांतों का उस मंडली के सदस्यों पर अधिभावी अधिकार (Overriding Title) होता है किंतु यह नागरिक कानून (Civil law) पर प्रभावी नहीं हो सकता है और इस मामले में आयकर विभाग के निर्देशों की वैधता को बनाए रखा गया।
  • सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती : केरल उच्च न्यायालय के निर्णय को ईसाई संप्रदायों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। 
    • सर्वोच्च न्यायालय में तर्क दिया गया कि जो व्यक्ति सिविल डेथ की स्थिति में है, वह आय अर्जित नहीं कर सकता है। 
    • तर्क के अनुसार, पादरी/नन धनहीनता की शपथ लेते हैं तो वे सिविल डेथ की स्थिति में आ जाते हैं और उन्हें कर नहीं देना होता है।
    • मिशनरियों ने तर्क दिया कि प्राप्त वेतन का उपयोग ननों के व्यक्तिगत व्यय के लिए नहीं किया जाता है बल्कि संबंधित मण्डलियों को दिया जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय एवं तर्क 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 7 नवंबर, 2024 को वेतनभोगी ननों को आयकर से छूट देने के लिए विभिन्न मिशनरियों की 93 याचिकाओं को खारिज कर दिया।
  • न्यायालय के अनुसार, कानून सभी नागरिकों के लिए समान है और जो भी नागरिक आय प्राप्त करता है, चाहे वह नन हो या न हो, उसे कर देना ही होगा। 
  • साथ ही, जब कोई संगठन वेतन का भुगतान करता है, चाहे वह वेतन व्यक्ति ने स्वयं रखा हो या कहीं अलग, इसका कर-देयता से कोई लेना-देना नहीं है। 
  • कर देना कानूनी अनिवार्यता है और धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यदि वेतन खाते में आ रहा है तो कर देना होगा। 
  • अगर कोई सिविल डेथ की स्थिति में पहुंच चुका है तो वो नियमित गतिविधि भी नहीं कर सकता है, जैसे- नौकरी करना। किंतु ननों एवं पादरियों को वेतन मिलता है। यद्यपि वे इसका प्रयोग स्वयं के लिए न करते हो तो भी टी.डी.एस. काटा जाएगा। 
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