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संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु प्रस्ताव और भारत के लिये उसकी व्यावहारिकता

(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने भारत से कोयले के प्रयोग को तत्काल बंद करने और वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में 45% की कमी लाने का आह्वान किया है।

नैतिक दबाव में वृद्धि का प्रयास

  • टेरी (TERI) में व्याख्यान के दौरान जलवायु कूटनीति कदम के रूप में गुटारेस ने भारत से वर्ष 2020 के बाद कोयले में कोई नया निवेश न करने का आह्वान किया।
  • यह अपील वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCCC) के स्थापना सिद्धांतों के विपरीत विमर्श तैयार करने की दिशा में एक कदम है। UNFCCC विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों की ज़िम्मेदारियों और प्रतिबद्धताओं के बीच अंतर को स्पष्ट करता है।
  • नवीनतम जलवायु रिपोर्ट जारी करते हुए उन्होंने विकसित देशों की भाँति चीन और भारत से भी वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन में 45% कमी करने को कहा है, जो एक विशेष रणनीति को ज़ाहिर करता है।
  • यह सलाह उस समय दी गई है, जब यह स्पष्ट है कि G-20 देशों में भारत की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है और वर्तमान में इस समूह के सदस्यों में भारत के आर्थिक संकुचन की दर सर्वाधिक है, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव अभी भी बहुत स्पष्ट नहीं है।
  • भारतीय विदेश मंत्री की उपस्थिति में देश के एक प्रमुख जलवायु संस्थान में दिया गया यह भाषण जलवायु क्षेत्र में भारत पर दबाव बनाने वाला एक प्रयास है। सभी G-20 राष्ट्रों से जलवायु के सम्बंध में एक जैसी अपील करना और इन देशों द्वारा समान रूप से इसके पालन की उम्मीद करना अव्यवहारिक है।

जलवायु के सम्बंध में भारत का कार्य निष्पादन रिकॉर्ड

  • भारत का नवीकरणीय ऊर्जा कार्यक्रम अत्यंत महत्त्वाकांक्षी है। साथ ही भारत का ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम भी विशेष रूप से घरेलू खपत क्षेत्र में प्रभाव दिखा रहा है।
  • भारत कम से कम 2 °C जलवायु ऊष्मन कार्रवाई लक्ष्य का अनुपालन करने वाले कुछ चुनिंदा देशों में से एक है। वर्तमान में ऐसे देशों की सूची बहुत छोटी है, जो पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने हेतु सही दिशा में कार्यरत हैं।
  • हाल के दशकों में त्वरित आर्थिक विकास के बावजूद भारत का वार्षिक उत्सर्जन 0.5 टन प्रति व्यक्ति है, जो वैश्विक औसत 1.3 टन से कम है। निरपेक्ष रूप से तीन प्रमुख उत्सर्जक- चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ है, जिनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से अधिक है।
  • संचयी उत्सर्जन के संदर्भ में (यह तापमान वृद्धि की सीमा का निर्धारण करने में वास्तव में महत्त्वपूर्ण है) वर्ष 2017 तक भारत की हिस्सेदारी 1.3 अरब जनसंख्या के लिये केवल 4% था, जबकि केवल 448 मिलियन जनसंख्या वाला यूरोपीय संघ 20% उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार था।
  • यू.एन.एफ.सी.सी.सी. के ही अनुसार वर्ष 1990 और 2017 के बीच विकसित देशों (रूस और पूर्वी यूरोप को छोड़कर) ने अपने वार्षिक उत्सर्जन में केवल 1.3% की कमी की है। साथ ही उत्सर्जन में कमी के अनुमान व लेखांकन में अपरिहार्य त्रुटियों को देखते हुए यह कमी व्यावहारिक रूप से शून्य हो जाती है।
  • कोयले को चरणबद्ध रूप से प्रयोग से बाहर करने की बात करते हुए ग्लोबल नॉर्थ (Global North) ने तेल और प्राकृतिक गैस पर निरंतर निर्भरता की वास्तविकता को अस्पष्ट कर दिया है, जबकि दोनों समान रूप से जीवाश्म ईंधन हैं और उनके प्रयोग को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने की कोई समयसीमा नहीं है।
  • इन देशों ने वर्ष 2050 तक ‘कार्बन तटस्थता’ (Carbon Neutrality) की बात करके वास्तविक मुद्दे से ध्यान भटका दिया है और इनमें से कुछ देशों द्वारा जलवायु आपातकाल की घोषणा का प्रस्ताव वास्तविकता की अपेक्षा नैतिक दिखावा अधिक है।
  • कार्बन तटस्थता का अर्थ वायुमंडल में कार्बन के उत्सर्जन और कार्बन सिंक द्वारा उसके अवशोषण के बीच संतुलन या साम्यता का होना है।

प्रथम विश्व/विकसित देशों की रणनीति

  • प्रथम विश्व के पर्यावरणविद् जलवायु कार्रवाई के लिये आवश्यक घरेलू राजनीतिक समर्थन प्राप्त करने में असमर्थ रहें हैं, अत: वे जलवायु शमन का दबाव विकासशील देशों पर डाल रहें हैं।
  • उनकी रणनीतियों में कोयला उत्पादन प्रमुखता से शामिल है। साथ ही साथ इन दावों को भी बढ़ावा दिया जा रहा है कि त्वरित जलवायु शमन चमत्कारिक रूप से घरेलू असमानताओं को कम करेगा और जलवायु अनुकूलन को सुनिश्चित करेगा।
  • इसके अतिरिक्त विनाश के सिद्धांत या औद्योगिक उत्पादकता की उपेक्षा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही इन एजेंडों को विकासशील देशों पर लागू करने हेतु प्रथम विश्व के वित्तीय व विकास संस्थानों और बहुपक्षीय अपीलों में भी वृद्धि देखी जा रही है।
  • इन सब कारणों से विकासशील देशों के युवाओं का एक वर्ग भविष्य को लेकर चिंतित हैं, लेकिन वैश्विक और अंतर्राष्ट्रीय असमानताओं के प्रति वह असंवेदनशील है। इससे जलवायु आपातकाल के सम्बंध में आलंकारिक बयानबाजी को भी बढ़ावा मिलता है।
  • संयुक्त राष्ट्र ने पेरिस समझौते से हटने के लिये अमेरिका या कोयले की आड़ में गैस और तेल पर दीर्घकालिक निर्भरता के लिये यूरोपीय संघ के देशों की शायद ही कभी आलोचना की है।
  • ये देश वैश्विक जलवायु कार्रवाई में ‘विभेदित जिम्मेदारियों के सिद्धांत’ के बिना वर्ष 2050 तक सभी के लिये लागू होने वाले कार्बन तटस्थता के एजेंडे को बढ़ावा दे रहें हैं।

कोयले में निवेश को समाप्त करना

  • यदि भारत वास्तव में इस वर्ष से कोयले में सभी निवेश को बंद कर देता है तो इसके वास्तविक परिणाम के बारे में भी सोचना होगा। वर्तमान में कोयला आधारित उत्पादन का लगभग 2 गीगावॉट प्रति वर्ष की दर से डीकमीशन किया जा रहा है, जिसका तात्पर्य है कि वर्ष 2030 तक भारत में कोयला आधारित उत्पादन मात्र 184 गीगावॉट तक रह जाएगा।
  • हालाँकि, वर्ष 2030 तक प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 1,580 से 1,660 यूनिट बिजली की खपत के लक्ष्य को पूरा करने हेतु 650 गीगावॉट से 750 गीगावॉट के बीच अक्षय ऊर्जा की आवश्यकता होगी। विकसित राष्ट्रों के विपरीत भारत तेल और गैस द्वारा कोयले को विस्थापित नहीं कर सकता है। पवन ऊर्जा की क्षमता के बावजूद इसका एक बड़ा हिस्सा सौर ऊर्जा से ही प्राप्त होने की उम्मीद है।
  • नवीकरणीय, विशेषकर सौर ऊर्जा से वास्तव में कोई भी उद्योग, विशेष रूप से विनिर्माण उद्योगों का संचालन नहीं हो पाएगा, क्योंकि नवीकरणीय ऊर्जा आवासीय उपभोग और सेवा क्षेत्र के कुछ हिस्से की माँग को ही भली भाँति पूरा कर सकती हैं।
  • जब से कोपेनहेगन समझौते ने विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन में कमी लाने हेतु कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं को ख़त्म करने का संकेत दिया है, जलवायु परिवर्तन शमन प्रौद्योगिकी के विकास और पेटेंट में महत्त्वपूर्ण गिरावट दर्ज़ की गई है। इसका अपवाद केवल चीन रहा है।

आगे की राह

  • नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों की उत्पादन क्षमता में कमी और उनका बड़े पैमाने पर संचालन व स्थापना भारत की बाहरी स्रोतों और आपूर्ति श्रृंखलाओं पर बढ़ती गम्भीर निर्भरता को उजागर करता हैं। इस समस्या को हल करने की आवश्यकता है।
  • चिंता की बात यह है कि जलवायु परिवर्तन शमन प्रौद्योगिकी के पेटेंट में भारत की उपस्थिति न्यूनतम से लेकर शून्य रही है। दशकों की इस निरंतर प्रवृत्ति को बहुत जल्द पलटना मुश्किल है, परंतु इस तरफ तेज़ी से कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
  • यह भी एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि कोयले के साथ-साथ नवीकरणीय स्रोत, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से, अकेले नवीकरण स्रोत से कहीं अधिक रोज़गार पैदा करेगा, अत: दोनों में सामंजस्य की आवश्यकता है।
  • बिजली संयंत्रों द्वारा वर्ष 2022 की समय सीमा तक उत्सर्जन मानकों को पूरा करने पर भी जोर दिया जाना चाहिये।
  • भारत को वैश्विक तापन की चुनौती हेतु एक न्यायसंगत प्रतिक्रिया के लिये अपनी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को दोहराना चाहिये।

निष्कर्ष

संयुक्त राष्ट्र महासचिव इस बात से अवगत हैं कि किसी भी गणना और अनुमान के अनुसार जलवायु कार्रवाई में भारत अपनी ज़िम्मेदारी और आर्थिक क्षमता के अनुसार कम से कम बराबर की भूमिका तो अवश्य ही निभा रहा है। यह आह्वान एक प्रकार से देश को अनौद्योगीकृत करने और जनसंख्या को विकास के निम्न जाल में ले जाने का है। 

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