(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र -3 प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित विषय, जन वितरण प्रणाली- उद्देश्य, कार्य, सीमाएं, सुधार तथा खाद्य सुरक्षा & प्रश्न पत्र-2 : गरीबी तथा भूख से संबंधित विषय)
संदर्भ
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा द्वारा वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मोटे अनाज वर्ष (International year of millets) के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया है। इसकी घोषणा के लिये भारत ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) में प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। भारत की इस पहल पर मोटे अनाजों को महत्त्व देने के उद्देश्य से यह निर्णय लिया गया है।
जलवायु परिवर्तन एवं मोटे अनाज
- मोटे अनाज जलवायु परिवर्तन एवं गरीबी के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये भोजन, पोषण, चारा एवं आजीविका के उत्तम स्रोत हैं। इसके साथ ही ये फसलें अत्यधिक तापमान, बाढ़ एवं सूखे का सामना करने में भी सक्षम हैं।
- गेहूँ एवं चावल की कृषि से होने वाला प्रति हेक्टेयर औसत उत्सर्जन क्रमशः 3968 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा 3401 किग्रा. प्रति हेक्टयर है। जबकि मोटे अनाजों से होने वाला उत्सर्जन 3218 किग्रा. प्रति हेक्टेयर है। कम उत्सर्जन के कारण मोटे अनाज जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में भी सहायता करते हैं।
- सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ साइंस, टेक्नोलोजी एंड पालिसी (बेंगलुरु) के अनुसार, चावल और गेहूँ जैसी जल गहन फसलों की तुलना में बाजरा जैसी फसलों को, जिन्हें कम वर्षा, उच्च से मध्यम तापमान तथा पर्याप्त सूर्य प्रकाश की आवश्यकता होती है, को बढ़ावा देने से वर्ष 2050 तक ग्रीन हॉउस गैसों के उत्सर्जन में 50 मिलियन टन एवं जल के प्रयोग में 300 बिलियन क्यूबिक मीटर की कमी लाई जा सकती है।
- तापमान में वृद्धि, मानसून में परिवर्तन एवं चरम जलवायु घटनाओं में हो रही लगातार वृद्धि देश में खाद्य सुरक्षा के लिये संकट उत्पन्न कर रही है। एक अध्ययन के अनुसार प्रमुख खाद्य फसलें (गेहूँ, चावल इत्यादि) इन परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील हैं। फसल उत्पादन मिश्रण में मोटे अनाजों को सम्मिलित कर खाद्य सुरक्षा के संबंध में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का सामना किया जा सकता है।
मोटे अनाजों के विकास में बाधा
- भारत लगभग 41 प्रतिशत बाज़ार भागीदारी के साथ मोटे अनाजों का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक है। इनके बढ़ते महत्त्व के कारण आने वाले दशक में इनके वैश्विक बाज़ार में 4.5 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर का अनुमान व्यक्त किया गया है।
- मोटे अनाजों को बाज़ार एवं उचित मूल्य से संबंधित कई बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। शहरी क्षेत्रों में इनकी माँग बहुत कम है। इन उत्पादों के अनुचित मूल्य निर्धारण तथा बिचौलियों के हस्तक्षेप ने किसानों के समक्ष संकट उत्पन्न किया है। हालाँकि, सरकार द्वारा इन उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि करके इन्हें प्रोत्साहन प्रदान किया जा रहा है।
- अपर्याप्त सरकारी नीतियों के साथ आय और शहरीकरण में वृद्धि के कारण मोटे अनाजों का उपयोग उपभोग के अतिरिक्त अन्य विभिन्न उद्देश्यों के लिये किया जा रहा है।
- मोटे अनाजों की माँग के प्रेरक कारकों के संबंध में किये गए अध्ययन से यह पता चला है कि भारतीय आयु और शिक्षा स्तर के रुझान इन अनाजों के विरुद्ध हो गए हैं।
- इन उत्पादों के संबंध में प्रचलित बाज़ार अस्थिरता किसानों को आजीविका सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम नहीं है।
पारिस्थितिक तंत्र का पुनरुद्धार एवं स्थिरता
- भारत में भूमि क्षरण एक गंभीर समस्या रही है। इससे बड़े पैमाने पर आर्थिक क्षति होती है। रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर कम निर्भरता वाली एवं सूखा सहिष्णु फसलें पारिस्थितिक तंत्र पर बहुत कम दबाव डालती हैं। इस प्रकार, मोटे अनाजों की कृषि पारिस्थितिकी हितैषी है।
- मोटे अनाजों की अंतर फसली कृषि (दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ बोया जाना) पारिस्थितिकी के लिये विशेष रूप से लाभप्रद है। मोटे अनाज के पौधों की रेशेदार जड़ें मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करती हैं। ये पानी के बहाव को रोककर रखती हैं तथा कटाव-प्रवण क्षेत्रों में मिट्टी के संरक्षण में सहायता करती हैं। इससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को बहाल किया जा सकता है।
जैव ईंधन के रूप में महत्त्व
- हाल ही में, प्रधानमंत्री ने वर्ष 2025 तक पेट्रोल में 20 प्रतिशत एथेनॉल सम्मिश्रण का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिसे अब घटाकर 2023 कर दिया गया है। इससे कार्बन उत्सर्जन में कमी के साथ तेल आयात पर निर्भरता कम करने में भी सहायता मिलेगी।
- भारत में अधिकांश बायो- एथेनॉल का उत्पादन चीनी के शीरे और मक्का से किया जाता है। मध्य प्रदेश में किसानों के बीच किये गए अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि ज्वार और बाजरा का उपयोग करके जैव एथेनॉल बनाया जा सकता है तथा यह ईंधन कार्बन उत्सर्जन को लगभग आधा कर सकता है।
सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग
मोटे अनाज सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में भी महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। ये जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने, पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्बहाली तथा महिला सशक्तीकरण में योगदान दे सकते हैं। उदाहरण के लिये ओडिशा बाजरा मिशन के अंतर्गत 7 .2 मिलियन महिलाओं को कृषि-उद्यमियों को बढ़ावा दिया गया है। इसके अतिरिक्त मोटे अनाज पोषण एवं गरीबी उन्मूलन में भी सहायता कर सकते हैं।
मोटे अनाज - एक सांस्कृतिक विरासत
- मोटे अनाजों की कृषि की जड़ें भारतीय संस्कृति में बहुत गहरी हैं। भारतीय सांस्कृतिक आयोजनों एवं त्योहारों के अवसर पर इनका प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है। उदाहरणस्वरूप नागालैंड में आयोजित होने वाले ‘नार्थ ईस्ट नेटवर्क’ तथा विशाखापत्तनम में जून-जुलाई में मनाया जाने वाला मंडूकिया ने मोटे अनाजों के विकास को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- तेलंगाना में ‘डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी’ जैसे संगठनों ने महिलाओं के समूह बनाए हैं तथा इन संगठनों द्वारा संस्कृति केंद्रित दृष्टिकोण के माध्यम से मोटे अनाजों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- वर्ष 2018 में ‘लेट्स मिलेट कैम्पेन’ के अंतर्गत रेस्तरां एवं रिज़ॉर्ट में पिज़्ज़ा जैसे व्यंजनों में बाजरे का उपयोग किया गया। इसके अतिरिक्त ‘फ्रेशमेन्यु’ जैसे- खाद्य वितरण स्टार्टअप ने मोटे अनाजों से संबंधित उत्पादों को वरीयता दी है।
मोटे अनाजों के विकास के लिये सरकार द्वारा किये गए प्रयास
- मोटे अनाजों के विकास के उद्देश्य से सरकार ने वर्ष 2018 को मोटे अनाजों के वर्ष के रूप में मनाया। वर्ष 2018 में ही पोषक अनाजों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के एक भाग के रूप में मोटे अनाजों का मिशन प्रारंभ किया गया।
- इसके परिणामस्वरूप इनके बीजों की गुणवत्ता में सुधार, तकनीकी के उन्नतिकरण तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से इनके उत्पादन में सुधार हुआ है।
- मोटे अनाजों के संवर्द्धन के लिये सरकार ने 18 बीज उत्पादन केंद्र एवं 22 बीज हब स्थापित किये हैं। सरकार ने पोषण अभियान में भी मोटे अनाजों को शामिल किया है।
- मोटे अनाजों के विकास के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप मोटे अनाजों का उत्पादन जो कि वर्ष 2017-18 में 164 लाख टन था जो वर्ष 2020-21 में बढ़कर 176 लाख टन हो गया है। इसके साथ ही मोटे अनाजों की उत्पादकता में भी वृद्धि हुई है। यह 2017 -18 के 1163 किग्रा. प्रति हेक्टेयर से बढ़कर वर्ष 2020 -21 में 1239 किग्रा. प्रति हेक्टेयर हो गई है।
निष्कर्ष
भारत वर्तमान में खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर है, परंतु अभी भी यह कुपोषण की गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। इस समस्या के समाधान में मोटे अनाज महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके साथ ही ये जल संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन की समस्या के निदान में भी प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि सरकार द्वारा मोटे अनाजों के उत्पादन एवं विपणन में सहयोग किया जाए तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में इन उत्पादों को महत्त्व देकर आम लोगों तक इसकी उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।