(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से संबंधित विषय व चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर पर शक्तियों तथा वित्त का हस्तांतरण और उसकी चुनौतियाँ) |
संदर्भ
भारत में भाषाई विविधता और क्षेत्रीय अस्मिता हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रही है। तमिलनाडु व असम सरकार द्वारा अपने-अपने राज्यों में तमिल एवं असमिया भाषाओं को सरकारी कार्यालयों में अनिवार्य करने का निर्णय इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
राज्यों में स्थानीय भाषाओं की अनिवार्यता
- तमिलनाडु : तमिलनाडु सरकार द्वारा जारी परामर्श पत्र के अनुसार सरकारी आदेश, परिपत्र केवल तमिल में जारी किए जाने चाहिए।
- छूट प्राप्त मामलों को छोड़कर अन्य सभी पत्र, संचार एवं पत्राचार भी तमिल में होने चाहिए।
- सरकारी कर्मचारियों को सभी पत्राचार में केवल तमिल में ही हस्ताक्षर करने चाहिए।
- असम : असम में असमिया नववर्ष के पहले दिन यानी 15 अप्रैल, 2025 को सभी सरकारी कार्यों के लिए असमिया भाषा को अनिवार्य कर दिया गया है।
- बंगाली बहुल बराक घाटी (जिसमें तीन जिले हैं) में अंग्रेजी के अलावा बंगाली भाषा का भी प्रयोग किया जाएगा।
- बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र (BTR) में चार जिले हैं जिसमें सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी के साथ बोडो भाषा का प्रयोग किया जाएगा।
स्थानीय भाषाओं की अनिवार्यता के निहितार्थ
भारत की विविधता एवं एकता
- भारत एक बहुभाषी एवं बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है। विभिन्न भाषाओं, धर्मों व संस्कृतियों के बीच एकता बनाए रखना भारतीय राजनीति का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।
- तमिलनाडु एवं असम द्वारा अपनी भाषाओं को अनिवार्य करने का कदम एक तरह से स्थानीय सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने का प्रयास है। हालाँकि, यह कदम राष्ट्रीय स्तर पर भाषाई विभाजन को और बढ़ावा दे सकता है।
- यदि अन्य राज्यों में भी इसी तरह की नीतियाँ अपनाई जाती हैं तो यह केंद्रीय सरकार की नीति और राज्य सरकारों के बीच भाषाई असहमति को जन्म दे सकता है जिससे भारत की एकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
राज्य की जनता के लिए
- स्थानीय पहचान का संरक्षण : स्थानीय भाषाओं को सरकारी कामकाज में अनिवार्य करने से जनता को अपनी भाषा एवं संस्कृति में गर्व महसूस होगा।
- शैक्षिक एवं सांस्कृतिक जागरूकता : यह कदम स्थानीय लोगों के बीच शैक्षिक एवं सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ावा देगा क्योंकि वे अपनी मातृभाषा में सरकारी सेवाएँ प्राप्त करेंगे।
- राज्य से बाहर के लोगों के लिए मुश्किलें : यदि केंद्र या अन्य राज्यों के लोग इन भाषाओं को नहीं समझते है तो सरकारी कामकाज में मुश्किलें आ सकती हैं। यह प्रक्रिया समय के साथ संचार में बाधा उत्पन्न कर सकती है।
- भाषाई भेदभाव : यह कदम अन्य भाषी समुदायों के लिए भेदभावपूर्ण हो सकता है क्योंकि इससे राज्य में निवास कर रहे अन्य भाषाई समूहों को अपनी भाषा में सरकारी कामकाज करने में कठिनाई हो सकती है।
स्थानीय भाषा अनिवार्यता के विभिन्न पहलू
सकारात्मक पक्ष
- भाषाई अस्मिता का सम्मान : यह कदम संबंधित राज्यों के लोगों की भाषाई एवं सांस्कृतिक अस्मिता को प्रोत्साहित करता है।
- स्थानीय भाषाओं का संवर्धन : तमिल एवं असमिया जैसी अन्य स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा मिलेगा।
- स्थानीय शासन की दक्षता : स्थानीय भाषा में कामकाज होने से प्रशासन में पारदर्शिता एवं स्थानीय लोगों को आसानी से अपनी समस्याओं के समाधान मिल सकते हैं।
नकारात्मक पक्ष
- राष्ट्रीय एकता पर प्रभाव : एक राष्ट्र की भाषा के रूप में हिंदी को मान्यता प्राप्त है और अन्य भाषाओं के बढ़ते प्रभाव से भाषाई तनाव बढ़ सकता है।
- भाषाई राजनीति : इससे राजनीतिक दलों को भाषाई आधार पर राजनीति करने का मौका मिल सकता है जिससे समाज में अधिक विभाजन पैदा हो सकता है।
- उत्तर-दक्षिण विभाजन में वृद्धि : यदि राज्य अपनी स्थानीय भाषाओं को अनिवार्य करते हैं तो यह विभाजन को और बढ़ावा दे सकता है। दक्षिण भारतीय राज्य, जहाँ हिंदी का ऐतिहासिक विरोध रहा है, इसे राष्ट्रीय एकता के खिलाफ समझ सकते हैं।
विविधता में एकता बनाए रखने के उपाय
- समान भाषा नीति : केंद्र सरकार को एक ऐसी भाषा नीति अपनानी चाहिए जिसमें सभी राज्य भाषाओं का सम्मान हो। इसके साथ ही हिंदी एवं अंग्रेजी को भी सरकारी कार्यों में उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
- मूलभूत शिक्षा में भाषाई समझ : बच्चों को विभिन्न भाषाओं के बारे में सीखने के लिए प्रेरित करना चाहिए ताकि वे सांस्कृतिक विविधता को समझ सकें और इसका सम्मान कर सकें।
- राजनीतिक दलों का दायित्व : राजनीतिक दलों को भाषाई मुद्दों पर राजनीति करने के बजाय राष्ट्र की एकता एवं समृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
निष्कर्ष
तमिलनाडु और असम में अपनी भाषाओं को सरकारी कार्यों में अनिवार्य करना राज्य की सांस्कृतिक पहचान एवं लोककल्याण को बढ़ावा देता है। हालाँकि, यह देश में भाषाई और क्षेत्रीय तनाव को बढ़ावा दे सकता है। इसलिए, केंद्र एवं राज्य सरकारों को इस मुद्दे पर संवेदनशीलता और संतुलन के साथ कदम उठाना चाहिए ताकि भारत में विविधता में एकता कायम रहे और भाषा के आधार पर राजनीतिक विभाजन से बचा जा सके।
भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन
- वर्ष 1953 में फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर करना था।
- आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित हुआ, जिसके बाद कई नए राज्य बने और पुराने राज्यों की सीमाएँ पुनर्निर्धारित की गईं।
भारत में भाषा के आधार पर गठित प्रमुख राज्य
- आंध्र प्रदेश (1953) : आंध्र प्रदेश पहला राज्य था जिसे तेलुगू भाषा के आधार पर मद्रास प्रांत से अलग कर बनाया गया।
- महाराष्ट्र एवं गुजरात (1960) : महाराष्ट्र व गुजरात का गठन भी भाषा के आधार पर किया गया।
- पंजाब (1966) : पंजाब को दो हिस्सों में बाँटा गया। पंजाबी-बहुल क्षेत्र पंजाब राज्य में रहा, जबकि दूसरा हरियाणा के नाम से अलग राज्य बना, जहाँ हिंदी बोलने वाले लोग अधिक थे।
- हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड (2000) : इन राज्यों का गठन भी मुख्य रूप से क्षेत्रीय भाषाओं व सांस्कृतिक अस्मिता को ध्यान में रखते हुए किया गया।
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