(प्रारंभिक परीक्षा : भारत का इतिहास ) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 : भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू) |
संदर्भ
नई लोकसभा के गठन के बाद पहले सत्र (मानसून सत्र) के दौरान संसद में ‘अभय मुद्रा’ की चर्चा की गयी।
मुद्राओं की संकल्पना
- बसवेल एवं लोपेज़ की पुस्तक द प्रिंसटन डिक्शनरी ऑफ बुद्धिज्म के अनुसार संस्कृत में मुद्रा (Mudra) शब्द का अर्थ मुहर (Seal), चिह्न (Mark), संकेत (Sign) या मुद्रा (Currency) होता है।
- संस्कृत में अभय का अर्थ निर्भयता या भयरहित होने से है।
- इस पुस्तक के अनुसार, बौद्ध संदर्भ में यह ‘अनुष्ठान अभ्यास के दौरान किए गए हाथ एवं बांह के हाव-भाव (संकेत) को संदर्भित करता है या बुद्ध, बोधिसत्व, तांत्रिक देवताओं व अन्य बौद्ध छवियों में दर्शाया गया है’।
- मुद्राएं आमतौर पर बुद्ध (या बुद्धरूप) के दृश्य चित्रण से जुड़ी होती हैं, जिसमें विभिन्न हाव-भाव अलग-अलग मनोदशाओं एवं अर्थों को व्यक्त करते हैं। यह बुद्ध की अनुभूति की अवस्थाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्तियों को दर्शाते हैं।
बौद्ध धर्म में चित्रण
- बुद्ध (छठी या पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व) के लगभग 500 वर्ष बाद तक इनके व्यक्तित्व को किसी छवि या मूर्ति के रूप में चित्रित नहीं किया गया था। उदाहरण के लिए सांची में बुद्ध को खाली सिंहासन या पदचिह्न के रूप में दर्शाया गया है।
- बुद्ध के भौतिक स्वरूप का सबसे पहला चित्रण लगभग पहली शताब्दी के आसपास का है। यह चित्रण गांधार कला में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी छोर (वर्तमान पाकिस्तान एवं अफ़गानिस्तान) से दिखाई देने लगा, जो हेलेनिस्टिक प्रभावों और बाद में गंगा के मैदानों में गुप्त काल की कला पर आधारित थे।
- बुद्धरूप के प्रारंभिक चित्रणों में चार मुद्राएं पाई जाती हैं : अभय मुद्रा (निर्भयता की मुद्रा), भूमिस्पर्श मुद्रा (पृथ्वी-स्पर्श मुद्रा), धर्मचक्र मुद्रा (धर्म के चक्र की मुद्रा) और ध्यान मुद्रा (ध्यान की मुद्रा)।
- बौद्ध धर्म में महायान (Greater Vehicle) एवं वज्रयान (Thunderbolt Vehicle) के विकास और भारत के बाहर बौद्ध कलाकृतियों के प्रसार के साथ सैकड़ों मुद्राएँ बौद्ध प्रतिमा विज्ञान (Iconography) में शामिल हो गईं।
- तांत्रिक बौद्ध परंपराओं में मुद्राएं गतिशील अनुष्ठान हस्त भंगिमाओं से जुड़ी हुई हैं, जहां वे ‘भौतिक प्रसाद, पूजा के नियमित रूपों या कल्पनाशील देवताओं के साथ संबंधों का प्रतीक हैं’।
अभय मुद्रा : निर्भयता का प्रतीक
- इस मुद्रा में आम तौर पर दाहिना हाथ कंधे की ऊंचाई तक उठा रहता है और हथेली को बाहर की और उंगलियों को सीधा रखते हुए दिखाया जाता है, कभी-कभी, तर्जनी, दूसरी या तीसरी उंगली अंगूठे को छूती है जबकि बायां हाथ गोद में होता है।
- कुछ मामलों में दोनों हाथों को एक साथ इस मुद्रा में “दोहरी अभयमुद्रा” में उठाया जा सकता है।
- बौद्ध परंपरा में अभय मुद्रा बुद्ध द्वारा ज्ञान (Enlightenment) की प्राप्ति के तुरंत बाद से जुड़ी हुई है, जो ज्ञान प्राप्ति से मिलने वाली सुरक्षा, शांति एवं करुणा की भावना को दर्शाती है।
- यह मुद्रा उस क्षण को भी इंगित करता है जब शाक्यमुनि (बुद्ध) ने पागल हाथी को वश में किया था, जो बुद्ध की अपने अनुयायियों को निर्भयता प्रदान करने की क्षमता को दर्शाता है।
- बौद्ध धर्म में अभय मुद्रा को ‘सुरक्षा के संकेतक’ या ‘शरण देने के संकेतक’ के रूप में भी देखा जाता है।
हिंदू धर्म में अभय मुद्रा
- ऐसा माना जाता है कि समय के साथ अभय मुद्रा हिंदू देवी-देवताओं के चित्रण में दिखाई देने लगी और स्वयं बुद्ध भी पौराणिक भगवान विष्णु के नौवें अवतार के रूप में हिंदू देवताओं की सूची में शामिल हो गए।
- भारतविद (Indologist) वेंडी डोनिगर के शास्त्रीय ग्रंथ ‘द हिंदूज़: एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ के अनुसार, 450 ईस्वी और छठी शताब्दी के बीच हिंदू बुद्ध को विष्णु का अवतार मानने लगे। बुद्ध अवतार का सर्वप्रथम उल्लेख विष्णु पुराण में आया है।
- हिंदू धर्म में लचीलेपन के कारण कई परंपराओं, प्रथाओं एवं सांस्कृतिक प्रभावों के मिश्रण की अभिव्यक्तियाँ कलाओं व देवताओं के दृश्य चित्रण में भी देखी गईं। अभय मुद्रा को सबसे ज़्यादा भगवान शिव, भगवान विष्णु एवं भगवान गणेश के चित्रण में देखा गया है।
- हिंदू देवताओं के चित्रण में सबसे महत्वपूर्ण मुद्रा पद्म मुद्रा, गदा मुद्रा एवं अभय मुद्रा है। नटराज की मूर्ति में भी अभय मुद्रा है।
- योग में भी अभय मुद्रा का इस्तेमाल होता है।
अन्य धर्मों में अभय मुद्रा
- 11वीं सदी में इटली में जन्मे ईसाई संत सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी को लकड़ी के ऊपर उनकी एक तस्वीर में उनको एक हाथ ऊपर उठाए हुए (अभय मुद्रा में) दिखाया गया है। इटली के गोथिक कलाकार बोनावेंतुरा बर्लिंगेरी ने ये तस्वीर बेजेंटाइन शैली में बनाई है।
- जैन तीर्थंकरों को भी कई बार इस मुद्रा में दिखाया गया है। चार भुजाओं वाली भगवान महावीर की यक्षिणी की मूर्ति बदामी (कर्नाटक के बगलकोट जिला) की जैन गुफाओं से मिली है। इसके ऊपरी दाएं हाथ में कोई हथियार है जबकि निचला दायां हाथ अभय मुद्रा में है।
- यद्यपि सिख एवं इस्लाम धर्मों में ऐसी कोई प्रमाणिक तस्वीर नहीं है किंतु अभय मुद्रा के संदेश से जुड़ी कई बातें अवश्य मौजूद हैं।