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कृषि में महिलाओं का योगदान

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 व 3 : महिलाओं की भूमिका और सामाजिक सशक्तीकरण, कृषि)

संदर्भ

पिछले कुछ समय से चल रहे किसान विरोध के दौरान कृषि में महिलाओं की भागीदारी पर बहस प्रारंभ हो गई है। प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने कहा था कि कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि महिलाओं ने ही सर्वप्रथम फसली पौधों का प्रयोग प्रारंभ किया और खेती की कला व विज्ञान का विकास हुआ। उस समय पुरुष भोजन की तलाश में शिकार करने चले जाते थे और महिलाएँ देसी पेड़-पौधों से बीज व फल एकत्रित करती थीं। इस प्रकार भोजन, खाद्य, चारा, फाइबर और ईंधन के लिये खेती का विकास हुआ।

कृषि में महिलाएँ : आम धारणा

  • भारत में जब भी कृषि संबंधी चर्चा की जाती है, तो किसान के रूप में पुरुषों के बारे में ही सोचा जाता है। महिलाओं का नाम कृषि भूमि के मालिक के रूप में दर्ज न होने के कारण उनको किसानों की परिभाषा से बाहर रखा जाता है।
  • कृषक के रूप में मान्यता न मिलने से महिलाएँ नियमानुसार सभी सरकारी योजनाओं का लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाती हैं।
  • सरकार भी इस समस्या को लेकर बहुत चिंतित नहीं है और महिलाओं को ‘कृषि कार्य में सहायक’ या ‘खेतिहर मजदूर’(Agricultural Labourers) के रूप में मान्यता देती है न कि कृषक के रूप में।

संबंधित आँकड़े

  • कृषि जनगणना के अनुसार, 73.2% ग्रामीण महिलाएँ कृषि गतिविधियों में संलग्न हैं, परंतु केवल 8% महिलाओं के पास ही भूमि का स्वामित्व है।
  • ‘भारत मानव विकास सर्वेक्षण’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 83% कृषि भूमि पुरुष सदस्यों को परिवार से विरासत में मिली है जबकि महिलाओं को केवल 2% भूमि ही उत्तराधिकार में मिली है।
  • इसके अतिरिक्त, 81% महिला कृषि मज़दूर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं और इसलिये वे आवधिक (Casual) तथा भूमिहीन मज़दूरी में सबसे अधिक योगदान देती हैं।
  • विदित है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 11.8 करोड़ कृषक और 4 करोड़ कृषि श्रमिक हैं।

कृषि में लैंगिक असमानता

  • महिलाओं को वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जो उन्हें एक कृषक के रूप में प्राप्त होते चाहिये, जैसे कि खेती के लिये कर्ज, कर्जमाफी, फसल बीमा और सब्सिडी के साथ-साथ महिला कृषकों की आत्महत्या के मामले में उनके परिवारों को मुआवजा न मिलना।
  • महिलाओं को किसानों के रूप में मान्यता न मिलना उनकी समस्याओं का केवल एक पहलू है। महिला किसान मंच (MAKAAM) के अनुसार उन्हें भूमि, जल और जंगलों पर अधिकार के मामलों में अत्यधिक असमानता का सामना करना पड़ता है।
  • इसके अतिरिक्त, कृषि की अन्य समर्थन प्रणालियों, जैसे- भंडारण सुविधाओं, परिवहन लागत और नए निवेश के लिये नकदी या पुराने बकायों का भुगतान करने के साथ-साथ कृषि ऋण से संबंधित अन्य सेवाओं में भी लैंगिक भेदभाव है। साथ ही, निवेश और बाज़ारों तक पहुँच में भी असमानता का सामना करना पड़ता है।
  • इस प्रकार, कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के बावजूद महिला किसान हाशिये पर हैं, जो शोषण के प्रति बहुत सुभेद्य हैं। इस समस्या का कारण सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक है और यह इस धारणा का परिणाम है कि खेती केवल पुरुषों का पेशा है।

नए कृषि कानून और संबंधित चिंताएँ

  • महिला कृषक नए कृषि कानूनों से भी चिंतित हैं। चूँकि सरकार की नीतियों का मुख्य उद्देश्य कभी भी असमानता या उनकी परेशानियों को कम करना नहीं रहा है। अत: महिला किसानों को डर है कि नए कृषि कानूनों से लैंगिक असमानता में और वृद्धि हो जाएगी।
  • महिला किसान मंच के अनुसार, नए कृषि कानूनों में किसानों को शोषण से बचाने के लिये एम.एस.पी. का उल्लेख न होना प्रथम मुद्दा है। इससे महिला किसानों की सौदेबाजी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
  • साथ ही, महिलाएँ ऐसी स्थिति में नहीं हैं, जो एक सशक्त एजेंट के रूप में व्यापारियों और कॉर्पोरेट संस्थाओं के साथ होने वाले समझौतों (लिखित) को समझ सकें या उस पर बातचीत कर सकें। इस प्रकार, किसानों की उपज खरीदने के लिये या अन्य सेवाओं के लिये इन संस्थाओं से समझौता करने में महिलाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
  • यह स्पष्ट है कि किसानों को कॉर्पोरेट संस्थाओं के साथ सौदेबाजी की शक्ति प्राप्त नहीं होगी क्योंकि कॉर्पोरेट्स बिना किसी सुरक्षा जाल या पर्याप्त निवारण तंत्र के उपजों की कीमतें तय करेंगे। इससे महिला कृषक अधिक प्रभावित होंगी।
  • परिणामतः लघु, सीमांत और मध्यम किसानों को अपनी भूमि बड़े कृषि-व्यवसायिक घरानों को बेचने और मज़दूरी करने के लिये मज़बूर होना पड़ेगा।
  • सरकार को महिला किसानों की परेशानियों को भी समझना होगा क्योंकि वर्तमान में हो रहे विरोध में वे पुरुषों के साथ बराबरी में शामिल हैं।
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