(प्रारंभिक परीक्षा- आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : स्वास्थ्य, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास एवं प्रबंधन से संबंधित विषय)
संदर्भ
विगत दिनों गुजरात का बजट पेश करते समय वहाँ के वित्त एवं स्वास्थ्य मंत्री ने राज्य को कोविड-19 से मुक्त होने की बधाई दी थी। साथ ही, उन्होंने गुजरात में ‘स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढाँचे में तेजी से सुधार लाने के’ फैसलों का भी जिक्र किया।
कोविड- 19 और गुजरात में स्वास्थ्य की वास्तविक स्थिति
- फरवरी माह में कोविड- 19 की दूसरी लहर के शुरू होने के बाद अप्रैल के पहले उत्तरार्ध तक आते -आते राज्य के सभी प्रमुख शहरों के अस्पतालों में बेड, जीवनरक्षक दवाओं और ऑक्सीजन की आपूर्ति की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई।
- गुजरात में उपजी स्वास्थ्य समस्या एक प्रणालीगत समस्या की देन है, जिसमें ‘आवश्यक अवसंरचना विकास से राज्य का पीछे हटना’ और ‘स्वास्थ्य क्षेत्र का निजीकरण’ प्रमुख कारक है। परिणामस्वरूप, राज्य इस प्रकार की महामारी से निपटने के लिये तैयार नहीं हो पाया।
- यदि केवल अस्पताल के बेड की बात की जाए तो गुजरात में इसका किराया भारत के अधिकांश हिस्सों से काफी अधिक है। रोग गतिशीलता, अर्थव्यवस्था और नीति केंद्र के आंकड़ों के अनुसार, देश में प्रति एक लाख आबादी पर 138 अस्पताल बेड हैं, जबकि गुजरात जैसे समृद्ध और औद्योगिक राज्य में यह संख्या 100 से कम है।
- राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में भी प्रति एक लाख लोगों पर क्रमशः 123 और 130 अस्पताल बेड की उपलब्धता है।
गुजरात: आँकड़ों में स्वास्थ्य की स्थिति
- आर्थिक उदारीकरण के समानांतर पिछले कुछ दशकों से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के आधारभूत संरचना के विकास में राज्य द्वारा किए जानें वाले प्रयासों में कमी आई है, जिससे स्वास्थ्य सूचकांकों पर इसका ट्रैक रिकॉर्ड तथाकथित बीमारू (BIMARU) राज्यों की तरह ही रहा है।
- राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5: 2019-20) के अनुसार, गुजरात में पाँच वर्ष से कम आयु के लगभग 80 प्रतिशत बच्चे रक्ताल्पता से पीड़ित हैं। यह आँकड़ा न केवल असम और बिहार राज्यों की तुलना में खराब है बल्कि एन.एफ.एच.एस.-4 (2015-16) की तुलना में लगभग 17 प्रतिशत अधिक है। एन.एफ.एच.एस.-4 में ही रक्ताल्पता से ग्रसित बच्चों के मामले में गुजरात का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत की तुलना में खराब रहा था।
- उल्लेखनीय है कि राज्य में 5 वर्ष से कम आयु के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे बौनेपन का शिकार है। साथ ही, एन.एफ.एच.एस.-5 के अनुसार, 15 से 49 वर्ष की उम्र के बीच की 65 प्रतिशत महिलाएँ रक्ताल्पता से ग्रसित हैं, जो एन.एफ.एच.एस.-4 में 55 प्रतिशत थी।
- ‘ग्लोबल डाटा लैब’ के अनुमान के अनुसार, वर्ष 1990 में गुजरात, भारत के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 23वें स्थान पर था। वर्ष 2018 में यह राज्य 22वें स्थान पर था।
बजटीय व्यय
- महामारी के समय प्रस्तुत बजट में भी राज्य सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे पर पूंजीगत व्यय में कटौती की है और वित्त वर्ष 2020-21 में 914 करोड़ रुपये के बजट अनुमान के विपरीत केवल 737 करोड़ रुपये खर्च किये।
- चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बजटीय पूँजी परिव्यय वर्ष 2021-22 में मात्र 856 करोड़ रुपये है जो प्रति व्यक्ति 150 रुपये से कम है। यह बिहार जैसे सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों के बजट आँकड़ों से भी कम है।
- वित्त वर्ष 2021-22 के लिये गुजरात के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिये राज्य के जी.एस.डी.पी. का केवल 0.7 प्रतिशत आरक्षित रखा गया है, जो राज्य में स्वास्थ्य सेवा पर व्यय प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 5 रुपये से भी कम है।
कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत
- 1980 के दशक की शुरुआत में गुजरात में एस.सी. और ओ.बी.सी. जातियों की शिक्षा तक पहुँच में सुधार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार और स्कूल में मध्याह्न भोजन कार्यक्रम जैसे कल्याणकारी योजनाओं का आरंभ किया गया।
- 1990 के मध्य के बाद से नए राजनीतिक समीकरण के दौर में कथित तौर पर अधिकार संबंधी माँगे कमजोर होने लगी। साथ ही, कई अन्य मुद्दों को भी राज्य को उसकी जिम्मेदारियों से ध्यान भटकाने के लिये उत्तरदाई ठहराया गया जिसका प्रभाव कोविड-19 संकट के दौरान भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये, गुजरात उच्च न्यायालय में कोविड की स्थिति को लेकर जनता में भय पैदा करने के लिये राज्य ने कई बार प्रेस (मीडिया) का जिक्र किया।
- इन परिस्थितियों में जनता के बीच विश्वास कायम करना, सर्वदलीय बैठक बुलाना और सभी हितधारकों के विचारों पर गौर करने जैसे लोकतांत्रिक उपायों की आवश्यकता है। साथ ही, राज्य को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर अधिक व्यय एवं उचित नियमन की आवश्यकता है।