(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाओं से संबंधित प्रश्न)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र- 1: सामाजिक सशक्तीकरण से संबंधित प्रश्न; सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र- 2: शासन व्यवस्था से संबंधित प्रश्न)
संदर्भ
- कोविड-19 महामारी ने विभिन्न समुदायों की आजीविका को प्रभावित किया है। किंतु, महामारी की वजह से यौनकर्मी सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।
- यौनकर्म को वैधानिक मान्यता प्राप्त ना होने के कारण यौनकर्मियों को प्रायः सरकारी राहत कार्यक्रमों से बाहर रखा जाता है।
संसद द्वारा किये गए प्रावधान
- संसद ने यौनकर्म को नियंत्रित करने के लिये वर्ष 1950 में न्यूयॉर्क में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय का अनुसरण करते हुए, वर्ष 1956 में महिलाओं तथा किशोरियों के अनैतिक व्यापार के दमन हेतु कानून बनया।
- वर्ष 1986 में संसद ने इस अधिनियम को संशोधित करके इसका नाम अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम क्र दिया।
- यह अधिनियम वैश्यालय संचालित करने, सार्वजिनक स्थान पर याचना करने, यौनकर्म की आमदनी से जीवन-यापन करने और यौनकर्मी के साथ रहने या आदतन रहने जैसे कृत्यों को दंडित करता है।
अधिनियम का दृष्टिकोण
- यह अधिनियम पुरातन और प्रतिगामी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है और यौनकर्म को नैतिक रूप से अनुचित मानता है।
- इस अधिनियम के अनुसार, विशेष रूप से महिलाएँ, कभी-भी स्वेच्छा से इस कार्य के लिये सहमति नहीं देती हैं। आखिरकार, लोकप्रिय अभिव्यक्ति में यौनकर्म में प्रवेश अनैच्छिक, ज़बरन और धोखे से होता है।
- परिणामस्वरूप यह माना जाता है कि इन महिलाओं को कभी-कभी उनकी सहमति के बिना भी ‘बचाव’ और ‘पुनर्वास’ की आवश्यकता होती है, नाबालिग किशोरियों के लिये यह एक वैध तर्क है। किंतु, कई वयस्क यौनकर्मियों के लिये यह तर्क एक समस्या का सबब रहा है। इसी धारणा ने ‘सम्मानित महिलाओं’ और ‘गैर-सम्मानित महिलाओं’ के वर्गीकरण को जन्म दिया है।
- यह दृष्टिकोण इस विश्वास पर आधारित है कि यौनकर्म ‘आसान’ काम है और किसी को भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिये।
- इस प्रकार, यह इस पूर्वाग्रह को कायम रखता है कि जो महिलाएँ यौनकर्म करती हैं वे नैतिक रूप से कुटिल होती हैं।
अधिनियम की कमियाँ
- इस अधिनियम ने न केवल यौनकर्म को अपराध बना दिया, बल्कि इसे और भी कलंकित तथा भूमिगत कर दिया है। इसके चलते यौनकर्मियों के साथ हिंसा, भेदभाव और उत्पीड़न की संभावना में वृद्धि हुई है।
- यह अधिनियम किसी व्यक्ति को अपने शरीर पर अधिकार से वंचित करता है। साथ ही, यह अपने जीवन विकल्पों को स्पष्ट करने वाले वयस्कों पर राज्य की इच्छा को थोपता है।
- यह अधिनियम यौनकर्मियों को तस्करों के खिलाफ लड़ने के लिये किसी भी प्रकार की एजेंसी प्रदान नहीं करता है। वस्तुतः इस अधिनियम ने यौनकर्मियों को राज्य के अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित किये जाने के संदर्भ में अधिक संवेदनशील बना दिया है।
- अधिनियम यह मानने में विफल रहा है कि कई महिलाएँ अपने जीवन को बेहतर बनाने की तलाश में कभी-कभी स्वेच्छा से अवैध व्यापार करने वालों के साथ समझौते करती हैं।
- साक्ष्य से पता चलता है कि कई महिलाएँ सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों द्वारा 'पुनर्वास' के अवसरों के बावजूद यौनकर्म में रहना पसंद करती हैं।
न्यायमूर्ति वर्मा आयोग की सिफ़ारिश
- आयोग ने अपनी सिफारिश में स्वीकार किया कि ‘व्यावसायिक यौन शोषण’ के लिये तस्करी की जाने वाली महिलाओं और वयस्क व सहमति देने वाली महिलाओं के बीच अंतर है, जो अपनी इच्छा से यौनकर्म में संलिप्त हैं।
- हमें यौनकर्म को काम के रूप में पहचानना चाहिये और यौनकर्म पर नैतिकता थोपने से खुद को रोकना चाहिये।
- यौनकर्म में वयस्क पुरुषों, महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को यौन सेवाएँ प्रदान करके कमाने का अधिकार है; गरिमा के साथ जीने; हिंसा, शोषण, कलंक और भेदभाव से मुक्त रहने का भी।
न्यायालय का पक्ष
- न्यायपालिका यौनकर्मियों के आजीविका के अधिकार को मान्यता देने की दिशा में आगे बढ़ रही है।
- उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2011 के ‘बुद्धदेव कर्मकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य’ मामले में कहा था कि यौनकर्मियों को सम्मान का अधिकार है।
निष्कर्ष
- कोविड-19 ने भारत में यौनकर्मियों की लंबे समय से लंबित माँग पर विचार करने के लिये और अधिक कारण प्रदान किये हैं।
- समय आ गया है कि हम श्रम के दृष्टिकोण से यौनकर्म पर पुनर्विचार करें, जहाँ हम उनके काम को पहचानें और उन्हें बुनियादी श्रम अधिकारों की गारंटी दें।
- संसद को मौजूदा कानून पर पुनः विचार करना चाहिये और 'पीड़ित-बचाव-पुनर्वास' को दूर करना चाहिये। विशेष रूप से संकट के इस समय में, यह और भी महत्त्वपूर्ण है।