(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र-3 उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव।) |
संदर्भ
हालिया समय में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि ने सीमा पार दिवालियापन चुनौतियों को बढ़ा दिया है, जिससे इसके प्रभावी विनियमन की आवश्यकता है। इसके अलावा आर्थिक स्थिरता, विदेशी निवेश को आकर्षित करने और कॉर्पोरेट पुनर्गठन को सुविधाजनक बनाने के लिए भी एक विश्वसनीय और पूर्वानुमानित दिवालियापन ढाँचा आवश्यक है।
क्या है सीमापार दिवालियापन (Cross-border insolvency)
- सीमापार दिवालियापन एक ऐसी स्थिति है, जिसमें वित्तीय रूप से संकटग्रस्त देनदारों के पास एक से अधिक देशों में परिसंपत्तियां या लेनदार होते हैं।
- सामान्यत: सीमा पार दिवालियापन एक से अधिक देशों में काम करने वाली कंपनियों के दिवालियापन से संबंधित होता है।
- इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय दिवालियापन' (international insolvency) भी कहा जाता है।
विकासक्रम
स्वतंत्रता पूर्व
- ब्रिटिश शासन के तहत, भारत में घरेलू दिवालियापन को संबोधित करने के लिए वर्ष 1848 के भारतीय दिवालियापन अधिनियम को पहले दिवालियापन कानून के रूप में पेश किया गया था।
- इसे बाद में प्रेसीडेंसी-टाउन दिवालियापन अधिनियम 1909 (जो कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास पर लागू) तथा प्रांतीय दिवालियापन अधिनियम, 1920, (मुफस्सिल क्षेत्रों में लागू ) द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
- इन कानूनों ने घरेलू दिवालियापन से निपटने के लिए एक रूपरेखा प्रदान की, लेकिन ये सीमा पार दिवालियापन की समस्याओं का समाधान करने में असफल रहे।
स्वतंत्रता पश्चात
- स्वतंत्रता के पश्चात, तीसरे विधि आयोग की 26वीं रिपोर्ट (1964) में इन कानूनों में आधुनिकीकरण की सिफारिश के बावजूद भी कोई परिवर्तन नहीं किया गया ।
- वर्ष 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के दबावों के कारण, सीमा-पार मामलों के लिए प्रावधानों के साथ एक व्यापक दिवालियापन कानून की आवश्यकता राष्ट्रीय चर्चाओं का केंद्र बन गई।
- एराडी समिति (2000), मित्रा समिति (2001) और ईरानी समिति (2005) जैसी समितियों द्वारा सीमा-पार दिवालियापन पर संयुक्त राष्ट्र आयोग के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कानून (UNCITRAL) मॉडल कानून, 1997 को अपनाने की सिफारिश की गई थी।
- वर्ष 2015 में, दिवालियापन कानून सुधार समिति ने घरेलू दिवालियापन पर ध्यान केंद्रित करते हुए दिवाला और दिवालियापन संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code) विधेयक का मसौदा तैयार किया।
- संयुक्त संसदीय समिति की ओर से विधेयक में सीमा पार दिवालियापन प्रावधानों की अनुपस्थिति कारण बाद में , धारा 233ए और 233बी को जोड़ा गया, जिसे बाद में IBC की धारा 234 और 235 के रूप में संहिताबद्ध किया गया।
- धारा 234 भारत सरकार को पारस्परिक समझौतों के माध्यम से विदेशी देशों में IBC प्रावधानों को लागू करने की अनुमति देती है, जबकि धारा 235 अनुरोध पत्र के माध्यम से विदेशी अदालतों से सहायता प्राप्त करने की प्रक्रिया को रेखांकित करती है।
भारत में सीमा पार दिवालियापन चुनौतियाँ
- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम जेट एयरवेज (इंडिया) लिमिटेड मामले में नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) द्वारा IBC की धारा 234 और 235 को जाँच के दायरे में लाया गया जिसमें दो महत्वपूर्ण मुद्दों की पहचान की गई –
- पहला, भारत और नीदरलैंड के बीच सीमा पार दिवालियापन समाधान के लिए पारस्परिक व्यवस्था का अभाव
- दूसरा, केंद्र सरकार द्वारा इन धाराओं की अधिसूचना न देना, जिससे वे कानूनी रूप से लागू नहीं हो पातीं।
- इस संदर्भ में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा दिवाला कानून समिति और सीमा पार दिवाला नियम/विनियमन समितियों का गठन किया गया :
- दोनों समितियों ने मौजूदा ढाँचे में कमियों की पहचान की और सीमा पार दिवाला पर UNCITRAL मॉडल कानून को अपनाने की सिफारिश की।
- स्थायी समिति ने IBC, 2016 को मजबूत करने के लिए सीमा पार दिवालियापन ढाँचे की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया।
- राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (National Company Law Appellate Tribunal : NCLAT) द्वारा एक "क्रॉस-बॉर्डर इन्सॉल्वेंसी प्रोटोकॉल" पर विचार किया गया
- जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त दृष्टिकोण है जिसे अब सीमापार दिवालियापन को विनियमित करने के लिए एक तदर्थ समाधान के रूप में उपयोग किया जाता है।
सुधार की आवश्यकता
- वर्तमान प्रोटोकॉल व्यक्तिगत मामलों को संबोधित करने में महत्वपूर्ण हैं, हालांकि न्यायालय की मंजूरी की आवश्यकता, न्यायिक बोझ, लेन-देन की लागत समाधान में देरी को बढ़ाती है, जिससे देनदार की संपत्ति का मूल्य कम हो जाता है।
- ऐसे में विशेषज्ञ UNCITRAL मॉडल कानून जैसे एक संरचनात्मक ढाँचे (structural framework) को अपनाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।
- सीमा पार दिवालियापन मामलों के लिए भारतीय और विदेशी अदालतों के बीच पुरानी संचार पद्धतियों में सुधार करना एक महत्वपूर्ण है।
- इस संदर्भ में न्यायिक दिवालियापन नेटवर्क (Judicial Insolvency Network : JIN) दिशानिर्देश (2016) और इसके न्यायालय-से-न्यायालय संचार के तरीकों (2018) को अपनाने से सीमा पार दिवालियापन मामलों से निपटने में सुधार होगा।
- IBC की धारा 60(5), सिविल न्यायालयों को सीमा पार के मामलों सहित दिवालियापन मामलों पर अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से प्रतिबंधित करती है, जिससे NCLT एकमात्र निर्णायक प्राधिकरण बन जाता है।
- हालाँकि NCLT के पास विदेशी निर्णयों या कार्यवाहियों को मान्यता देने या लागू करने की शक्ति का अभाव है, जो सीमा पार दिवालियापन मामलों के प्रबंधन में इसकी प्रभावशीलता को काफी हद तक सीमित करता है।
- ऐसे में इन चुनौतियों का समाधान करने तथा सीमापार दिवालियापन मामलों का प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए NCLT की शक्तियों का विस्तार करना आवश्यक है।