(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : सूचना प्रौद्योगिकी आदि से संबंधित विषयों के संबंध में जागरूकता, संचार नेटवर्क के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा को चुनौती)
संदर्भ
हाल ही में, केंद्र सरकार ने माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर 250 से अधिक खातों को पुनर्स्थापित करने पर नोटिस जारी किया है। इससे पहले सरकार की 'विधिक माँग' पर ये खाते निलंबित कर दिये गए थे। विदित है कि किसान आंदोलन के दौरान ट्विटर पर किये गए कुछ विवादित पोस्ट्स को नियंत्रित करने के लिये केंद्र सरकार ने यह कदम उठाया था।
संबंधित विवाद
- भारत सरकार ने ट्विटर को उन अकाउंट्स और विवादास्पद हैशटैग को ब्लॉक करने के लिये कहा गया था, जो सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचार को बढ़ावा दे रहे थे, क्योंकि इनसे सार्वजनिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- ट्विटर ने स्वतः अकाउंट्स और संबंधित ट्वीट्स को पुनर्स्थापित कर दिया तथा सरकार के निर्णय को मानने से इंकार करते हुए यह स्पष्ट किया है कि उसका निर्णय नीतियों का उल्लंघन नहीं है।
- वर्तमान में प्रौद्योगिकी सेवा कंपनियों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच सहयोग को साइबर अपराध के विरुद्ध एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में माना जाता है। इनमें साइबर अपराध के साथ-साथ कंप्यूटर संसाधनों का उपयोग कर किये जाने वाले अन्य अपराधों, जैसे- हैकिंग, डिजिटल प्रतिरूपण तथा डाटा की चोरी आदि शामिल हैं। इसके दुरुपयोग तथा दुष्प्रभावों को रोकने की माँग लगातार की जा रही है।
साइबर अपराधों की रोकथाम हेतु प्रावधान
- अधिकांश राष्ट्रों द्वारा ने इंटरनेट या वेब होस्टिंग सेवा प्रदाताओं तथा अन्य मध्यस्थों द्वारा सहयोग को अनिवार्य बनाने के लिये कानूनों का निर्माण किया गया है।
- भारत में कंप्यूटर से संबंधित सभी गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिये सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 को समय-समय पर संशोधित किया गया है। यह अधिनियम साइबर अपराध तथा इलेक्ट्रॉनिक कॉमर्स से संबंधित मामलों के लिये प्राथमिक विधि है।
- इसके अंतर्गत उन सभी ‘मध्यस्थों’ को शामिल किया गया है, जो कंप्यूटर संसाधनों तथा इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के उपयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसमें दूरसंचार सेवा, नेटवर्क सेवा, इंटरनेट सेवा, वेब होस्टिंग प्रदाता तथा सर्च इंजन, ऑनलाइन भुगतान एवं ऑक्शन साइट्स, ऑनलाइन बाज़ार तथा साइबर कैफे को शामिल किया जाता है।
- इसके तहत उस व्यक्ति को शामिल किया जाता है, जो किसी अन्य व्यक्ति की ओर से इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को ‘प्राप्त, संग्रहित या पारेषित’ करता है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी इसके अंतर्गत आते हैं। इस अधिनियम की धारा 69, केंद्र एवं राज्य सरकारों को कंप्यूटर संसाधन से उत्पन्न, प्रेषित, प्राप्त या संग्रहित किसी भी सूचना को इंटरसेप्ट, मॉनिटर या डिक्रिप्ट करने के लिये आवश्यक निर्देश जारी करने की शक्ति प्रदान करती है।
- इन सेवाओं तक पहुँच को रोकने के लिये कोई भी अनुरोध लिखित कारणों पर आधारित होना चाहिये। इसके लिये तय किये गए नियमों में प्रक्रियाओं व सुरक्षा उपायों को शामिल किया गया है।
- इन शक्तियों का प्रयोग कई आधारों पर किया जा सकता है। इसमें भारत की संप्रभुता व अखंडता, रक्षा, सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध और लोक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले तत्त्व शामिल होने चाहिये।
मध्यस्थों के निर्धारित दायित्व
- केंद्र द्वारा एक निर्दिष्ट अवधि के लिये निर्धारित प्रक्रिया और प्रारूप में निर्दिष्ट जानकारी को संरक्षित करने तथा बनाए रखने के लिये मध्यस्थों की आवश्यकता होती है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर आर्थिक जुर्माने के अतिरिक्त 3 वर्ष तक की सजा का प्रावधान भी किया गया है।
- जब निगरानी के दिशा-निर्देश जारी किये जाते हैं, तो मध्यस्थों तथा कंप्यूटर संसाधन के प्रभारी द्वारा किसी भी व्यक्ति की तकनीकी सहायता तक पहुँच तथा शामिल संसाधन की सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। ऐसी सहायता का विस्तार करने में विफल होने पर आर्थिक जुर्माने के अतिरिक्त 7 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है।
- इस अधिनियम की धारा 79 कुछ मामलों में मध्यस्थों को छूट प्रदान करती है, जिसके अनुसार तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन रहते हुए भी कोई मध्यस्थ किसी तीसरे पक्ष की जानकारी, डाटा या संचार लिंक को उपलब्ध कराने या पारेषित किये जाने के लिये उत्तरदायी नहीं होगा।
- यह मध्यस्थों को उन सामग्री के लिये उत्तरदायी बनाता है, जिनसे उपयोगकर्ता किसी डाटा को पोस्ट या जेनरेट कर सकते हैं। परंतु यदि मध्यस्थ ने अधिनियम के विरुद्ध किसी कृत्य को प्रेरित या उत्प्रेरित किया है तो देयता से छूट प्राप्त नहीं होती है।
विधिक प्रयास
- वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने मध्यस्थों की भूमिका से संबंधित मौजूदा नियमों में बदलाव के लिये एक मसौदा तैयार किया था, जो प्रभावी नहीं हो सका।
- इस मसौदे में मध्यस्थों को आक्रामक सामग्री के प्रसारकों की पहचान करने का प्रावधान किया गया था, जो विवाद का प्रमुख कारण था, इससे निजता के उल्लंघन तथा ऑनलाइन निगरानी की आशंका व्यक्त की गई थी।
- इसके अतिरिक्त एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन का उपयोग करने वाली तकनीकी कंपनियों का तर्क था कि वे मूल पहचान के लिये किसी अन्य रास्ते का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि उनके द्वारा ऐसा करने से ग्राहकों की निजता का हनन होगा।
न्यायिक हस्तक्षेप
- ‘श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ वाद’ (2015) में उच्चतम न्यायालय ने इस प्रावधान का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि इस संबंध में मध्यस्थों को केवल न्यायालय द्वारा पारित किये गए आदेशों के अधीन रहते हुए कार्य करना चाहिये।
- अदालत ने महसूस किया कि गूगल या फेसबुक जैसे मध्यस्थों को लाखों अनुरोध प्राप्त होते हैं तथा उनके लिये यह निर्धारित किया जाना संभव नहीं है कि इनमें से कौन-से वैध या अवैध हैं। मध्यस्थों की भूमिका वर्ष 2011 में इस उद्देश्य के लिये बनाए गए अलग-अलग नियमों में स्पष्ट की गई है।