(प्रारंभिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र 3: भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय।)
संदर्भ
- कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार को अर्थव्यवस्था के साथ कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह अपने आप पुनर्जीवित हो जाएगी।
- इन अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि ‘ग्रेट डिप्रेशन’ की तरह ही वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में फिर से उछाल आएगा।
उक्त तथ्य से असहमति के कारण
1. मांग में कमी
- ‘ग्रेट डिप्रेशन’ के पश्चात् द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण मांग का सृजन हुआ था। विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, जो बड़े पैमाने पर विनाश से बचा हुआ था, उसने अपनी औद्योगिक क्षमताओं का प्रयोग सहयोगी राष्ट्रों की आपूर्ति आवश्यकताओं के लिये किया था।
- वर्तमान परिदृश्य में, मांग सृजन के लिये कोई विशेष प्रयास नहीं किया जा रहा है, जबकि कोविड-19 महामारी के परिणामस्वरूप मांग में कमी आई है।
- ऐसा इसलिये है क्योंकि रोज़गार में कटौती हुई हैं, और जहाँ रोज़गार बरकरार हैं वहाँ वेतन में कटौती की गई है।
- इस निराशाजनक परिदृश्य में एकमात्र उम्मीद यह है कि पश्चिमी जगत ने अर्थव्यवस्था को तेज़ करने के लिये व्यय में वृद्धि की है।
- भारतीय निर्यातकों के दृष्टिकोण से बढ़ती माल ढुलाई लागत और कंटेनरों की अनुपलब्धता प्रमुख प्रतिस्पर्द्धियों के सापेक्ष एक महत्त्वपूर्ण बाधा है।
2. स्थिर संवृद्धि दर
- भारत विगत दो तिमाहियों में स्थिर संवृद्धि दर से निम्न संवृद्धि दर से जूझ रहा है।
- चालू तिमाही में कोई भी संवृद्धि भ्रामक होगी क्योंकि यह विगत वर्ष की पहली तिमाही की नकारात्मक संवृद्धि के कारण ऊपर आती है, इसे ही सांख्यिकीय प्रणाली में ‘कम आधार प्रभाव’ (Low Base Effect) के रूप में जाना जाता है।
- आधार प्रभाव बताता है कि वर्ष-दर-वर्ष संवृद्धि को मापते समय, विगत वर्ष की संख्या को आधार के रूप में लेते हैं और संवृद्धि को प्रतिशत के रूप में मापते हैं।
- विगत वर्ष द्वारा निर्धारित निम्न प्रारंभिक आधार के रूप में, इस वर्ष लगभग किसी भी संवृद्धि को एक महत्त्वपूर्ण संवृद्धि प्रतिशत के रूप में देखा जाता है। इसकी तुलना में निरपेक्ष संवृद्धि का आँकड़ा नगण्य है।
उच्च मुद्रास्फीति के कारण
- भारत में मुद्रास्फीति का आयात उच्च वस्तुओं की कीमतों और उच्च परिसंपत्ति मूल्य के संयोजन के माध्यम से किया जा रहा है, जो वैश्विक स्तर पर ‘अत्यधिक ढीली मौद्रिक नीति’ से प्रभावित है।
- यू.एस. जैसे विकसित पूंजी बाज़ार की तुलना में भारत का बाज़ार पूंजीकरण अपेक्षाकृत कम है। इसलिये यह परिसंपत्ति की कीमतों में वृद्धि के बिना भारी पूंजी प्रवाह को अवशोषित नहीं कर सकता है।
- मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग प्रतिगामी अप्रत्यक्ष करों और उच्च मुद्रास्फीति से प्रभावित होते हैं। साथ ही, उक्त मुद्रास्फीति के कारण उनकी संपत्ति का क्षरण भी होता है।
- विशेषतः निम्न मध्यम वर्ग के मामले में मुद्रास्फीति घातक है, क्योंकि उनके पास किसी भी ‘हार्ड एसेट’ तक पहुँच नहीं होती है, जिसमें सबसे मौलिक हार्ड एसेट सोना भी शामिल है।
ईंधन का मूल्य
- आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं ने भारत में मुद्रास्फीति में योगदान दिया है।
- कोविड-19 की वजह से इन बाधाओं और इनके प्रतिक्रियावादी उपायों को लागू करने के कारण आवश्यक वस्तुओं की लागत में वृद्धि हुई है।
- ईंधन पर सरकारों की अत्यधिक कराधान नीति ने स्थिति को और खराब कर दिया है।
- ईंधन की बढ़ती कीमतें परिवहन की लागत में वृद्धि करके समग्र अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति को बढ़ाती हैं।
- इसके अतिरिक्त, ईंधन की कीमतों में वृद्धि से आम जनमानस के मासिक खर्च में भी वृद्धि होगी।
भारतीय रिज़र्व बैंक की प्रतिक्रिया
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) फ़िलहाल इसे प्राथमिकता नहीं दे रहा है। उसका कहना है कि मुद्रास्फीति प्रकृति में क्षणिक है।
- आर.बी.आई. सरकारी प्रतिभूति अधिग्रहण कार्यक्रम (G-SAP) के माध्यम से विस्तारवादी मौद्रिक नीति का पालन करते हुए भारी तरलता का संचार कर रहा है।
- ऐसा सरकारी बॉन्ड की ब्याज दरों को 6.0 प्रतिशत और उसके आसपास रखने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
1. ब्याज दर
- कोई भी केंद्रीय बैंक जब महसूस करता है कि मुद्रास्फीति बढ़ रही है, तो उसके लिये एकमात्र समाधान तरलता को कड़ा करना होता है। इससे मुद्रा की लागत भी बढ़ती है।
- यदि वह मुद्रास्फीति को कम नहीं करता है, तो रेपो दरों को इस वर्ष के अंत में या आगामी वर्ष की शुरुआत में बढ़ाना होगा।
- मुद्रा आपूर्ति को कम करने से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जो अर्थव्यवस्था के बढ़ते क्षेत्रक को धीमा कर देता है।
- बढ़ती ब्याज दरों से देश में कुल मांग में कमी आती है, जिससे जी.डी.पी. प्रभावित होती है।
2. गैर-निष्पादित परिसंपत्ति
- बढ़ती ब्याज दर, तरलता की कमी और कंपनियों को ऋण की पेशकश करने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं।
- लघु और मध्यम स्तर का क्षेत्र ‘मिंस्की मोमेंट’ (Minsky Moment) का सामना कर रहा है।
- अर्थशास्त्री हाइमन मिन्स्की द्वारा प्रतिपादित ‘मिंस्की मोमेंट’ बताता है कि प्रत्येक क्रेडिट चक्र में तीन अलग-अलग चरण होते हैं।
- पहला चरण, बैंकरों द्वारा सावधानीपूर्वक उधार देने और जोखिम से बचने का होता है।
- दूसरा चरण, भरोसेमंद देनदारों को उधार देना है, जो मूलधन और उसके ब्याज का भुगतान कर सकते हैं।
- तीसरा चरण, बढ़ती संपत्ति की कीमतों के कारण उत्साह की स्थिति है, जहाँ बैंकर कर्ज़दारों को उधार देते हैं, चाहे उनमें ब्याज भुगतान की क्षमता है या नहीं।
मिंस्की मोमेंट
- मिंस्की मोमेंट संपत्ति की कीमतों में गिरावट का प्रतीक है, जिससे बड़े पैमाने पर घबराहट होती है और देनदार ब्याज और मूलधन का भुगतान करने में असमर्थता महसूस करते हैं।
- भारत अपने मिंस्की मोमेंट में पहुँच गया है। इसका अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई और कई अन्य बैंकों को डूबे कर्ज़ की भरपाई के लिये प्रचुर मात्रा में पूंजी की आवश्यकता होगी।
- भारत में विगत 18 माह में कई बैंक और वित्तीय संस्थान डूब चुके हैं।
निष्कर्ष
- भारतीय अर्थव्यवस्था निम्न संवृद्धि और उच्च मुद्रास्फीति के दुष्चक्र में रहेगी, जब तक कि नीतिगत कार्रवाई उच्च मांग और संवृद्धि को सुनिश्चित नहीं करती है।
- नीतिगत हस्तक्षेपों के अभाव में भारत ‘के-शेप रिकवरी’ के रास्ते पर रहेगा, जहाँ कम कर्ज़ वाले बड़े कॉरपोरेट छोटे और मध्यम क्षेत्रों की कीमत पर समृद्ध होंगे।