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फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का विकास

(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, एन.टी.पी.सी. (NTPC) लिमिटेड द्वारा फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट को सफलतापूर्वक विकसित किया गया है।

प्रमुख बिंदु

  • एन.टी.पी.सी. ने प्राकृतिक एग्रीगेट के प्रतिस्थापन के रूप में जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का विकास किया है।
  • एन.टी.पी.सी. की फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट के उत्पादन की अनुसंधान परियोजना भारतीय मानकों के वैधानिक मापदंडों के अनुरूप है। साथ ही इसकी पुष्टि राष्ट्रीय ‘सीमेंट और निर्माण सामग्री परिषद’ (NCCBM), हैदराबाद ने भी की है।
  • भारत में इन एग्रीगेट की कुल माँग लगभग 2000 मिलियन मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। एन.टी.पी.सी. द्वारा फ्लाई ऐश से विकसित एग्रीगेट इस माँग को पूरा करने में सहायक सिद्ध होगा।
  • उल्लेखनीय है कि एन.टी.पी.सी. भारत का सबसे बड़ा बिजली उत्पादक है, जो बिजली मंत्रालय के अधीन एक सार्वजनिक उपक्रम है।

जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का उपयोग व महत्त्व

  • जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का उपयोग प्राकृतिक एग्रीगेट के स्थान पर किया जा सकेगा। इससे प्राकृतिक एग्रीगेट से होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने में मदद मिलेगी।
  • निर्माण उद्योग में जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है, जिससे राख को पर्यावरण अनुकूल सामग्री में परिवर्तित कर दिया जाता है। इस प्रकार फ्लाई ऐश से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को कम करके संसाधन के रूप में इसका अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।
  • इसमें कंक्रीट में मिश्रण के लिये किसी भी स्तर पर सीमेंट की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि फ्लाई ऐश आधारित जियो-पॉलिमर मोर्टार बंधनकारी सामग्री (Binding Agent) के रूप में कार्य करता है।
  • जियो-पॉलिमर एग्रीगेट कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद करेंगे। साथ ही, इसके उपयोग से जल के उपभोग में भी कमी आएगी।
  • विदित है कि प्राकृतिक एग्रीगेट प्राप्त करने के लिये पत्थर के उत्खनन की आवश्यकता होती है, जिससे भी पर्यावरण को क्षति पहुँचती है।

फ्लाई ऐश

  • ‘फ्लाई ऐश’, कोयला दहन से सूक्ष्मकण के रूप में प्राप्त एक उपोत्पाद है। इसे ‘फ्लू ऐश’ (Flue Ash) या ‘पल्वेरिस्ड फ्यूल ऐश’ (Pulverized Fuel Ash) भी कहा जाता है। ये कोयला आधारित बॉयलरों से फ्लू गैसों के साथ निकलते हैं।
  • प्रयोग किये गए कोयले के स्रोत व संघटन के कारण फ्लाई ऐश के अवयवों में भिन्नता हो सकती है। सिलिकॉन डाइऑक्साइड (SiO2), एल्युमिनियम ऑक्साइड (Al2O3) और कैल्शियम ऑक्साइड (CaO) पर्याप्त मात्रा में सभी प्रकार के फ्लाई ऐश में पाए जाते हैं। ध्यातव्य है कि ये सभी कोयले की चट्टानों में पाए जाने वाले प्रमुख खनिज यौगिक हैं।
  • फ्लाई ऐश में अल्प मात्रा में आर्सेनिक, बेरिलियम, बोरॉन, कोबाल्ट, कैडमियम व क्रोमियम पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें हेक्सावेलेंट क्रोमियम (Hexavalent Chromium), लेड, मैंगनीज़, पारा तथा मालिब्डेनम के साथ-साथ सेलेनियम, स्ट्रांशियम, थैलियम व वैनेडियम जैसे अवयव सूक्ष्म मात्रा में पाए जाते हैं।
  • साथ ही, डायोक्सिंस (Dioxins) तथा पी.ए.एच. (PAH) यौगिक की अत्यंत कम सांद्रता के साथ इसमें अपूर्ण दहन वाले कार्बन भी होते हैं।

फ्लाई ऐश के अनुप्रयोग

  • फ्लाई ऐश पोज़ोलेनिक (Pozzolanic) प्रकार के होते हैं, इसमें एलुमिनस व सिलीसियस पदार्थ होते हैं। फ्लाई ऐश में जब चूना व पानी मिलाया जाता है तो पोर्टलैंड सीमेंट के सामान एक यौगिक का निर्माण होता है। इसके अलावा, फ्लाई ऐश से सीमेंट उत्पादन में पोर्टलैंड की अपेक्षा कम पानी तथा ऊर्जा (Low Embodied Energy) की आवश्यकता होती है। अतः यह पोर्टलैंड सीमेंट का एक अच्छा विकल्प है।
  • मोज़ैक टाइल्स (Mosaic Tiles) व खोखले व हल्के ब्लॉक्स (Hollow Blocks) तथा कंक्रीट निर्माण में भी इसका प्रयोग किया जाता है। फ्लाई ऐश के कंकणों या गोलियों (Pellets) को कंक्रीट के मिश्रण में वैकल्पिक पदार्थ के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
  • तटबंधों के निर्माण व इंटरलॉकिंग ईंटो के निर्माण में भी यह प्रयुक्त होती है। फ्लाई ऐश का प्रयोग मुख्यतः सीमेंट व निर्माण उद्योग के साथ-साथ सड़क निर्माण, कंक्रीट व ईंट विनिर्माण तथा निचले इलाकों व खानों (Mines) के पुनर्भरण में होता है।
  • शीत गृह प्रतिरोधक में प्रयोग होने के साथ-साथ फ्लाई ऐश रिसाव, दरार व पारगम्यता को भी कम करता है।

भारत में फ्लाई ऐश

  • भारत में कोयले से चलने वाले बिजली कारखानों द्वारा प्रत्येक वर्ष लगभग 258 एम.एम.टी. राख (फ्लाई ऐश) का उत्पादन किया जाता है। इसमें से लगभग 78% राख का उपयोग किया जाता है और शेष राख डाइक में इकठ्ठा रहती है।
  • शेष राख का उपयोग करने के लिये एन.टी.पी.सी. वैकल्पिक तरीकों के लिये शोध कर रहा है, जिसमें वर्तमान अनुसंधान परियोजना भी शामिल है। इस अनुसंधान परियोजना में 90% से अधिक राख का उपयोग करके एग्रीगेट का उत्पादन किया जाता है।
  • अमेरिकन सोसाइटी फॉर टेस्टिंग एंड मैटेरियल्स (ASTMC) के अनुसार, फ्लाई ऐश 'क्लास C' और 'क्लास F' प्रकार की होती हैं। भारत में उत्पादित फ्लाई ऐश मुख्यतः 'क्लास C' प्रकार की होती है। इसमें कैल्शियम और चूना की अधिकता होती है।
  • यूरोपीय देशों में 'क्लास F' प्रकार की फ्लाई ऐश पाई जाती है। 'क्लास F' में प्रायः 5% से कम कार्बन पाया जाता है।

प्री फैक्ट :

फ्लाई ऐश का पर्यावरणीय प्रभाव-

1. फ्लाई ऐश में पाई जाने वाली सभी भारी धातुएँ, जैसे- निकेल, कैडमियम, आर्सेनिक, क्रोमियम तथा लेड प्रकृति में विषाक्तता पैदा करती हैं।
2. इलेक्ट्रोस्टेटिक अवक्षेपक (Electrostatic Precipitator) या अन्य फिल्टर विधियों का प्रयोग करके फ्लाई ऐश को वायु में मिलने से रोका जा सकता है।
3. फ्लाई ऐश से निकलने वाले विकिरण से अनेक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। साथ ही फ्लाई ऐश के सूक्ष्म कण पत्तियों पर जमा होकर प्रकाश संश्लेषण में अवरोध उत्पन्न करते हैं। 
4. ऐश डाइकों के टूटने तथा जल में मिश्रण होने से भी बड़ी संख्या में जल निकाय संदूषित होते हैं। फ्लाई ऐश डाइक को ऐश डैम या राख का बांध भी कहा जाता हैं।

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