मुख्य परीक्षा
(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-1 3 : शहरीकरण, उनकी समस्याएँ और उनके रक्षोपाय, पर्यावरण एवं बुनियादी ढांचे का विकास)
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संदर्भ
भारतीय हिमालय पर्वतमाला (IHR) में 11 राज्य और दो केंद्र-शासित प्रदेश शामिल हैं। इन क्षेत्रों में 2011-2021 तक दशकीय शहरी विकास दर 40% से अधिक रही। इन क्षेत्रों में कस्बों का विस्तार हुआ है और अधिक शहरी बस्तियाँ विकसित हो रही हैं। हालाँकि, हिमालयी शहरों को शहरीकरण की एक अलग परिभाषा की आवश्यकता है।
हिमालयी क्षेत्र में शहरीकरण की चुनौतियां
- असंतुलित शहरीकरण एवं विकास : भारतीय हिमालय पर्वतमाला शहरीकरण एवं विकास के बढ़ते दबाव का सामना कर रही है जोकि उच्च तीव्रता वाले अस्थिर बुनियादी ढाँचे व संसाधनों (भूमि और जल) के उपयोग से अधिक जटिल हो गया है। बदलते वर्षा पैटर्न एवं बढ़ते तापमान जैसे जलवायु परिवर्तनों से इसमें और भी वृद्धि हो गयी है।
- उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में जोशीमठ का डूबना, हिमाचल प्रदेश में बाढ़ एवं भूस्खलन, सिक्किम में ग्लेशियल झील का फटना, उत्तरकाशी में सिल्क्यारा-बरकोट सुरंग आदि आपदाओं का सामना करना पड़ा है।
- जल संकट : पानी की गुणवत्ता एवं प्रबंधन में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। श्रीनगर में जल निकायों में लगभग 25% की कमी आई है।
- अपशिष्ट प्रबंधन का अभाव : श्रीनगर, गुवाहाटी, शिलांग एवं शिमला जैसे शहरों के साथ-साथ छोटे शहरों को स्वच्छता, ठोस व तरल अपशिष्ट प्रबंधन में अत्यधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- उदाहरणस्वरुप श्रीनगर में लगभग 90% तरल अपशिष्ट बिना उपचार के जल निकायों में प्रवेश करता है।
- पर्यटन का दबाव : पर्यटन के विकास से स्थानीय संसाधनों पर दबाव बढ़ता है।
- भारतीय हिमालय पर्वतमाला (IHR) में पर्यटन का विस्तार एवं विविधता जारी रही है। वर्ष 2013 से 2023 तक इसकी अनुमानित औसत वार्षिक वृद्धि दर 7.9% रही है।
- इन क्षेत्रों में पर्यटन के विकास से पर्यावरणनुकूल बुनियादी ढांचे के स्थान पर प्राय: अनुपयुक्त व खतरनाक निर्माण गतिविधि, जोखिमपूर्ण तरीके से डिज़ाइन की गई सड़कें और अपर्याप्त ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इससे प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान होता है और जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को क्षति पहुँचती है।
- नियोजन संस्थाओं की विफलता : इन राज्यों के शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए मैदानी क्षेत्रों से कॉपी किए गए मॉडल का उपयोग किया जाता हैं। इन योजनाओं को लागू करने की उनकी क्षमता सीमित होती है।
- मानव संसाधन की कमी : शहरी सरकारों में मानव संसाधनों की लगभग 75% कमी है। उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी में श्रीनगर नगर निगम को छोड़कर 40 से अधिक शहरी स्थानीय निकायों में केवल 15 कार्यकारी अधिकारी हैं।
- भूमि अतिक्रमण : शहरों का विस्तार गांवों की सामान्य भूमि पर अतिक्रमण के साथ होता जा रहा है। श्रीनगर और गुवाहाटी ऐसे विस्तार के उदाहरण हैं जिसके कारण खुले स्थानों, वन भूमि व जलग्रहण क्षेत्रों में कमी आ रही है।
- उदाहरणस्वरुप श्रीनगर में वर्ष 2000-2020 के बीच भूमि उपयोग परिवर्तन में 75.58% की वृद्धि देखी गई। इन क्षेत्रों पर रियल एस्टेट का अधिकार हो गया है।
हिमालयी शहरों के विकास के लिए उपाय
हिमालयी शहरों के विकास के लिए विशेष उपायों की आवश्यकता होती है क्योंकि यह क्षेत्र पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील होता है। कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं :
- शहर का मानचित्रण : भूवैज्ञानिक एवं जल विज्ञान संबंधी दृष्टिकोण से संवेदनशीलता की पहचान की जानी चाहिए क्योंकि जलवायु-प्रेरित आपदाएँ प्रतिवर्ष ऐसे मानचित्रण के बिना बनाए गए बुनियादी ढाँचों को नष्ट कर देती हैं।
- स्थानीय समुदाय की भागीदारी : नियोजन प्रक्रिया में स्थानीय लोगों को शामिल किया जाना चाहिए और नीचे से ऊपर की ओर दृष्टिकोण (Bottom-up Approach) का पालन करना चाहिए।
- वित्त पोषण : इस क्षेत्र का कोई भी शहर अपनी बुनियादी ढांचे की जरूरतों के लिए पूंजी नहीं जुटा सकता है। वित्त आयोग को इस क्षेत्र के लिए शहरी वित्तपोषण पर एक अलग अध्याय शामिल करना चाहिए।
- शहरी सेवाओं की उच्च लागत और औद्योगिक गलियारों की कमी से इन शहरों के लिए एक अनोखी वित्तीय स्थिति उत्पन्न होती है।
- केंद्र से शहरी स्थानीय निकायों को वर्तमान अंतर-सरकारी हस्तांतरण जी.डी.पी. का मात्र 0.5% है। इसे बढ़ाकर कम-से-कम 1% किया जाना चाहिए।
- सतत एवं पर्यावरण-हितैषी विकास : निर्माण कार्यों और बुनियादी ढांचा विकास में पर्यावरण को न्यूनतम क्षति पहुंचाने वाले उपाय अपनाए जाने चाहिए। इस क्षेत्र में भवन निर्माण के लिए स्थानीय सामग्री का उपयोग और पारंपरिक वास्तुकला को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
- प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण : जल स्रोतों, वन क्षेत्रों एवं जैव-विविधता का संरक्षण सुनिश्चित किया जाना चाहिए। पानी के स्रोतों को प्रदूषण से बचाने के लिए ठोस व तरल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली में सुधार आवश्यक है।
- उदाहरणस्वरुप लेह एवं लद्दाख में बर्फ के स्तूप (Ice Stupas) का निर्माण गर्मियों में जल आपूर्ति के लिए काम आता है। छोटे जलाशयों और पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों के पुनर्निर्माण के साथ-साथ जल सरंक्षण पर जोर देना चाहिए।
- पर्यटन का सतत विकास : पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सतत पर्यटन नीतियों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिससे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव कम हो सके। पर्यटकों की संख्या को नियंत्रित करने और स्थानीय सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए भी योजना की आवश्यकता है, जैसे :
- शिमला एवं नैनीताल जैसे शहरों में निर्माण के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) को अनिवार्य करना।
- मनाली में ‘सतत पर्यटन’ को प्रोत्साहित करने के लिए पर्यटकों की संख्या सीमित करना, होमस्टे व इको-फ्रेंडली रिसॉर्ट्स को बढ़ावा देना।
- भूस्खलन एवं आपदाओं से सुरक्षा : हिमालयी क्षेत्रों में भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का खतरा अधिक होता है। इसको ध्यान में रखते हुए जोखिम क्षेत्रों की पहचान, आपदा प्रबंधन प्रणाली का सुदृढ़ीकरण और जोखिम न्यूनीकरण उपायों का कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।
- उदाहरण के लिए, दार्जिलिंग एवं मसूरी जैसे क्षेत्रों में पहाड़ी ढलानों की स्थिरता को बनाए रखने के लिए ग्रीन बेल्ट्स के साथ-साथ रिटेनिंग वॉल्स का निर्माण और भूकंप-प्रतिरोधी भवनों का निर्माण।
- सड़क एवं परिवहन व्यवस्था का सुधार : पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क निर्माण के दौरान पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना जरूरी है। हवाई व सार्वजनिक परिवहन के विकास पर जोर देना चाहिए, ताकि यातायात का दबाव कम हो सके।
- रानीखेत व औली जैसे छोटे शहरों में रोड, बिजली एवं इंटरनेट सुविधाओं के विकास से स्थानीय लोगों एवं पर्यटकों दोनों को सुविधा होती है।
- पहाड़ी क्षेत्रों में रोपवे व टनल्स का निर्माण भी यातायात में सुधार के लिए उपयोगी हो सकता है।
- शहरीकरण एवं जनसंख्या नियंत्रण : अनियंत्रित शहरीकरण से बचने के लिए नियोजित शहर विकास योजनाओं को लागू करना चाहिए। सुविधाओं का विकास जनसंख्या वृद्धि को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
- उदाहरण के लिए, धर्मशाला व देहरादून जैसे शहरों में शहरीकरण को नियंत्रित करने के लिए सख्त ज़ोनिंग नियम और जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण आदि उपायों बल देना चाहिए।
निष्कर्ष
हिमालयी शहरों को स्थिरता के बारे में व्यापक संवाद में शामिल होना चाहिए, जिसमें सार्वजनिक भागीदारी के साथ मजबूत और पर्यावरण-केंद्रित नियोजन प्रक्रियाओं के माध्यम से शहरी भविष्य पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।