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उत्तराखंड हिमालय में विकास का क्रम और प्रभाव

(प्रारंभिक परीक्षा- पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : बुनियादी ढाँचाः ऊर्जा, बंदरगाह, सड़क; संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ

हाल ही में, चमोली में ग्लेशियर के टूटने और फ़्लैश फ्लड के बाद समाज-वैज्ञानिक यहाँ की अर्थव्यवस्था पर आपदा के प्रभाव का आकलन कर रहे हैं। वैज्ञानिक और नीति निर्माता आपदा के लिये प्राथमिक तौर पर जलवायु परिवर्तन या पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में अनियंत्रित विकास को ज़िम्मेदार ठहराने पर बहस कर रहे हैं। इन सबके बीच उत्तराखंड के तीर्थ के रूप में विकास पर विश्लेषण आवश्यक है।

ऐतिहासिक विकास

  • हिमालय की तलहटी में पाई जाने वाली कलाकृतियाँ 300 ईसा पूर्व से 600 ईस्वी तक की अवधि की है, जिसमें अशोक का एक शिला पत्र, अश्वमेध यज्ञों के लिये ईंट की वेदी, सिक्के और मूर्तियाँ शामिल हैं।
  • इन कलाकृतियों के स्वरूप और उनके प्राप्ति स्थल गंगा के मैदानों और तलहटी में रहने वाले समुदायों के बीच गहरे संपर्क का संकेत देते हैं। सातवीं शताब्दी में उत्तराखंड हिमालय में शिला मंदिर वास्तुकला की एक क्षेत्रीय परंपरा शुरू हुई।

प्रारंभिक विकास

  • प्रारंभ में यहाँ के जगेश्वर क्षेत्र को तीर्थ का दर्जा प्राप्त हुआ। सातवीं और दसवीं शताब्दी के बीच जागेश्वर में निर्माणकर्ताओं ने स्थानीय भूगोल और पारिस्थितिकी को काफी परिवर्तित कर दिया।
  • जागेश्वर के इस प्रारंभिक विकास को पशुपति और अन्य शैव तपस्वियों से जोड़ा जा सकता है, न कि यह स्थानीय राजवंशों के उदय से संबंधित है।
  • वास्तव में, इस अवधि में इन तपस्वी समूहों का प्रभाव उत्तराखंड को आसपास के राजवंशों से अलग करता है। एक विशिष्ट वास्तु परंपरा के विकास, पुरोहितों की संख्या में वृद्धि, कुशल कारीगरों की अधिक उपलब्धता और छोटी रियासतों के उदय ने इस सीमाई क्षेत्र की स्थिति और इसके प्रति धारणा में बदलाव किया।
  • तेरहवीं शताब्दी तक अधिक संख्या में तपस्वियों और अन्य क्षेत्रों के शासकों ने इस पर्वतीय क्षेत्र में स्थापित और उभरते हुए तीर्थों की यात्रा शुरू की। उनकी यात्राओं और गतिविधियों ने अंततः चार धाम यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया।

तीर्थ सर्किट

  • वर्तमान में चार धाम यात्रा में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा शामिल है। बद्रीनाथ में एक पवित्र केंद्र की स्थापना का सबसे पुराना ऐतिहासिक प्रमाण पांडुकेश्वर में संरक्षित नौवीं शताब्दी के चार्टर से प्राप्त होता है।
  • ट्री लाइन के ऊपर एक हिमस्खलन-प्रवण घाटी में बद्रीनाथ की अवस्थिति को देखते हुए इस बात की संभावना है कि बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण और पुनर्निर्माण कई बार किया गया है। वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर की तरह ही केदारनाथ में स्थित मंदिर प्रारंभिक आधुनिक काल का है।
  • गंगा और यमुना के हिमनद स्रोतों के निकट स्थित होने के कारण गंगोत्री और यमुनोत्री को भी पवित्र स्थल के रूप में मान्यता प्रदान की गई। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में जयपुर शाही परिवार ने गंगोत्री में एक मंदिर के निर्माण का समर्थन किया, जबकि यमुनोत्री में स्थित मंदिर नए हैं।

परिवर्तन और पारिस्थितिकीय दबाव

  • पिछले छह दशकों में हुए जनसांख्यिकी, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के कारण यहाँ तीर्थ यात्रियों की संख्या में वृद्धि हुई है।
  • वर्ष 1962 युद्ध के बाद भारत सरकार ने माना कि विश्व की सबसे ऊँची पर्वत शृंखला को अब अजेय और सुरक्षित नहीं माना जा सकता है। अत: भविष्य में घुसपैठ की घटनाओं को रोकने के लिये देश के उत्तरी पहाड़ी सीमा पर बड़े पैमाने पर विकास कार्यक्रम शुरू किया गया।
  • इसके लिये सीमा सड़क संगठन, भारत तिब्बत सीमा पुलिस और टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन इंडिया लिमिटेड जैसी एजेंसियों की स्थापना की गई, जिनको सड़क, सुरंग, पुल, छावनी, अस्पताल, बाँध और टेलीकम्युनिकेशन टावरों के निर्माण का जिम्मा सौंपा गया।
  • समय के साथ इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला और नई बस्तियों के विकास के साथ बुनियादी ढाँचे के विकास को प्रोत्साहन मिला। अधिक राजनीतिक स्वायत्तता और क्षेत्रीय माँगों के कारण उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग किये जाने के बाद इसमें और गति आई।
  • धार्मिक पर्यटन को आय के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में मान्यता मिलने के बाद सरकारों ने तीर्थयात्रियों के लिये अधिक से अधिक सुविधाओं का विकास किया। इनमें व्यापक पहलें, नए बाँधों का निर्माण, राजमार्ग और रेलमार्गों का निर्माण शामिल है। इस प्रकार अब बहादुर, स्वस्थ्य, योग्यतम और उत्साही तीर्थयात्रियों के साथ-साथ सामान्य लोग भी इस क्षेत्र की यात्रा करने लगे।

पुनर्विचार की आवश्यकता

  • वर्ष 2013 में केदारनाथ की बाढ़ और अलकनंदा घाटी में हाल की फ्लैश फ्लड यह स्पष्ट करती है कि तीर्थस्थलों या अन्य कारणों से अंधाधुंध विकास का परिणाम बहुत भयानक हो सकता है और इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
  • अत: नेताओं को नीतियों पर पुनर्विचार करने और गाँधीवादी पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आगे आने की आवश्यकता है। इन्होनें पिछले कुछ दशकों में उत्तराखंड के जंगलों की रक्षा के लिये स्थानीय समुदायों को संगठित करने, स्थानीय रोजगार का सृजन करने के साथ-साथ भूकंपीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र में बड़ी पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण पर सवाल उठाया है।
  • इस प्रकार जब तक वर्तमान गतिविधियों में परिवर्तन नहीं किया जाता है, तब तक हिमालयी क्षेत्र इस प्रकार की आपदाएँ आती रहेंगी।
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