प्रारंभिक परीक्षा- राज्यपाल की शक्तियां, सरकारिया आयोग, शमशेर सिंह मामला मुख्य परीक्षा- सामान्य अध्ययन, पेपर-2 |
संदर्भ-
- तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों पर अपनी सहमति रोकने के पश्चात सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल की निष्क्रियता पर 'गंभीर चिंता' व्यक्त की है। कोर्ट ने तेलंगाना, पंजाब और केरल के राज्यपालों द्वारा भी इसी तरह विधेयकों की देरी पर नाराजगी व्यक्त की है।
मुख्य बिंदु-
- तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 लंबित विधेयकों पर सहमति रोकने के फैसले ने राज्यपाल की शक्तियों पर नए कानूनी सवाल खड़े कर दिए हैं।
- राज्य कानून बनाने की प्रक्रिया में राज्यपाल की शक्तियों की रूपरेखा को परिभाषित करने में हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं।
- 18 नवंबर,2023 को राज्यपाल द्वारा सहमति रोके जाने के पांच दिन बाद तमिलनाडु विधानसभा ने एक विशेष बैठक में उन विधेयकों को पुनः पास कर लिया है।
सुप्रीम कोर्ट में राज्यों की दलील-
- तमिलनाडु के अलावा केरल, तेलंगाना और पंजाब ने भी इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की मांग की है।
- तमिलनाडु सरकार के अनुसार, राज्यपाल राज्य सरकार के साथ सहयोग नहीं कर रहे हैं। राज्यपाल सरकार द्वारा दी जाने वाली छूट आदेशों, दिन-प्रतिदिन की फाइलों, नियुक्ति आदेशों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं। वे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भ्रष्टाचार में शामिल मंत्रियों, विधायकों के मुकदमों की जांच को सीबीआई को स्थानांतरित भी नहीं कर रहें हैं। तमिलनाडु विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षर नहीं करने से तमिलनाडु प्रशासन का कार्य- कलाप प्रभावित हो रहा है, जिससे प्रतिकूल रवैया उत्पन्न हो रही है।
- केरल सरकार ने अपनी याचिका में कहा है कि तीन विधेयक राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के पास दो साल से अधिक समय से और तीन विधेयक एक वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं।
- केरल उच्च न्यायालय में इस मुद्दे पर एक जनहित याचिका में राज्य सरकार को प्रतिवादी बनाया गया था, लेकिन उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। इसके बाद राज्य को सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा।
- तेलंगाना सरकार के अनुसार, 10 से अधिक प्रमुख विधेयक राज्यपाल तमिलिसाई सौंदर्यराजन के पास लंबित हैं और उनमें से सात विधेयक विधानसभा द्वारा पारित किए गए थे तथा सितंबर,2022 में राज्यपाल की सहमति के लिए भेजे गए थे।
विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति-
- संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल की शक्तियों से संबंधित है तथा अनुच्छेद 200 विशेष रूप से विधेयकों को सहमति देने के मुद्दे से संबंधित है। अतः राज्यपाल की शक्ति की रूपरेखा निर्धारित करने के लिए दोनों अनुच्छेदों को एक साथ पढ़ा जाता है।
- अनुच्छेद 200 के अनुसार, जब कोई विधेयक किसी राज्य की विधान सभा द्वारा पारित किया गया हो या विधान परिषद वाले राज्य के मामले में राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया हो, तो इसे राज्य के राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
- जब किसी राज्य की विधायिका द्वारा पारित कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं-
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- विधेयक पर सहमति देना।
- विधेयकों पर सहमति रोकना।
- विधेयकों को पुनर्विचार हेतु लौटाना।
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखें।
- अनुच्छेद 200 में महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि राज्यपाल "जितनी जल्दी हो सके" धन विधेयक के अलावा अन्य विधेयकों को इस संदेश के साथ लौटा सकते हैं कि सदन इस पर आंशिक रूप से या पूर्णतः पुनर्विचार करे।
- एक बार जब विधान सभा विधेयक पर पुनर्विचार करती है और इसे पुनः राज्यपाल के पास भेजती है, तो राज्यपाल उस पर सहमति देने से नहीं रोकेंगे।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियां-
- राज्यपाल निम्नलिखित मामलों में राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है, जब राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयक-
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- उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता हो।
- संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हो।
- राज्य की नीति निदेशक तत्वों के विरुद्ध हो।
- देश के व्यापक हित के विरुद्ध हो।
- राष्ट्रीय महत्व का हो।
- अनु. 31क के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित हो।
- अनु. 200 में यह प्रावधान है कि राज्यपाल को विधेयक को जितनी जल्दी हो सके वापस करना होगा, लेकिन कोई विशिष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
- राज्यपालों ने इस अस्पष्टता का फायदा उठाते हुए विधेयकों को राज्य विधानमंडल को लौटाए बिना अनिश्चित काल तक रोके रखा है।
- क्या व्यवहार में कोई राज्यपाल किसी विधेयक को हमेशा के लिए दबाए बैठा रह सकता है?
- विधेयकों पर निर्णय लेने की अनिश्चित समय-सीमा वास्तव में निर्वाचित सरकार को पंगु बनाने के समान हो सकती है।
- विधेयकों को मंजूरी देना उन कुछ क्षेत्रों में से एक है, जिसमें राज्यपाल अपने विवेक का प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन फिर भी, इस विवेक का उपयोग मनमाने ढंग से या व्यक्तिगत प्राथमिकता के आधार पर नहीं किया जा सकता है, बल्कि केवल ठोस कारणों के साथ संवैधानिक संदर्भ में ही किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 200 में "करेगा" शब्द का उपयोग किया गया है, जो इंगित करता है कि संविधान के निर्माताओं ने इस पहलू पर राज्यपाल के लिए एक अनिवार्य दृष्टिकोण को अपनाया था।
सरकारिया आयोग (1987) की सिफारिशें-
- सरकारिया आयोग (1987) ने सिफारिश किया था कि असंवैधानिकता के दुर्लभ मामलों के तहत यह केवल राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों का आरक्षण है, जिसे राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति के रूप में निहित किया जा सकता है।
- ऐसे असाधारण मामलों को छोड़कर राज्यपाल को मंत्रियों की सलाह के अनुसार अनुच्छेद 200 के तहत अपने कार्यों का निर्वहन करना चाहिए।
- आयोग ने सिफारिश की कि राष्ट्रपति को अधिकतम छह महीने की अवधि के भीतर ऐसे विधेयकों का निपटान करना चाहिए।
- राष्ट्रपति द्वारा 'अनुमति रोके जाने' की स्थिति में, जहां तक संभव हो, राज्य सरकार को कारण के बारे में सूचित किया जाना चाहिए।
- पुंछी आयोग (2010) ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को उनकी सहमति के लिए प्रस्तुत विधेयक के संबंध में 6 महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना चाहिए। हालाँकि, इन सिफारिशों को आज तक लागू नहीं किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका-
- राज्यपाल की शक्तियों से संबंधित कई पहलू; जैसे कि- राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने में भूमिका, बहुमत वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना, या विश्वास मत के दौरान – बहुत विवाद हुए हैं, किंतु वर्तमान में इन पहलुओं पर कानून स्थापित है।
- अब सुप्रीम कोर्ट के सामने नया प्रश्न लाया गया है - क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों के लिए विधेयकों पर सहमति देने के लिए समय सीमा तय कर सकता है, जो यह तय करने के बराबर है कि क्या वह संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करने वाले कार्यालय के लिए सीमाएं निर्धारित कर सकता है।
- अतीत में कोर्ट अयोग्यता के मामलों पर निर्णय लेने के लिए स्पीकर के कार्यालय के लिए समय सीमा तय की है।
- उच्चतम न्यायालय के समक्ष राज्यपाल को पक्षकार नहीं बनाया जा सकता। इसलिए आम तौर पर कोर्ट ऐसे विवादों में राज्यपाल के सचिव को नोटिस जारी करती है।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के निर्णय-
1. शमशेर सिंह मामला (1974)-
- शमशेर सिंह मामले (1974) सहित विभिन्न मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, राज्यपाल किसी विधेयक पर सहमति रोकते समय या उसे राज्य विधानमंडल को लौटाते समय अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग नहीं करते हैं। उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना आवश्यक है।
- राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी निजी विधेयक (मंत्री के अलावा राज्य विधानमंडल का कोई भी सदस्य) के मामले में 'सहमति रोकने' की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जिसे मंत्रिपरिषद कानून का रूप नहीं देना चाहती है। ऐसे मामले में, वे राज्यपाल को 'अनुमति रोकने' की सलाह देंगे।
- यह एक असंभावित परिदृश्य है, क्योंकि विधान सभा में बहुमत प्राप्त मंत्रिपरिषद ऐसे विधेयक को पारित नहीं होने देगी।
- यदि मौजूदा सरकार जिसका विधेयक विधायिका द्वारा पारित किया गया है, राज्यपाल द्वारा सहमति दिए जाने से पहले गिर जाती है या इस्तीफा दे देती है, तो नई परिषद राज्यपाल को 'अनुमति रोकने' की सलाह दे सकती है।
- राज्यपाल कुछ विधेयकों; जैसे कि- उच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करने वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकता है।
- राज्यपाल मंत्रिस्तरीय सलाह के आधार पर उन विधेयकों को समवर्ती सूची में भी आरक्षित कर सकते हैं, जो केंद्रीय कानून के प्रतिकूल हैं।
- केवल दुर्लभ परिस्थितियों में ही राज्यपाल अपने विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं, जहां उन्हें लगता है कि विधेयक के प्रावधान संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन कर रहे हैं और इन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए।
- संविधान कोई समय सीमा निर्धारित नहीं करता है, जिसके भीतर राज्यपाल को निर्णय लेने की आवश्यकता होती है।
2. नबाम रेबिया और बमांग फेलिक्स बनाम डिप्टी स्पीकर मामला-
- सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश विधानसभा मामले (नबाम रेबिया और बमांग फेलिक्स बनाम डिप्टी स्पीकर) में 2016 के अपने ऐतिहासिक फैसले में इस पहलू पर विचार किया था।
- राज्यपाल किसी विधेयक पर अनिश्चित काल तक अपनी सहमति नहीं रोक सकते हैं, लेकिन उन्हें इसे एक संदेश के साथ विधानसभा को वापस करना होगा, जो विधेयक में संशोधन के लिए उनकी सिफारिश हो सकती है।
- यह नियमों के नियम 102 और नियम 103 का विषय है जो इस प्रकार है: “102 (1) जब विधानसभा द्वारा पारित एक विधेयक राज्यपाल द्वारा एक संदेश के साथ विधानसभा को लौटाया जाता है जिसमें अनुरोध किया जाता है कि विधानसभा विधेयक या उसके किसी निर्दिष्ट प्रावधान पर पुनर्विचार करे. यदि सत्र चल रहा है तो अध्यक्ष राज्यपाल के संदेश को विधानसभा में पढ़ेंगे, यदि विधानसभा सत्र में नहीं है, सदस्यों को इसे जानकारी के लिए प्रसारित किया जा सकता है ।
गतिरोध दूर करने की राह-
- भारतीय संघीय व्यवस्था को प्रभावित करने वाली अंतर्निहित समस्या राज्यपाल के पद का राजनीतिकरण है।
- सी. एन. अन्नादुराई से लेकर नीतीश कुमार तक कई राजनीतिक नेताओं ने अतीत में राज्यपाल के पद को खत्म करने की मांग की है।
- हमारी संवैधानिक योजना के अनुसार, संघ कार्यकारिणी के लिए राष्ट्रपति की तरह ही राज्य कार्यकारिणी के एक नाममात्र प्रमुख की आवश्यकता होती है।
- राज्यपाल केंद्र के एक नियुक्त व्यक्ति के रूप में कार्य करता है, जिसकी महत्वपूर्ण समय में राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए आवश्यकता पड़ सकती है।
- संघवाद हमारे संविधान की एक बुनियादी विशेषता है और राज्यपाल के कार्यालय को राज्यों में निर्वाचित सरकारों की शक्तियों को कमजोर नहीं करना चाहिए।
- सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के लिए 'थोड़ा आत्म-मंथन' करना आवश्यक है। संविधान में यह प्रावधान करने के लिए संशोधन किया जा सकता है कि मुख्यमंत्रियों से परामर्श किया जाएगा।
प्रारभिक परीक्षा के लिए प्रश्न-
प्रश्न- राज्यपाल निम्नलिखित में से किन मामलों में राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है?
- उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता हो।
- संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हो।
- अनु. 31क के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित हो।
नीचे दिए गए कूट की सहायता से सही उत्तर का चयन कीजिए।
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3
उत्तर- (d)
मुख्य परीक्षा के लिए प्रश्न-
प्रश्न- भारतीय संघीय व्यवस्था को प्रभावित करने वाली अंतर्निहित समस्या राज्यपाल के पद का राजनीतिकरण है। विवेचना कीजिए।
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स्रोत- Indian express, The hindu