संदर्भ
योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था (Planned Economy) से बाजार-मध्यस्थ आर्थिक प्रणाली में बदलाव तथा नीति आयोग के गठन और वस्तु एवं सेवा कर (GST) अधिनियम को लागू करने तक ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका भारत के राजकोषीय संघवाद पर अलग-अलग प्रभाव देखने को मिलता है। अतः भारत के राजकोषीय संघवाद की उभरती गतिशीलता पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।
भारत का राजकोषीय संघवाद
- राजकोषीय दृष्टिकोण से भारत की संघीय प्रणाली के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं :
- संविधान का अनुच्छेद 1 : इसमें कहा गया है कि भारत, राज्यों का एक संघ होगा।
- संविधान की सातवीं अनुसूची : इसमें विभिन्न सूचियों के तहत संघ एवं राज्यों को अतिव्यापी कार्यों के साथ अलग-अलग कार्य आवंटन किया गया है।
- संविधान का अनुच्छेद 280 : इसमें शुद्ध केंद्रीय करों और विभिन्न अन्य अनुदानों के ऊर्ध्वाधर व क्षैतिज पुनर्वितरण की सिफारिश करने के लिए प्रत्येक पांच वर्ष में वित्त आयोग का गठन किया जाना।
- राजकोषीय संघवाद को संघीय सरकार प्रणाली में सरकारों की इकाइयों के बीच वित्तीय संबंधों के रूप में परिभाषित किया गया है।
- राजकोषीय संघवाद व्यापक सार्वजनिक वित्त अनुशासन का हिस्सा है। इसमें :
- कर लगाने के साथ-साथ केंद्र और घटक इकाइयों के बीच विभिन्न करों का विभाजन शामिल किया जा सकता है।
- करों के संयुक्त संग्रह के मामले में घटक इकाइयों के बीच धन के उचित विभाजन के लिए मानदंड का निर्धारण।
- भारत में करों के विभाजन में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में वित्त आयोग की स्थापना।
भारत के राजकोषीय संघवाद की उभरती गतिशीलता
- भारत की राजकोषीय नीति में नियोजित अर्थव्यवस्था से बाजार-मध्यस्थ आर्थिक प्रणाली में बदलाव का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।
- 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधन के बाद दो-स्तरीय संघीय प्रणाली का बहु-स्तरीय राजकोषीय प्रणाली में परिवर्तन हुआ है।
- योजना आयोग को समाप्त कर उसके स्थान पर नीति आयोग को स्थापित किया गया।
- राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम को पारित करके केंद्र व राज्य सरकारों दोनों में राजकोषीय अनुशासन और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया।
- जी.एस.टी. अधिनियम एवं एक नियंत्रक प्राधिकरण के रूप में जी.एस.टी. परिषद की स्थापना ने केंद्र व राज्यों के बीच कर संरचना और राजस्व बंटवारे में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं।
- उपकर और अधिभार का व्यापक उपयोग जो केंद्र व राज्य सरकारों के बीच वितरण के लिए उपलब्ध धन के विभाज्य पूल के आकार को प्रभावित करता है।
भारत में राजकोषीय संघवाद के मुद्दे
- गैर-अनुपातिक अनुमोदन : कर माफ़ी, कर रियायतें और अन्य राजस्व माफ़ी से एक तरफ विभाज्य राजकोषीय पूल का आकार कम हो रहा है तो दूसरी तरफ इससे केवल धनी वर्ग को असंगत रूप से फायदा पहुंच रहा है।
- इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली रिसर्च फाउंडेशन डाटा के आधार पर 1970-71 से 2020-21 तक 16 प्रमुख राज्यों की प्रति व्यक्ति आय में केवल 0.72% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) दर्ज की गयी है।
- राज्यों पर अतिरिक्त बोझ : केंद्रीय कानूनों के माध्यम से लागू की जाने वाली योजनाएँ राज्यों पर वित्तीय बोझ में अतिरिक्त वृद्धि करती हैं। जैसे :
- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005
- निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009
- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013
- भ्रम एवं अव्यवस्था : संविधान में अनुसूची XI एवं अनुसूची XII को शामिल करने के बाद कार्यों व वित्त के विभाजन के संबंध में अधिक भ्रम तथा अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गयी है।
- राज्य सूची एवं समवर्ती सूची से विषयों को लेकर ही दोनों अनुसूचियां में क्रमशः पंचायती राज संस्थानों और नगर पालिकाओं के लिए विषय वस्तु को सूचीबद्ध किया गया है।
- जब तक इन विषयों को उचित प्रकार से परिभाषित नहीं किया जायेगा तब तक अव्यवस्था की स्थिति बनी रहेगी।
- एक समान वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली का अभाव : भारत के राजकोषीय संघीय व्यवस्था में तीसरे स्तर को उचित स्थान न मिलना एक गंभीर मुद्दा है। सरकार के सभी स्तरों पर एक समान वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली लागू की जानी चाहिए। जैसे -
- सभी स्तरों के लिए मानक बजट नियम लागू किया जाना।
- लंबे समय से अनुशंसित संचय-आधारित लेखांकन प्रणाली की शुरूआत।
- बजट से इतर अनियमित उधार : बजट से इतर उधार (ऑफ-बजट) का मतलब उन सभी उधारों से है जिनके लिए बजट में प्रावधान नहीं किया गया है किंतु जिनकी पुनर्भुगतान देनदारियां बजट पर आती हैं।
- केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा ऑफ-बजट उधार प्रथाओं का अनुपालन किया जाता है।
- यद्यपि राज्य सरकारों पर संविधान के अनुच्छेद 293(3) एफ.आर.बी.एम. अधिनियम के माध्यम से नियंत्रण होता है किंतु केंद्र के ऊपर ऐसे उधार की न उचित जांच होती है और न ही उचित रिपोर्ट की जाती है।
- केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को ऋण के माध्यम से वित्तपोषित करने के लिए राष्ट्रीय लघु बचत कोष का पर्याप्त उपयोग संघ के राजकोषीय घाटे में शामिल नहीं है।
- जी.एस.टी. संबंधी राजकोषीय संघवाद के मुद्दे :
- जी.एस.टी. ने देश की अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को अधिक एकात्मक बना दिया है, जिससे राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता कम हो गई है।
- राजस्व वृद्धि 14% से कम होने पर राज्यों को मुआवजे का वादा किया गया था किंतु केंद्र द्वारा उचित समय पर भुगतान न करने से टकराव पैदा हुआ।
- राज्यों के स्वयं के जी.एस.टी. राजस्व में कमी का सामना करना पड़ता है जिससे वित्तीय चुनौतियाँ पैदा होती हैं और राजकोषीय संघवाद प्रभावित होता है।
भविष्य के लिए सुझाव
- वित्त हस्तांतरण में सुधार : भारत की वित्त हस्तांतरण प्रणाली में समानता को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसके लिए आगामी 16वें वित्त आयोग को कर हस्तांतरण में समानता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
- अनुच्छेद 246 और सातवीं अनुसूची पर पुनर्विचार: राजनीति, समाज, प्रौद्योगिकी, जनसांख्यिकी और विकास दृष्टिकोण में बदलाव ने शासन परिदृश्य में उल्लेखनीय परिवर्वतन किया है।
- इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 और सातवीं अनुसूची के पुनरीक्षण की आवश्यकता है जो केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के वितरण की रूपरेखा प्रस्तुत करती है।
- तीसरे स्तर को सशक्त बनाना : स्थानीय सरकारों की भूमिका को पहचानते हुए आगामी केंद्रीय वित्त आयोग को तीसरे स्तर को सशक्त बनाने पर ध्यान देना चाहिए।
- साथ ही, स्थानीय सरकारों की जिम्मेदारियों एवं शक्तियों का विवरण देने वाली एक नई स्थानीय सूची तैयार करने की आवश्यक है।
- ऑफ-बजट उधार की समीक्षा : केंद्र और राज्यों दोनों के ऑफ-बजट उधार प्रथाओं की समीक्षा की आवश्यकता है। पारदर्शिता महत्वपूर्ण है और सभी प्रकार की आय एवं व्यय लेनदेन का हिसाब बजट के भीतर होना चाहिए।