(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, न्यायालय संबंधित प्रश्न)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र 2 – सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप से संबंधित मुद्दे)
संदर्भ
- जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की ई-समिति को न्यायिक उत्पादकता और दक्षता बढ़ाने के लिये अदालतों में डिजिटल तकनीकों को समेकित करने का काम सौंपा गया है।
- इस परियोजना के तीसरे चरण में, विशेषज्ञ उप-समिति ने एक ‘इंटरऑपरेबल डिजिटल आर्किटेक्चर’ स्थापित करने के लिये एक मसौदा दस्तावेज़ प्रकाशित किया है।
- यह दस्तावेज़ अन्य बातों के अलावा, आपराधिक न्याय के सभी स्तंभों (पुलिस, अभियोजक, जेल और अदालतें) के बीच आसान डेटा-साझाकरण की सुविधा प्रदान करता है।
ई-समिति (e-committee)
- ई-समिति, भारत में न्यायिक प्रणाली द्वारा अपनाई गई सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) पहलों को प्रदर्शित करने वाला पोर्टल है।
- भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री आर.सी. लाहोटी ने ई-समिति के गठन का प्रस्ताव रखा था।
- ई-समिति एक शासी निकाय (Governing body) है, जिसे भारतीय न्यायपालिका में आई.सी.टी. के कार्यान्वयन के लिये ‘राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना-2005’ के तहत संकल्पित ‘ई-कोर्ट परियोजना’ की देखरेख करने का प्रतिभार सौंपा गया है।
- ई-समिति द्वारा बनाए गए डिजिटल प्लेटफॉर्म ने हितधारकों, वकीलों, सरकारी/कानून प्रवर्तन एजेंसियों और आम नागरिकों को वास्तविक समय में न्यायिक डेटा और जानकारी तक पहुँचने में सक्षम बनाया है। डिजिटल डेटाबेस और इंटरेक्टिव प्लेटफॉर्म सक्षम करते हैं:
- देश की किसी भी अदालत में लंबित विशेष मामले की स्थिति और विवरण को ट्रैक करना।
- देश भर के विभिन्न न्यायिक संस्थानों में लंबित मामलों का प्रबंधन।
- मामलों की श्रेणियों को फास्ट ट्रैक करने के लिये डेटाबेस का उपयोग।
- अदालती संसाधनों के कुशल उपयोग।
- न्यायपालिका की दक्षताओं और प्रभावशीलता की निगरानी और मानचित्रण के लिये डेटा का विश्लेषण।
- ई-कोर्ट एक ‘अखिल भारतीय परियोजना’ है, जिसकी निगरानी एवं वित्तपोषण न्याय विभाग द्वारा किया जाता है। इसका उद्देश्य न्यायालयों को आई.सी.टी. सक्षम बनाकर देश की न्यायिक प्रणाली में बदलाव लाना है।
परियोजना अवलोकन
- ई-कोर्ट के तहत प्रोजेक्ट लिटिगेंट्स चार्टर के अनुसार कुशल और समयबद्ध नागरिक केंद्रित सेवाएँ प्रदान करना।
- न्यायालयों में कुशल न्याय वितरण प्रणाली विकसित, स्थापित और कार्यान्वित करना।
- हितधारकों तक सूचना की पहुँच को आसान बनाना।
- न्यायिक उत्पादकता को गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों रूप से बढ़ाना; न्याय वितरण प्रणाली को सुलभ, लागत प्रभावी, विश्वसनीय और पारदर्शी बनाना।
इंटरऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (ICJS)
- इस व्यवस्था की शुरुआत वर्ष 2019 में की गई थी जो संचालित होने के लिये तैयार है, यह मौजूदा आवश्यकता-आधारित सूचना विनिमय की जगह लेगी।
- यह मौजूदा केंद्रीकृत डेटा सिस्टम जैसे अपराध एवं आपराधिक ट्रैकिंग नेटवर्क और सिस्टम(CCTNS), ई-जेल और ई-कोर्ट को एकीकृत करेगा। साथ ही, यह इन शाखाओं के मध्य ‘लाइव डेटा के निर्बाध आदान-प्रदान’ को सुनिश्चित करता है।
दर्ज मामलों की प्रकृति
- भारत भर के पुलिस स्टेशनों ने ऐतिहासिक रूप से ‘आदतन अपराधियों’ (Habitual Offenders - H.O.) के रजिस्टर बनाए हैं।
- इस तरह के रजिस्टर में मुख्य रूप से ऐसे व्यक्तियों के नाम होते हैं जो ‘विमुक्त जनजाति’ से संबंधित हैं। ये ऐसे समुदाय हैं, जिन्हें अंग्रेज़ों द्वारा ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871’ के माध्यम से अपराधी बना दिया गया था।
- जाति व्यवस्था ने औपनिवेशिक अधिकारियों को एच.ओ. की पहचान करने का औचित्य प्रदान किया।
- स्वतंत्रता के बाद राज्य के कानूनों के माध्यम से इस व्यवस्था को कायम रखा गया है, जिससे पुलिस को बड़ी संख्या में लोगों के जीवन और आंदोलनों का रिकॉर्ड बनाए रखने की अनुमति इस तरह की जानकारी संग्रह के विस्तार, उद्देश्य या साधनों को विनियमित किये बिना मिलती है।
- एक एच.ओ. के रूप में लेबल किये जाने का सबसे बड़ा अन्याय यह है कि यह पूरी तरह से पुलिस के संदेह, विवेक और पारंपरिक ज्ञान पर निर्भर करता है, जो जातिगत पूर्वाग्रहों से सूचित होता है।
- इन रजिस्टरों में पहली बार अपराधियों और किशोरों के नाम और विवरण भी शामिल किये गए हैं।
पुलिस स्तर पर किये गये प्रयास
- वर्षों से, एच.ओ. रजिस्टर पुलिस थानों के अंदर रखे हुए थे और उनमें सूचना आमतौर पर किसी कस्बे या जिले के पुलिस थानों के बीच ही साझा की जाती थी।
- सीसीटीएनएस के माध्यम से राज्य पुलिस को इस डेटा को डिजिटाइज़ करने, इसे राज्य भर में उपलब्ध करके एक सामान्य डेटाबेस से जोड़ने और अपराध एवं आपराधिक मानचित्रण तथा भविष्य में पुलिस कार्यवाही के लिये इसके उपयोग का विस्तार करने का अवसर मिला।
- इस प्रकार कई राज्यों ने मौजूदा डेटाबेस में आईरिस और फेस स्कैन जैसी पूरक जानकारियों को जोड़ना शुरू कर दिया।
- मध्य प्रदेश में, व्यक्तियों की आदतों के बारे में जानकारी के अलावा एच.ओ. के अपराध करने के कथित तरीके, उनकी संपत्ति, उनके सहयोगियों और जहाँ वे अक्सर आते हैं तथा पुलिस ने परिवार के सदस्यों के बारे में भी जानकारी को सीसीटीएनएस में फीड करना प्रारंभ कर दिया है।
- हालाँकि, यह देखते हुए कि सिस्टम अभी तक स्वतंत्र रूप से संचालित नहीं हो सकता, पुलिस को इन अभिलेखों को आधिकारिक तौर पर अदालतों के समक्ष प्रस्तुत करना होगा, जिससे आरोपी को रिकॉर्ड की शुद्धता को चुनौती देने का अधिकार मिल सके।
- यद्यपि एक इंटरऑपरेबल सिस्टम इस जानकारी को आरोपी व्यक्तियों की जानकारी के बिना उनके नुकसान के लिये इस्तेमाल करने की क्षमता देता है।
आलोचनाएँ
- आलोचकों ने गोपनीयता संबंधी चिंताओं पर ज़ोर दिया है। डेटा संरक्षण कानूनों की अनुपस्थिति को देखते हुए और न्यायिक स्वतंत्रता के लिये गृह कार्यालय में डेटा के निहितार्थ के सवाल पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है।
- एक उपेक्षित खतरा यह है कि ‘निर्बाध विनिमय’, संभवतः पुलिस थानों के स्तर पर निष्पक्षता और प्रौद्योगिकी की तटस्थता के दोहरे मिथकों के माध्यम से डेटा निर्माण की पक्षपाती और अवैध प्रक्रिया को छुपा देगा।
- रजिस्टरों में किशोरों को शामिल करना, ‘किशोर न्याय अधिनियम’ में स्वीकृत नई शुरुआत के सिद्धांत का उल्लंघन है।
- यद्यपि बिना किसी निरीक्षण के पक्षपाती ऑफ़लाइन डेटाबेस बनाने के लिये अस्पष्ट और पुराने प्रावधानों का उपयोग करना निस्संदेह अवैध है।
- एक स्थायी डिजिटल डेटाबेस बनाने के लिये इन प्रावधानों का उपयोग करना अवैधता और नुकसान को बढ़ाता है।
निष्कर्ष
- भले इसके माध्यम से डेटा के जाति-सूचित पूर्वाग्रहों को दूर किया जा सकता है, लेकिन जाति व्यवस्था को समाप्त किये बिना यह चुनौती दुर्गम है।
- अभी भी व्यक्तियों की गोपनीयता और स्वतंत्रता पर केंद्रीकृत, अंतर-संचालित और स्थायी डिजिटल डेटाबेस के जोखिमों पर विचार करना चाहिये।
- दक्षता और डिजिटलीकरण हाशिये पर पड़े व्यक्तियों के अधिकारों और उनके सम्मानों को कम नहीं कर सकता है, जो अक्सर हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली के विषय होते हैं।