(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित व भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
रूस और यूरेशिया
- भौगोलिक और आर्थिक राजनीति में यूरेशिया एवं रूस का उदय एक अलग तरीके से हुआ है। रूस की सीमा का भौगोलिक विस्तार यूरोप से लेकर एशिया तक है, जो इसे यूरेशियन शक्ति के रूप में एक अद्वितीय पहचान देता है।
- रूस का लक्ष्य विश्व के अनेक शक्ति केंद्रों के साथ सहयोग बढ़ाना और हितों को साझा करना है। अत: जैसे-जैसे पश्चिमी देशों से इसकी दूरियाँ बढ़ी वैसे-वैसे सोवियत संघ और बाद में रूस ने यूरोप से अलग एक नई पहचान स्थापित करने की कोशिश की। इस संदर्भ में हाल के वर्षों में यूरेशिया की अवधारणा के विकास में कुछ तेज़ी देखी गई है।
यूरेशियन आर्थिक संघ
- ‘यूरेशियन आर्थिक संघ’ (Eurasian Economic Union- EAEU) को ‘यूरेशियन संघ’ (ई.ए.यू.) भी कहते है। यह वर्ष 2015 से अस्तित्व में आया। रूस, बेलारूस, कज़ाकिस्तान, आर्मीनिया और किर्ग़िस्तान की सदस्यता वाला यह संघ एक ‘आर्थिक सहयोग मंच’ है।
- इसका लक्ष्य आधुनिक वैश्विक स्थिति में अपनी पहचान को स्थापित करना और यूरोप एवं तेजी से बदलते हुए एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बीच एक महत्त्वपूर्ण सेतु के रूप में कार्य करना है।
ग्रेटर यूरेशिया
- वर्ष 2014 में यूरेशियन संघ के विचार के विकास के साथ पश्चिमी देशों के साथ रूस के संबंधों में गिरावट का एक दौर आया। इससे पूर्वी देशों के साथ संबंधों को मज़बूत करने की दृष्टिकोण का विकास हुआ क्योंकि एशिया एक नए शक्ति केंद्र के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर रहा है।
- वर्ष 2016 में ग्रेटर यूरेशिया की घोषणा ने एशिया के महत्त्व को और बढ़ा दिया। यह अवधारणा यूरेशियन संघ की धारणा से अधिक विस्तृत है, जिसमें भू-आर्थिक के साथ-साथ भू-राजनीतिक आयाम को भी शामिल किया गया है। इसकी व्यापकता अटलांटिक से लेकर प्रशांत महासागर तक है।
- रुसी विदेश मंत्री के अनुसार, यह ई.ए.ई.यू, शंघाई सहयोग संगठन (एस.सी.ओ.) और आसियान के साथ-साथ यूरेशिया के सभी देशों एवं यूरोपीय संघ को शामिल करने की इच्छा रखता है।
चुनौतियाँ
सांस्कृतिक और आर्थिक समस्या
- इस अवधारणा के कारण रूस की भूमिका क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों में काफी अलग हो गई है। जहाँ एक ओर इसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के साथ जुड़ाव के रूप में देखा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इसे चीन के वर्चस्व को संतुलित करने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है। हालाँकि, अभी भी ‘ग्रेटर यूरेशिया’ को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
- यूरेशियन संघ के कई देशों ने आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिये ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल से जुड़ने के प्रस्ताव को स्वीकार भी किया गया है परंतु इसके अंतर्गत अभी भी साझा परियोजनाओं की शुरुआत नहीं हो सकी है। साथ ही, मुक्त-व्यापार समझौते पर किये गए हस्ताक्षर भी इन ढाँचों के अंतर्गत नहीं किये गए हैं, जो आर्थिक समन्वय में कमी को प्रदर्शित करते है।
- इस संघ की अग्रणी अर्थव्यवस्था होने के बावज़ूद रूस को अभी भी एशिया में एक मज़बूत आर्थिक शक्ति के तौर पर उभरने की आवश्यकता है। साथ ही, चीन पर रूस की बढ़ती निर्भरता भी चिंताजनक है और पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के कारण यूरोपीय संघ के साथ भी रूस के संबंधों में गिरावट आ रही है।
राजनीतिक समस्या
- ई.ए.ई.यू. (EAEU) के समक्ष राजनीतिक मोर्चे पर अधिक चुनौतियाँ है क्योंकि इसके सदस्य देश किसी संगठन के ढाँचे के अंतर्गत अधिक राजनीतिक सहयोग के विरोधी रहे हैं।
- इसके अतिरिक्त, ग्रेटर यूरेशिया की अवधारणा को साकार करने के लिये ‘एस.सी.ओ.’ (SCO) और ‘रिक’ (Russia-India-China: RIC) जैसे संगठनों पर ध्यान केंद्रित करने की चुनौती वर्तमान में अत्यधिक बढ़ गई है। इसका एक कारण भारत एवं चीन के बीच बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धा और दूसरा कारण अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वंदिता में वृद्धि है।
- मानवाधिकार के मुद्दे, लोकतांत्रिक और साम्यवादी दृष्टिकोण में अंतर तथा सैन्य व सुरक्षात्मक दृष्टिकोण भी एक समस्या है। यूरोप के प्रमुख देशों का नाटो गठबंधन का सदस्य होना, यूक्रेन विद्रोह, अजरबैजान और आर्मीनिया के बीच क्षेत्रीय संघर्षों से भी इसमें बाधा आ रही है।
आगे की राह
- इस अवधारणा के अत्यधिक खर्चीली और दीर्घकालिक होने के कारण रूस को यूरेशिया की योजना पर प्रगति करने के साथ-साथ एशियाई, पश्चिम एशियाई और अफ्रीकी देशों के साथ संबंधों को लगातार मज़बूत करने की भी आवश्यकता है क्योंकि चीन का उभार एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
- यूरोपीय शक्ति से अलग स्वयं को स्थापित करने के लिये रूस को अपने राजनीतिक एवं आर्थिक संबंधों को सुधारने के साथ-साथ बदलती वैश्विक व्यवस्था में अपनी भूमिका को तलाशने और उसके अनुसार स्वयं को तैयार करने की भी आवश्यकता है।
- इस समूह के सदस्यों के बीच राजनीतिक सक्रियता को बढ़ाने के साथ-साथ ‘संप्रभु विषमता’ (Sovereign Inequality) की समस्या को कम करने की आवश्यकता है। देशों भौगोलिक क्षेत्रों के मध्य सामाजिक और सांस्कृतिक विषमता को ‘संप्रभु विषमता’ कहते है।