New
IAS Foundation Course (Prelims + Mains): Delhi & Prayagraj | Call: 9555124124

चरम मौसमी घटनाएँ और नीलगिरि पारिस्थितिकी तंत्र के लिये संकट : ख़तरे में पहाड़ियाँ

(प्रारम्भिक परीक्षा- पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 व 3: वनस्पति एवं प्राणिजगत में परिवर्तन और इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रभाव, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

पृष्ठभूमि

हाल ही में, दक्षिणी भारत में नीलगिरि के पश्चिमी हिस्सों के आसपास हज़ारों पेड़ नष्ट हो गए हैं। संरक्षणवादी और पर्यावरणीय कार्यकर्ता विकासवादी परियोजनाओं के कारण वनों की कटाई व खनन के विरुद्ध लड़ रहे हैं, जिससे जंगलों के साथ-साथ पर्यावरणीय पारिस्थितिकी और जैव-विविधता को बचाया जा सके। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाओं के कारण एक अलग स्तर के विनाश की प्रक्रिया घटित हो रही है। उल्लेखनीय है कि नीलगिरी पश्चिमी घाट का हिस्सा और टोडा जनजाति का निवास स्थान है।

वैश्विक तापन और चरम मौसमी घटनाएँ

  • पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर मई 2020 में 417 पार्ट्स प्रति मिलियन (पी.पी.एम.) दर्ज किया गया, जिसे अभी तक के रिकॉर्ड में सबसे अधिक मना जा रहा है।
  • ग्रीनहाउस गैस की सांद्रता में वृद्धि के कारण वैश्विक तापन में वृद्धि हो रही है, जिससे चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में बढ़ोत्तरी हुई है। साथ ही ध्रुवीय बर्फ व ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं और समुद्र स्तर में वृद्धि हो रही है।

green-house-gas

  • दक्षिणी भारत के तटीय मैदान और पश्चिमी घाट में चरम मौसमी घटनाओं का प्रभाव अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
  • पिछले चार वर्षों में यह क्षेत्र आठ उष्णकटिबंधीय चक्रवातों से प्रभावित हुआ है। साथ ही पिछले दो वर्षों में दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान लगातार यह क्षेत्र एक छोटी अवधि में तीव्र वर्षा की घटनाओं का सामना कर रहा है।
  • तूफ़ानों के साथ-साथ गम्भीर सूखे की बढती अवधि, हीटवेव्स और कमज़ोर मानसून तथा मानसून प्रणाली में बाधा से भी यह क्षेत्र बीच-बीच में प्रभावित होता रहा है।
  • इस क्षेत्र की कुंधा नदी क्षेत्र के आसपास चार दिनों के दौरान वार्षिक वर्षा की मात्रा का लगभग चार गुना वर्षा हुई। ध्यातव्य है कि कुंधा, भवानी नदी की एक प्राथमिक सहायक नदी है, जो कावेरी में जाकर मिल जाती है।

अत्यधिक वर्षा का प्रभाव

  • ‘एवलांश झील घाटी क्षेत्र’ (Avalanche Valley Region) में भूस्खलन के कारण सैकड़ों देशज पेड़ उखड़ कर बह गए। देशज पेड़ व पौधे किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र के प्रचीन और मूल उद्भव होते हैं। इनका नष्ट होना पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक माना जाता है। ध्यातव्य है कि एवलांश झील तमिलनाडु के नीलगिरी जिले में स्थित है।
  • तीव्र वर्षा के कारण ह्यूमस से युक्त उपजाऊ काली मृदा की ऊपरी परत को क्षति पहुँची है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में काई/हरिता (Moss) और जंगली गुलमेंहदी से चट्टानें ढकी रहती थीं, जो नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने में सहायक होती है। तीव्र और चरम मौसमी घटनाओं के कारण इनको भी नुकसान पहुँचा है।
  • साथ ही अत्यधिक संख्या में शोला वनों, बाँस की बौनी प्रजातियों और जंगली कुरुंजी (पहाड़ियों को ढँकने वाली नीले फूलों की झाड़ियाँ) को भी क्षति पहुँची है। ये नदी की धाराओं के साथ-साथ पौधों, फ़र्न और आर्किड को संरक्षित करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

शोला-घास के मैदान को क्षति

  • जल की अधिक मात्रा के कारण मृदा की मूल्यवान परत के अपरदन और भूस्खलन के कारण शोला पारिस्थितिकी (शोला-घास के मैदान) को काफी क्षति पहुँची है। शोला-घास का मैदान उच्च वर्षा मात्रा को अवशोषित करने और पूरे वर्ष धीरे-धीरे जल छोड़ने के कारण बारहमासी धाराओं को जन्म देते हैं। इसके नष्ट होने से गर्मियों में नदियों और पारिस्थितिकी तंत्र में पानी की कमी हो जाएगी।
  • शोला-घास के मैदानों की पारिस्थिकी संरचना भी बहुत अधिक मात्रा में वर्षा का सामना कर पाने में सक्षम नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र का स्तर गिरता जा रहा है।
  • यहाँ की शोला वन प्रजातियों को ‘बादल वन पारिस्थितिकी’ (Cloud Forest Ecology) के रूप में जाना जाता है। ये इन पहाड़ों की तहों (वलन) और घाटियों में वृद्धि करते हैं। ये एक प्रकार के वृद्ध-वन हैं, जो वनस्पतियों तथा जीवों की कई स्थानिक व दुर्लभ प्रजातियों के पोषण में सहायक होते हैं।
  • बादल वन को ‘मॉन्टेन रेनफॉरेस्ट’ भी कहा जाता है। ये उष्णकटिबंधीय पर्वतीय क्षेत्रों की ऐसी वनस्पति होती है, जहाँ लगातार संघनन और अक्सर भारी वर्षा होती रहती है।
  • वृद्ध-वन को प्राथमिक वन या वन प्रचलन भी कहते हैं। ये एक ऐसे जंगल होते है, जो लम्बे समय से बिना किसी बड़ी बाधा के जीवित रहे हों और इनसे अद्वितीय पारिस्थितिक विशेषताएँ प्रदर्शित होती हैं, अत: इनको चरम समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक रूप से सीमित ये जंगल निवास स्थान की हानि और विनाश के कारण पहले से ही अधिक लुप्तप्राय प्रकार के वन हैं। हाल ही में हुई अत्यधिक वर्षा और भूस्खलन ने इन शेष बचे वनों पर एक बुरा प्रभाव डाला है।
  • इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित ‘मॉन्टेन घास या पर्वतीय घास के मैदान’ में भी बड़े भूस्खलन की घटनाएँ हुई हैं। मॉन्टेन घास के मैदान पहाड़ों के बड़े हिस्सों में पाए जाते हैं, जो उन सभी क्षेत्रों को कवर करते हैं जहाँ पर शोल वृद्धि नहीं कर पाते।
  • देशी टस्सॉक घास (Tussock Grasses) अत्यधिक ढलान पर भी मिट्टी को मज़बूती से रोके रखती है। तीव्र वर्षा के कारण इनके नष्ट होने से अपरदन और भूस्खलन में वृद्धि हो सकती है।

कारण

  • जलवायु परिवर्तन की भयावहता चरम मौसमी घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि कर रही है। इसका प्राथमिक कारण सड़कों व भवनों का अधिक निर्माण और पहाड़ी क्षेत्रों में कंक्रीट की सतह का प्रसार है।
  • हालाँकि, ऐसी जगहों पर भी बड़ी संख्या में भूस्खलन हुए हैं, जहाँ पर सड़कें और रास्तों का विकास कम हुआ है। अत्यधिक स्थाई शोला-चारागाह में अधिक संख्या में भूस्खलन का होना यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन एक ऐसे स्तर पर पहुँच गया है जो पारिस्थितिकी तंत्र और भूमि के लचीलेपन की क्षमता से परे है।
  • वैश्विक रूप से शहरी-औद्योगिक-कृषि परिसर के विकास के कारण लम्बे समय से पौधों की पारिस्थितिक आवरण में कमी हो रही है।
  • यदि जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापन तथा तीव्र मौसमी घटनाओं के मुख्य कारण को अनदेखा करके केवल विनाश के प्रत्यक्ष रूपों से जंगलों की रक्षा का प्रयास किया जाता है, तो वे जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पतन के लिये अधिक प्रभावी नहीं होंगे।
  • पिछले दो वर्षों के दौरान यह देखा गया है कि मानसून की अवधि में अधिकतर वार्षिक वर्षा कुछ ही दिनों में हो जाती है।

उपाय

  • नीलगिरि अभयारण्य में छोटी अवधि में लगातार वर्षा होने के बावजूद, पारिस्थितिक सुरक्षा से सम्बंधित मुद्दों के समाधान के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
  • भवन निर्माण और सड़क विस्तार के नियमों की समीक्षा के साथ-साथ उसको अपडेट करने और कड़ाई से पालन किये जाने की ज़रुरत है।
  • कुंधा हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर योजना तमिलनाडु में 10 बाँधों के साथ सबसे बड़े जल विद्युत उत्पादन प्रतिष्ठानों में से एक है। चरम वर्षा की घटनाओं के कारण इनमें और अधिक बड़े बाँधों व सुरंगों को जोड़ना विनाशकारी है। इन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जानी चाहिये।
  • साथ ही इन क्षेत्रों में बाढ़ की तीव्रता इतनी तेज़ हो गई है कि बाँध परिसर के भी टूटने का खतरा बढ़ गया है। इससे दोहरा संकट उत्पन्न हो गया है।
  • प्रत्यक्ष विनाश के खतरों से पारिस्थितिकी और जैव विविधता के शेष क्षेत्रों की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है। साथ ही विश्व भर के शहरी-औद्योगिक-कृषि परिसर, जहाँ से जलवायु संकट उपजा है, में भी भारी बदलाव की जरूरत है।

निष्कर्ष

चाहे दक्षिणी भारत में उच्च ऊँचाई वाले पठारों के घास के मैदानों में भूस्खलन की घटना हो या उत्तर भारत में हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने की घटना हो या मूँगा के नष्ट होने व समुद्र का स्तर बढ़ने जैसे ख़तरे, इन गम्भीर प्रभावों के परस्पर सम्बंध को समझना होगा और प्रकृति से सीखना होगा।

Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR