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किसान आंदोलन और खरीद प्रक्रिया

(प्रारम्भिक परीक्षा- राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से सम्बंधित विषय, जन वितरण प्रणाली- उद्देश्य, कार्य, सीमाएँ)

चर्चा में क्यों?

कृषि अधिनियम, 2020 के विरोध में उत्तर भारत में एक बार पुन: किसानों का प्रदर्शन शुरू हो गया है। किसान संगठनों ने इन अधिनियमों को वापस लेने की माँग की है।

प्रदर्शन और चिंताएँ

  • पंजाब और हरियाणा इस विरोध के केंद्र बिंदु है। पंजाब और हरियाणा के किसानों के विरोध का मुख्य कारण ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम’ है, जो राज्य सरकार द्वारा विनियमित कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) के बाहर भी फसलों की बिक्री और खरीद की अनुमति देता है।
  • किसानों की मुख्य चिंता अधिनियम में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को अनिवार्य न किये जाने तथा आने वाले समय में इसे ख़त्म करने की आशंका और अनाज की सार्वजनिक खरीद प्रक्रिया में बदलाव को लेकर है।
  • किसान नेताओं का मानना ​​है कि नवीनतम अधिनियम का मूल उद्देश्य भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर शांता कुमार की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों को लागू करना है।
  • वर्ष 2015 में प्रस्तुत इस रिपोर्ट में पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भारतीय खाद्य निगम की सभी खरीद संचालन गतिविधियों को राज्य सरकार की एजेंसियों को सौंपने को कहा गया था।
  • एक शंका यह भी है कि अनुबंध कृषि (Contract Farming) में किसानों का पक्ष कमज़ोर होगा और वे कीमतों का उचित निर्धारण नहीं कर पाएँगे। साथ ही, प्रायोजक न मिलने के कारण छोटे किसान अनुबंध कृषि कर पाने में असमर्थ होंगे। 
  • किसानों को डर है कि प्रभावशाली निवेशक उन्हें बड़े कॉर्पोरेट कानून फर्मों द्वारा तैयार किये गए प्रतिकूल अनुबंधों के लिये बाध्य करेंगे और इसमें देयताओं व दायित्वों से सम्बंधित ज़्यादातर मामलें किसानों की समझ से परे होंगें।
  • ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक’ के विरोध का बिंदु यह है कि अनिवार्य वस्तुओं पर भण्डारण की सीमा समाप्त कर देने से अब इनकी अधिक जमाखोरी होगी अर्थात् इन वस्तुओं को कम कीमत पर अधिक मात्रा में खरीदकर, कुछ समय पश्चात इन वस्तुओं की मांग में वृद्धि होने पर इन्हें अधिक कीमतों पर बेचा जा सकता है, जिससे उत्पादक और उपभोक्ता दोनों ही हानि उठाएंगे।
  • सरकार के अनुसार ये कानून किसानों को अपनी उपज को कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता देता है परंतु किसानों का कहना है कि इससे कृषि का निगमीकरण का होगा।

पंजाब और हरियाणा में कृषि: जीवन रेखा के रूप में

  • पंजाब और हरियाणा में किसान एम.एस.पी. के माध्यम से सार्वजनिक खरीद पर बहुत अधिक निर्भर हैं।
  • पंजाब और हरियाणा में धान उत्पादन का लगभग 88% और गेहूं उत्पादन का लगभग 70% (2017-18 और 2018-19 में) सार्वजनिक प्रक्रिया के माध्यम से खरीदा गया है।
  • इसके विपरीत आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य प्रमुख धान उत्पादक राज्यों में चावल उत्पादन का केवल 44% सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है।
  • साथ ही मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों में कुल उत्पादन का केवल एक-चौथाई (लगभग 23%) सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है।
  • यह पंजाब व हरियाणा में एम.एस.पी. और सार्वजनिक खरीद प्रणाली पर किसानों की भारी निर्भरता को दर्शाता है।

इन राज्यों में मंडियों की स्थिति

  • बिहार और उत्तर प्रदेश की मंडियों से पंजाब में प्रत्येक दिन लगभग 3-4 लाख टन धान पहुँचता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि पंजाब की मंडियों में बिक्री के लिये उपलब्ध धान की अधिकतम फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद लिया जाता है।
  • बिहार और यू.पी. में मंडियों के अधिक विकसित न होने के कारण व्यापारी कम मूल्य पर किसानों से धान खरीदते हैं और इसे पंजाब ले जाकर खरीद मूल्य से दोगुने (एम.एस.पी.) पर बेचते हैं।
  • इस प्रकार, पंजाब में अधिक कीमत पाने के लिये कमोडिटी व्यापारियों द्वारा अवैध विपणन चैनलों की कई रिपोर्टें सामने आई है।
  • पंजाब में 95% और हरियाणा में 70% से अधिक धान उगाने वाले किसानों को एम.एस.पी. का लाभ मिलता है, जबकि पश्चिम बंगाल में केवल 7.3% और यू.पी. में 3.6% किसान खरीद मूल्य पर धान बेचने में सक्षम हैं।
  • शायद यह भी एक कारण है कि नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का विरोध मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित है।
  • पूर्वोत्तर राज्यों में वर्ष 2018-19 में 7.3 मिलियन टन धान के उत्पादन के मुकाबले केवल 1.1 लाख टन धान की खरीद की गई। वहीं, पी.डी.एस. और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से 2.7 मिलियन टन धान वितरित किया गया। यदि इस क्षेत्र में उचित मात्रा में धान की खरीद होती, तो अन्य राज्यों से धान की ढुलाई का दबाव कम हो जाता।
  • यह खरीद प्रक्रिया के विस्तार और मज़बूती की आवश्यकता की ओर इशारा करता है।
  • कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) ने भी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और अन्य पूर्वी व पूर्वोत्तर राज्यों के साथ देश के सभी क्षेत्रों के सीमांत और छोटे किसानों को खरीद प्रक्रिया के अंतर्गत लाने की बात कही है।
  • किसानों के खरीद प्रक्रिया तक पहुँच न होने का कारण अन्य राज्यों में खरीद प्रक्रिया का पंजाब और हरियाणा की तरह बुनियादी ढाँचे का पर्याप्त विकास नहीं होना है।
  • देश में केवल 6% किसान ही अपनी फसल को एम.एस.पी. पर बेच पाते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि शेष 94% किसान खुले बाज़ार में विपणन से खुश हैं।

सरकार का दायित्व

  • यदि पंजाब व हरियाणा के किसानों को खरीद प्रणाली की आवश्यकता है, तो सरकार को इसकी और भी अधिक आवश्यकता है।
  • इसका कारण पी.डी.एस. और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत सरकार के दायित्व हैं। एन.एफ.एस.ए. के तहत प्रदान की जाने वाली सहायता कानूनी होने के साथ-साथ अधिकारों से भी सम्बंधित हैं।
  • लगभग 80 करोड़ एन.एफ.एस.ए. लाभार्थियों के साथ-साथ आठ करोड़ अतिरिक्त प्रवासी हैं जिन्हें पी.डी.एस. के माध्यम से सहायता की आवश्यकता है।
  • इस प्रकार, सरकार को पी.डी.एस. व्यवस्था बनाए रखने के लिये विशेष रूप से इन दोनों राज्यों से अनाज की निर्बाध आपूर्ति की आवश्यकता है।
  • पिछले तीन वर्षों में देश में कुल धान उत्पादन का लगभग 40% (45 मिलियन टन) और गेहूं उत्पादन का 32% (34 मिलियन टन) सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा पी.डी.एस. आपूर्ति के लिये खरीदा गया है।
  • कोरोना वायरस महामारी और प्रवासी संकट के कारण सरकार ने सार्वजनिक वितरण के लिये अधिक मात्रा का निर्धारण किया है जो देश के चावल उत्पादन का लगभग आधा (49%) और गेहूं उत्पादन का 35% हिस्सा है।
  • इसका मतलब है कि सरकार को पिछले वर्षों की तुलना में भारी मात्रा में अनाज खरीदने की जरूरत है और सरकार खुले बाज़ार में जाने का जोखिम नहीं उठा सकती है।

सुधार की आवश्यकता

  • यदि सरकार इतनी बड़ी मात्रा में अनाज खरीदना चाहती है तो उसे इन दोनों राज्यों की ओर रुख करने की जरूरत है। पिछले तीन वर्षों में लगभग 35% चावल और 62% गेहूं की खरीद इन राज्यों से हुई है। साथ ही, कुल मोटे अनाज का लगभग 50% इन दोनों राज्यों से ही आया है।
  • इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि सार्वजनिक खरीद प्रणाली को समाप्त करना न तो किसानों के हित में है और न ही सरकार के हित में।
  • इसलिये, यह जरूरी है कि सरकार किसान समूहों तक पहुंचे और उन्हें एम.एस.पी.-खरीद प्रणाली की अपरिहार्यता का आश्वासन दे। सरकार को उनकी जायज चिंताओं का निराकरण करते हुए इस पहल को लागू करने की जरूरत है।
  • किसी विनियामक तंत्र की अनुपस्थिति (निजी प्रयोजकों द्वारा निष्पक्ष कार्य-प्रणाली सुनिश्चित करने के लिये) और व्यापार क्षेत्र के लेन-देन में पारदर्शिता की कमी प्रमुख मुद्दे हैं जिन्हें तत्काल हल किये जाने की आवश्यकता है।
  • एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बनाने के लिये एक तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये। साथ ही, अन्य राज्यों के किसानों को पंजाब और हरियाणा की तरह विनियमित मंडियों के एक विशाल नेटवर्क की आवश्यकता है।
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