(मुख्य परीक्षा; सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-3; संरक्षण, पर्यावरण प्रदुषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
खाद्य एवं कृषि संगठन तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी ‘स्टेट्स ऑफ़ द वर्ल्डस फॉरेस्ट रिपोर्ट, 2020 में स्पष्ट किया गया है कि वर्ष 1990 के बाद से वनों की कटाई, रूपांतरण एवं भूमि के क्षरण के कारण लगभग 420 मिलियन हेक्टेअर वन नष्ट हो गए हैं। वनों की कटाई (1990-2020) के कारण विश्व स्तर पर वन क्षेत्र में लगभग 178 मिलियन हेक्टेयर की कमी आई है। भारत में विभिन्न भूमि उपयोगों के क्रम में लगभग 4.96 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र में कमी आई है।
प्रमुख बिंदु
- पृथ्वी के लगभग 30 प्रतिशत भूमि सतह पर वन क्षेत्र विस्तृत हैं। ये वन क्षेत्र पारिस्थितिक तंत्र एवं विविध प्रजातियों का संरक्षण करते हैं। ये जलवायु को स्थिर करने के साथ ही कार्बन उत्सर्जन को कम करने में सहायक है।
- वन क्षेत्र में वृद्धि के लिये विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों एवं राष्ट्रीय नीतियों के बावजूद वैश्विक वन आवरण में कमी आई है। वन क्षेत्र में कमी वृक्षारोपण एवं वन संरक्षण नीतियों के तेज़ी से लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यावरण की स्थिति में सुधार के उद्देश्य से 2021-2030 के दशक को पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के दशक के रूप में घोषित किया है।
- भारत की पर्यावरणीय, जलवायु तथा स्थलाकृतिक विविधता 10 जैव भौगोलिक क्षेत्रों और चार जैव-विविधता वाले हॉट-स्पॉट में विस्तृत है। यह क्षेत्र विश्व की ज्ञात वनस्पतियों और जीवों के लगभग 8 प्रतिशत को आश्रय प्रदान करते हैं।
- वैश्विक मानव आबादी की वनों पर बढ़ती निर्भरता ने पारिस्थितिक तंत्र पर अत्यधिक दबाव डाला है। इसके परिणामस्वरूप भारत में लगभग 41 प्रतिशत वनों का क्षरण हुआ है। इस समस्या के समाधान के उद्देश्य से भारत ‘बॉन चैलेंज’ में शामिल हुआ है। इसके अंतर्गत वर्ष 2030 तक 21 मिलियन हेक्टेअर वन भूमि को बहाल करने का लक्ष्य रखा गया था, बाद में इसे बढ़ाकर 26 मिलियन हेक्टेयर कर दिया गया है।
- बॉन चैलेंज के संदर्भ में भारत द्वारा पहली बार प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, देश में वर्ष 2011 से 2017 के मध्य लगभग 9.8 मिलियन हेक्टेयर खराब भूमि को बहाल किया गया। यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। हालाँकि, अभी भी शेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिये वनों की निरंतर कटाई तथा अन्य चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने की आवश्यकता है।
चुनौतियाँ
- वन पुनर्स्थापन और वृक्षारोपण कार्बन में कमी के माध्यम से वैश्विक तापन से निपटने की प्रमुख रणनीति है। हालाँकि, इसके लिये स्थानीय पारिस्थितिकी पर विचार करना आवश्यक है। स्थानीय पारिस्थितिकी पर विचार किये बिना वृक्षारोपण से स्थानीय जैव-विविधता को अधिक नुकसान हो सकता है।
- हाल ही में किये गए शोधों से ज्ञात हुआ है कि प्राकृतिक रूप से पुनर्जीवित वनों में अधिक सुरक्षित कार्बन भंडारण होता है। कम तकनीकी-संवेदनशील, लागत प्रभावी और अधिक जैव विविधता का संरक्षण होने के कारण प्राकृतिक वन बहाली को अधिक व्यापक रूप से स्वीकार किया जा रहा है।
- वनों की जैव-विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के कार्यों को बनाए रखने के लिये किसी भी बहाली के प्रयोग को लागू करने से पूर्व स्थानीय पारिस्थितिकी पर विचार करना आवश्यक है।
भारत में स्थिति
- भारत में लगभग 5.03 प्रतिशत वन संरक्षण क्षेत्र प्रबंधन के अधीन हैं। इन वनों के लिये विशिष्ट पुनर्स्थापन रणनीतियों की आवश्यकता है। अन्य क्षेत्रों में चराई, अतिक्रमण, आग एवं जलवायु परिवर्तन इत्यादि अनेक चुनौतियाँ विद्यमान हैं।
- वनों के पुनर्स्थापन के संबंध में किये गए अधिकांश शोध भारत के विविध पारिस्थितिक आवासों के साथ पूरी तरह संगत नहीं हैं। अतः स्थानीय रूप से उपयुक्त हस्तक्षेपों के लिये दिशा-निर्देश तैयार करने और भारत की वैश्विक प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिये पारिस्थितिक पहलुओं, स्थानीय अवरोध तथा वनों पर निर्भर समुदायों पर विधिवत विचार करने के लिये स्थानीय अनुसंधान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
- देश की आर्थिक संवृद्धि गरीबी को कम करने में सहायक रही है, परंतु इससे प्राकृतिक संसाधनों में निरंतर गिरावट एवं कमी हो रही है। स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र के पहले वैश्विक सम्मेलन में भारत ने गरीबी और पर्यावरणीय निम्नीकरण के मध्य संबंध को उजागर किया था।
- गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली भारत की लगभग 29 प्रतिशत आबादी में से स्थानीय आदिवासियों सहित लगभग 28.5 मिलियन लोग जीवन निर्वाह के लिये जंगलों पर निर्भर हैं।
आगे की राह
- वन क्षेत्र के लगभग 75 प्रतिशत भाग में चराई तथा लगभग 1.48 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में अतिक्रमण की समस्या भी स्थानीय समुदायों की आजीविका से संबंधित है। वनों पर यह निर्भरता सामाजिक एवं आर्थिक कारकों के साथ समस्या में कई गुना वृद्धि कर सकती है। इस समस्या के समाधान के लिये स्थानीय समुदायों की भागीदारी को बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन राशि एवं पुरस्कार आदि का सहारा लिया जाना चाहिये।
- वनों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये संयुक्त वन प्रबंधन समितियों का गठन करके उसमे स्थानीय लोगों को शामिल करने की उल्लेखनीय पहल की गई है। इसके अंतर्गत लगभग 20 मिलियन लोगों को 1,18,213 से अधिक संयुक्त वन प्रबंधन समितियों में शामिल किया गया है। इससे लगभग 25 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रबंधन संभव हो पा रहा है। इन समितियों में स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ाने तथा उन्हें अधिक गतिशील और प्रभावी बनाने के लिये समितियों की कार्यक्षमता तथा प्रदर्शन की समीक्षा आवश्यक है।
- पर्याप्त वित्त-पोषण की कमी वन पुनर्स्थापन के लिये प्रमुख चिंताओं में से एक है। पुनर्स्थापन के प्रयासों के लिये अभी तक कार्पोरेट क्षेत्र का योगदान मात्र 2 प्रतिशत रहा है। विभिन्न विभागों में चल रहे भूमि आधारित कार्यक्रमों के साथ वन पुनर्स्थापन गतिविधियों को जोड़कर, इसमें सहायता की जा सकती है।
- गैर सरकारी संगठनों सहित हितधारकों की सक्रिय भागीदारी, हितधारकों की जागरूकता एवं क्षमता निर्माण देश के 16 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में वन पुनर्स्थापन में सहायता कर सकते हैं।