क्या है : फ्रिटिलेरिया (Fritillaria) यानि क्षीरकाकोली एक औषधीय पौधा है, जो एक लुप्तप्राय बारहमासी प्रजाति है।
यह लिलिएसी वंश की सबसे महत्वपूर्ण पीढ़ी में से एक है।
वैज्ञानिक नाम : फ्रिटिलेरिया सिरोसा डी. डॉन (फिटिलारिया रोयली हुक)।
अन्य नाम : यह आयुर्वेद में आमतौर पर क्षीरकाकोली या जंगली लहसुन के नाम से प्रचलित है।
विशेषताएँ:
यह प्रजाति उभयलिंगी है तथा बीज कीड़ों द्वारा परागित होते हैं।
इसके तने 15-60 सेमी. लम्बे होते हैं।
फ्रिटिलेरिया में दोहरे निषेचन की खोज सर्वप्रथम सन् 1898 में एक रूसी जीवविज्ञानी सर्गेई नावाश्चिन द्वारा की गयी थी।
विस्तार
इस प्रजाति का विस्तार आमतौर पर उत्तरी गोलार्ध के समशीतोष्ण क्षेत्रों तक है।
भारत में विस्तार : यह पूर्वोत्तर भारत में 3000-4200 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय में अल्पाइन झाड़ियों, घास के मैदानों और नम स्थानों में पाई जाती है।
अन्य क्षेत्रों में विस्तार : फ्रिटिलेरिया की कुछ प्रजातियाँ साइप्रस, दक्षिणी तुर्की और चीन में भी दर्ज की गई हैं।
हालांकि, लिलिएसी वंश की आनुवंशिक विविधता का केंद्र ईरान में बताया गया है, जहां इसकी मध्य एशिया, काकेशस और भूमध्यसागरीय उपजातियां मिलती हैं।
महत्व
औषधि के रूप में : क्षीरकाकोली कंद का उपयोग ज्वर, हृदय रोग, कासा (श्वसन तंत्र का रोग), श्वास (अस्थमा) और वातव्याधि (वात खराब होने से होने वाला रोग) उपचार के लिए भारत के आयुर्वेदिक फार्माकोपिया में किया जाता है।
यह बहु जड़ी-बूटी सूत्रीकरण 'अष्टवर्ग' का महत्वपूर्ण घटक है, जिसका उपयोग च्यवनप्राश और दशमूलारिष्ट जैसे आयुर्वेदिक सूत्रीकरण में किया जाता है
मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्रों में इसकी अनेक प्रजातियों का उपयोग पारंपरिक रूप से जड़ी-बूटी के तौर पर किया जाता है।
आहार के रूप में: आमतौर पर अमेरिका के मूल निवासियों द्वारा फिटिलेरिया की कुछ प्रजातियों की भुनी हुई कंद का उपयोग भोजन के रूप में करते हैं।
अन्य उपयोग : क्षीरकाकोली की कंद के प्रमुख पौधा संघटक के रूप में स्टेरायडल एल्कलॉइड्स का पता चला है।
इसके अलावा, यह भावी समय में जैव रसायन, आनुवंशिकी, एपिजेनेटिक्स, कोशिका विज्ञान और अन्य क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।