(प्रारंभिक परीक्षा- अधिकार सम्बंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1, 2 व 4 : महिलाओं का सामाजिक सशक्तीकरण, न्यायपालिका में उनकी भूमिका, निजी और सार्वजनिक सम्बंधों में नीतिशास्त्र, गैर-तरफदारी व निष्पक्षता, कमज़ोर वर्गों के प्रति सहानुभूति तथा संवेदना)
संदर्भ
- हाल ही में, बलात्कार के एक मामले की सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश ने, मामले के निपटारे के लिये आरोपी को नाबालिग पीड़िता से विवाह का प्रस्ताव दिया।
- मामले के पारस्परिक सहमति से निपटाने सोच से प्रेरित मुख्य न्यायाधीश का यह दृष्टिकोण भारतीय समाज की परंपरागत पंचायत व्यवस्था का द्योतक है।
- यद्यपि न्यायाधीश के इस दृष्टिकोण की यह कहते हुए आलोचना की जा रही है कि न्यायालय की ऐसी सोच न्याय व्यवस्था की लैंगिक असंवेदनशीलता तथा पितृसत्तात्मक रुझान को प्रतिबिंबित करती है।
न्यायपालिका और लैंगिक असंवेदनशीलता
- संभव है कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा आरोपी से सुझाव रूप में पूछा गया यह प्रश्न संभवत: ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872’ की धारा 165 के तहत न्यायाधीशों को प्राप्त शक्तियों के अनुरूप पूछा गया हो, तथापि मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए न्यायपालिका ने इसमें तुरंत सुधार किया। फिर भी, मुख्य न्यायाधीश से माफी की माँग करना समुचित प्रतीत नहीं होता है।
- उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका के मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक आचरण समिति ने इज़रायल समर्थक टिप्पणी करने के लिये बिना शर्त माफी माँगने का निर्देश दिया था।
- वस्तुतः इसमें अधिक चिंता की बात ऐसे प्रश्नों को कानूनी दायरे में पूछना है क्योंकि बलात्कार जैसे अपराध कम गंभीर तथा समझौते योग्य नहीं हैं। यद्यपि, इस तरह के बयान भारतीय समाज एवं न्यायाधीशों की पितृसत्तात्मक मानसिकता और लैंगिक असंवेदनशीलता को प्रदर्शित करते हैं।
- इसी प्रकार, कुछ समय पूर्व एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा था, क्या पति-पत्नी की तरह रहने वाले दो लोगों के बीच ‘संभोग’ को ‘बलात्कार’ कहा जा सकता है? संबंधों के आधार पर बलात्कार की परिभाषा और उसका अर्थ परिवर्तित नहीं होने चाहिये।
- उल्लेखनीय है कि जे.एस. वर्मा समिति (2013) ने बलात्कार को महिला के सतीत्व या कौमार्य को भंग करने के रूप में नहीं बल्कि शारीरिक अखंडता और यौन स्वायत्तता के उल्लंघन के रूप में समझने की बात कही है। यह स्वायत्तता विवाह करने के बाद समाप्त नहीं हो सकती है।
क्या कहती है भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165?
- अधिनियम की धारा 165, प्रश्न करने या साक्ष्य प्रस्तुत करने का आदेश देने की शक्ति से संबंधित है। यह न्यायाधीश को किसी मामले में सच्चाई की तह तक जाने के उद्देश्य से व्यापक शक्ति प्रदान करती है।
- इसके अंतर्गत, न्यायाधीश किसी गवाह या पक्षकार से प्रश्न पूछने या किसी भी दस्तावेज़ आदि को पेश करने का आदेश दे सकता है। यह न्यायाधीश की विवेकाधीन शक्ति है।
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पितृसत्तात्मकता सोच से अछूती नहीं रही है न्यायपालिका
- कुछ वर्ष पूर्व, सर्वोच्च न्यायालय ने छेड़छाड़ के एक आरोपी को पीड़ित महिला से क्षमा माँगने और उस महिला द्वारा क्षमा कर देने की स्थिति में न्यायालय द्वारा कारावास की अवधि को कम कर देने की बात कही गई थी।
- विगत वर्ष कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी एक बलात्कार पीड़िता से रात्रि में कार्यालय जाने और आरोपी के साथ शराब का सेवन करने को लेकर प्रश्न उठाते हुए उसके कृत्यों को भारतीय महिलाओं के अनुरूप न होने की बात कही थी।
- इसी तरह के एक मामले में निर्णय देते हुए बंबई उच्च न्यायालय ने कहा था, यदि बलात्कार का आरोपी, पीड़िता को 1 लाख रुपए का भुगतान कर दे तो उसकी सज़ा में कटौती की जा सकती है। एक अन्य मामले में भी बंबई उच्च न्यायालय ने विवाह के वादे को तोड़ने को धोखा और बलात्कार नहीं माना था।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने बलात्कार के एक आरोपी को इसलिये जमानत दे दी थी ताकि वह पीड़िता के साथ समझौते के लिये बातचीत कर सके।
परंपरा और प्रथा का मामला
- राजस्थान के एक न्यायालय ने भँवरी देवी मामले में तर्क दिया था कि उच्च जाति के व्यक्ति द्वारा निम्न जाति की महिला से बलात्कार नही किया जा सकता है। साथ ही, पुरुष के अधिक उम्र के होने और अन्य संबंधियों की उपस्थिति के कारण बलात्कार की घटना संभव नही है। अभी भी इस फैसले के खिलाफ अपील का निपटारा नहीं किया जा सका है।
- गुवाहाटी हाईकोर्ट के वर्ष 2020 के एक फैसले में ‘सिंदूर न लगाने और चूड़ियाँ पहनने’ से मना करने को तलाक का पर्याप्त आधार माना था। कुछ समय पूर्व, मद्रास उच्च न्यायालय ने गुजारा भत्ता का दावा करने के लिये तलाक के बाद ‘यौन शुद्धता’ बनाए रखने का निर्देश दिया था।
- नरेंद्र बनाम के. मीणा (2016) मामले में, शीर्ष अदालत ने माना कि पत्नी द्वारा पति के परिवार के साथ रहने से इंकार करने पर पति हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत तलाक दे सकता है।
- साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि सामान्य परिस्थितियों में पत्नी से पति के परिवार के साथ रहने की अपेक्षा की जाती है और वह पति के परिवार का अभिन्न हिस्सा है। हालाँकि, पति के परिवार का अभिन्न हिस्सा होने के बावजूद भी पत्नियाँ ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम’ के तहत समान रूप से संपत्ति की उत्तराधिकारी नहीं हैं, जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत पत्नी को अपने लिये पृथक निवास की माँग करने का अधिकार है।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत महिला के प्रति क्रूरता गैर-जमानती और गैर-समझौता योग्य (Non-Compoundable) अपराध है, ताकि पीड़िता पर समझौते का दबाव न बनाया जा सके। ऐसे मामलों में अदालत के वारंट के बिना भी गिरफ्तारी हो सकती है, फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में क्रूरता के आरोप में स्वत: गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया है।
- जनवरी 2021 के एक मामले में, बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ ने अपने एक निर्णय में, एक 39 वर्षीय व्यक्ति द्वारा 12 वर्षीय नाबालिग लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उसके कपड़े उतारने यौन उत्पीड़न नहीं माना था। इस निर्णय की कड़ी आलोचना हुई थी, तत्पश्चात सर्वोच्च न्यायालय ने खंडपीठ के इस निर्णय पर रोक लगा दी थी।
भारत में महिला अपराध की स्थिति
- वर्ष 2018 में ‘थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन’ के एक सर्वेक्षण में भारत को महिलाओं के लिये अत्यधिक खतरनाक देश माना गया था। भारत में प्रत्येक घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 39 मामलों में चार मामले बलात्कार से संबंधित होते हैं।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, वर्ष 2019 में बलात्कार के 32,032 मामले दर्ज किये गए, अर्थात् एक दिन में बलात्कार की 88 घटनाएँ हुईं।
- एक दशक में रिपोर्ट किये गए बलात्कार के मामलों में 88% की वृद्धि दर्ज की गई है। साथ ही, वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के चार लाख मामले सामने आए।
निष्कर्ष
भारत के मुख्य न्यायाधीश और न्यायायिक प्रणाली पर प्रश्न उठाने की बजाय पितृसत्तात्मक मानसिकता को लक्षित करना अधिक बेहतर है। साथ ही, न्यायालय की प्रश्न पूछने की शक्ति भी लैंगिक संवेदनशीलता को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करने वाली नहीं होनी चाहिये।