(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2: विषय- गरीबी एवं भूख से संबंधित विषय। प्रश्नपत्र-3 : आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले विषय।)
संदर्भ
विश्व भर में शरणार्थी संकट के दौरान, महिलाएँ और लड़कियाँ सबसे अधिक संवेदनशील और असुरक्षित होती हैं। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (UNHCR) के अनुसार, 2023 में शरणार्थियों की कुल संख्या लगभग 35 मिलियन थी, जिसमें से लगभग 50% महिलाएँ और लड़कियाँ थीं।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने स्वीकार किया है कि विस्थापन का चेहरा महिला है। विस्थापन की लैंगिक प्रकृति महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ उनकी भलाई को भी प्रभावित करती है।
क्या आप जानते है?
2023 के अंत तक दुनिया भर में 11.73 करोड़ लोग उत्पीड़न, संघर्ष, हिंसा, मानवाधिकार उल्लंघन या अन्य घटनाओं के कारण जबरन विस्थापित हुए। इनमें से 3.76 करोड़ शरणार्थी थे।
भारत को ऐतिहासिक रूप से एक ‘शरणार्थी-प्राप्तकर्ता’ (refugee-receiving) राष्ट्र के रूप में माना जाता है, जिसने अपनी स्वतंत्रता के बाद विभिन्न समूहों के 200,000 से अधिक शरणार्थियों को शरण दी है।
31 जनवरी, 2022 तक 46,000 शरणार्थी और शरण चाहने वाले (asylum-seekers) UNHCR इंडिया में पंजीकृत थे।
शरणार्थी महिलाओं की समस्याएँ
सामाजिक और लैंगिक भेद्यता :सीमित वित्तीय संसाधनों के कारण शरणार्थी परिवार मानसिक स्वास्थ्य की तुलना में शारीरिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हैं और महिलाओं की तुलना में पुरुषों के स्वास्थ्य को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती हैं।
महिलाओं को अक्सर बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों की देखभाल सहित असंगत देखभाल संबंधी जिम्मेदारियां उठानी पड़ती हैं, जिससे उनका शारीरिक और भावनात्मक बोझ बढ़ जाता है।
प्रायः सबसे अंत में महिलाएं ही पलायन करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप विस्थापन के दौरान उन्हें हिंसा और शोषण का अधिक सामना करना पड़ता है।
यौन और लैंगिक हिंसा : शरणार्थी महिलाओं को यौन हिंसा, उत्पीड़न और शोषण का अधिक खतरा रहता है, जिसमें विशेष रूप से संघर्ष क्षेत्रों और शरणार्थी शिविरों में लेन-देन के लिए यौन संबंध जैसी प्रथाएं भी शामिल होती हैं।
मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियाँ :विस्थापित महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, जैसे- पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD), चिंता और अवसाद विकसित होने का जोखिम अधिक होता है, जो दर्दनाक अनुभवों , प्रियजनों की हानि और शिविरों में कठोर जीवन स्थितियों के कारण होता है।
स्वास्थ्य सेवाओं की कमी : शरणार्थी शिविरों में महिलाओं को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
लगभग 60% गर्भवती शरणार्थी महिलाएँ स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण प्रसव के दौरान जटिलताओं का सामना करती हैं। इसके अलावा, शरणार्थी शिविरों में मातृ मृत्यु दर सामान्य आबादी की तुलना में दोगुनी होती है।
भाषा संबंधी बाधाओं और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कलंक के कारण यह समस्या और भी गंभीर हो जाती है।
आर्थिक असुरक्षा और जीविका :UNHCR के आंकड़ों के अनुसार, शरणार्थी महिलाओं में से लगभग 70% अनौपचारिक रोजगार में काम करती हैं, जहां मजदूरी कम होती है और काम की सुरक्षा भी नहीं होती।
इसके अलावा, केवल 10% शरणार्थी महिलाएँ ही किसी स्थायी रोजगार में होती हैं, जिससे उनकी असुरक्षा बढ़ जाती है।
शिक्षा में व्यवधान :शरणार्थी शिविरों में लड़कियों की शिक्षा में भारी व्यवधान होता है। शरणार्थी लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर 50% से अभी अधिक है। इससे उनके दीर्घकालिक सशक्तिकरण और जीवन की गुणवत्ता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
कानूनी अधिकार और पहचान :शरणार्थी महिलाओं को कानूनी अधिकार और पहचान संबंधी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। लगभग 30% शरणार्थी महिलाओं के पास कानूनी पहचान नहीं होती जिससे उन्हें नागरिकता, संपत्ति अधिकार और कानूनी सेवाओं तक पहुँच में कठिनाई होती है।
इसके अलावा, कई महिलाएँ भूमि और संपत्ति के अधिकारों से भी वंचित होती हैं जिससे उनकी स्थिति और भी कमजोर हो जाती है।
वापसी और पुनर्वास : विस्थापन के बाद वापसी और पुनर्वास की प्रक्रिया में भी लिंग आधारित असमानताएँ देखी जाती हैं। महिलाओं के पास पुनर्वास के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुँच कम हो सकती है, जैसे कि भूमि अधिकार, वित्तीय सेवाएँ, और शिक्षा।
पुनर्वास के दौरान महिलाओं को अपने परिवार और समुदाय में पुन:स्थापना की कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, विशेष रूप से यदि वे हिंसा या दुर्व्यवहार की शिकार हुई हों।
शरणार्थी महिलाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून
शरणार्थी कन्वेशन,1951 और प्रोटोकॉल : यह कन्वेशन और इससे जुदा 1967 का प्रोटोकॉल शरणार्थियों के संरक्षण के लिए कानूनी आधार प्रदान करता है, लेकिन इसमें लिंग-विशिष्ट आवश्यकताओं को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया गया है।
विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCRPD) : 12 दिसंबर 2006 को अपनाएं गए इस कन्वेंशन में मनोवैज्ञानिक विकलांगता वाली महिलाओं सहित विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता दी गई है तथा समान व्यवहार को अनिवार्य बनाया गया है।
महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन (CEDAW): 18 दिसंबर 1979 को, संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन को अपनाया गया था।
यहशरणार्थी महिलाओं सहित महिलाओं को लिंग आधारित भेदभाव से बचाता है।
राष्ट्रीय कानूनी ढांचा
भारत ने यू.एन.सी.आर.पी.डी. की पुष्टि की है और विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (RPWDA) के माध्यम से विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को कानूनी गारंटी प्रदान की है।
RPWDA विकलांग महिलाओं को भी समान रूप से अधिकारों की गारंटी प्रदान करता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्वास्थ्य के अधिकार को शामिल करते हुए अनुच्छेद 21 के तहत शरणार्थियों के जीवन के अंतर्निहित अधिकार की लगातार पुष्टि की है।
हालांकि, शरणार्थियों की स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक पहुंच बेहद सीमित है और मुख्य रूप से सरकारी अस्पतालों तक ही सीमित है।
भारत 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल का पक्षकार नहीं है।
भारत में शरणार्थियों निम्नलिखित कानूनों के तहत विनियमित किया जाता है:
विदेशी अधिनियम, 1946 : केंद्र सरकार को अवैध विदेशी नागरिकों का पता लगाने, हिरासत में लेने और निर्वासित करने का अधिकार देता है।
पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 : संविधान के अनुच्छेद 258 (1) के अनुसार, अधिकारियों को अवैध विदेशियों को बलपूर्वक निर्वासित की अनुमति देता है।
विदेशियों का रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1939 : यह दीर्घकालिक वीज़ा (180 दिनों से अधिक) पर आने वाले विदेशी नागरिकों को आगमन के 14 दिनों के भीतर पंजीकरण अधिकारी के पास पंजीकरण को अनिवार्य करता है।
शरणार्थी महिलाओं की सहायता के लिए प्रयास
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) :यह शरणार्थियों, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं, को आश्रय, कानूनी सहायता तथा उनके अधिकारों की वकालत प्रदान करके उनकी सुरक्षा और सहायता के लिए कार्य करता है।
ग्लोबल कॉम्पैक्ट ऑन रिफ्यूजी (GCR) : 2018 में अपनाए गए जी.सी.आर. का उद्देश्य शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाना तथा महिलाओं और बच्चों जैसे कमजोर समूहों पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और रोजगार सहित सेवाओं तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करना है।
यूएन वूमेन पहल :यह संयुक्त राष्ट्र एजेंसी लैंगिक समानता और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए समर्पित है। यह शरणार्थी प्रतिक्रिया नीतियों में लैंगिक दृष्टिकोण को शामिल करने की वकालत करती है तथा लिंग आधारित हिंसा, आर्थिक सशक्तिकरण और नेतृत्व से संबंधित कार्यक्रमों के माध्यम से शरणार्थी महिलाओं को सहायता प्रदान करती है।
सतत विकास लक्ष्य (SDG): एजेंडा 2030 एसडीजी 5 (लैंगिक समानता) और एसडीजी 10 (असमानताओं में कमी) जैसे लक्ष्यों के माध्यम से शरणार्थियों और महिलाओं सहित कमजोर आबादी को सशक्त बनाने का प्रयास।
आगे की राह
व्यापक शरणार्थी कानून :शरणार्थी अधिकारों के लिए सभी देशों को संहिताबद्ध ढांचा स्थापित करने की आवश्यकता है।
भारत को शरणार्थियों के अधिकारों और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए व्यापक कानूनी प्रक्रिया की स्थापना करनी चाहिए, जिसमें लिंग-संवेदनशीलता और मानसिक स्वास्थ्य सहायता भी शामिल हो।
शरणार्थी महिलाओं तक बेहतर स्वास्थ्य पहुँच:हिंसा से पीड़ित महिलाओं के लिए आपातकालीन सहायता, चिकित्सा सेवाएँ और परामर्श सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए।
शरणार्थी शिविरों में मातृ और शिशु स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाने के लिए समर्पित स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करने चाहिए।
गर्भावस्था और प्रसव के दौरान महिलाओं को पोषण और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए विशेष कार्यक्रम चलाने चाहिए।
मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान :प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को एकीकृत किया जाना चाहिए।
शिक्षा : शरणार्थी शिविरों में लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता देने के लिए शिक्षा के विशेष कार्यक्रम शुरू करने चाहिए।
सामुदायिक सहभागिता और जागरूकता: शरणार्थी महिलाओं को समर्थन और उन्हें मेजबान समाजों में शामिल के दृष्टिकोण से सामुदायिक जागरूकता और सहभागिता को बढ़ावा देने का प्रयास।