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जियो-इंजीनियरिंग (GEO-ENGINEERING)

(प्रारंभिक परीक्षा : जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी- विकास एवं अनुप्रयोग, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ

विगत कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के उद्देश्य से नई शमन तकनीक के रूप में जियो-इंजीनियरिंग लगातार चर्चा में रही है। हालाँकि यह भी देखा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश लगाने की तमाम कोशिशों और जियो-इंजीनियरिंग के विकल्पों के बावजूद दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन कम नहीं हो पाया है। 

परिभाषा एवं प्रमुख बिंदु

  • ग्लोबल वार्मिंग के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के उद्देश्य से पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में किये जाने वाले सुधारात्मक हस्तक्षेप को जलवायु इंजीनियरिंग या जियो-इंजीनियरिंग या भू-अभियांत्रिकी कहते हैं। यह तकनीक प्रमुख रूप से तीन श्रेणियों; सौर विकिरण प्रबंधन(Solar Radiation Management), कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासन (Carbon dioxide Removal) और मौसम संशोधन (Weather Modification) के रूप में कार्य करती है।
  • किसी ग्रह के पर्यावरण को बदलने के लिये तथा उसे और अधिक रहने योग्य बनाने का विचार काफी पुराना है, जैसे ग्रहीय इंजीनियरिंग (पृथ्वी जैसी सतह देने के लिये किसी ग्रह की सतह को भौतिक रूप से बदलना)।
  • ग्रहों की इंजीनियरिंग के विपरीत, जियो-इंजीनियरिंग विशेष रूप से पृथ्वी पर केंद्रित तकनीक है।
  • मानव गतिविधियों के परिणामस्वरूप पृथ्वी कुछ गंभीर समस्याओं का सामना कर रही है। हालाँकि ग्लोबल वार्मिंग इन समस्याओं में सबसे प्रमुख है, लेकिन अन्य मुद्दों पर भी जियो-इंजीनियरिंग द्वारा समाधान खोजे जा रहे हैं। 

जियो-इंजीनियरिंग की विशिष्ट तकनीकें

जियो-इंजीनियरिंग की विशिष्ट तकनीकें निम्नलिखित हैं -

  • सौर जियो-इंजीनियरिंग (Solar geoengineering) - हवा में सल्फ़ेट का छिड़काव कर सूर्य की किरणों का कृत्रिम परावर्तन कर उनकी तीव्रता को कम करना।
  • महासागर उर्वरीकरण (Ocean fertilization) - समद्री वातावरण में लोहे या यूरिया डंपिंग द्वारा अधिक कार्बन अवशोषण के लिये फाइटोप्लांकटन के विकास को सक्षम बनाना।
  • क्लाउड ब्राईटनिंग (Cloud brightening) - बादलों को अधिक परावर्तक बनाने के लिये खारे पानी का छिड़काव।
  • ध्यातव्य है कि बहुत समय तक 'शुद्ध शून्य' उत्सर्जन प्राप्त करने के लिये प्रस्तावित सी.डी.आर. (Carbon dioxide Removal) प्रौद्योगिकियों द्वारा प्राकृतिक कार्बन चक्र में जानबूझकर हस्तक्षेप किया जाता था। प्रमुख सी.डी.आर. प्रौद्योगिकियाँ निम्नलिखित थीं - कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS), डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) और बायोएनर्जी विथ कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (BECCS) ।

 भारत और भू-अभियांत्रिकी

  • पूर्व में भारत में जियो-इंजीनियरिंग की पहल के रूप में लोहाफ़ेक्स (LOHAFEX) नामक प्रयोग किया गया था। इस प्रयोग से लोहे द्वारा महासागर का ऊर्वरीकरण किया गया था जिससे यह स्पष्ट हो सके कि क्या लोहा ‘एल्गल ब्लूम’ का कारण बन सकता है? और क्या यह वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर सकता है? 
  • लोहाफ़ेक्स, भारत के ‘वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद्’ (CSIR) और जर्मनी में हेल्महोल्त्ज़ फाउंडेशन (Helmholtz Foundation) द्वारा संयुक्त रूप से किया गया प्रयोग था।
  • लोहाफ़ेक्स के दौरान क्लोरोफिल के स्तर में वृद्धि के अलावा एल्गल ब्लूम की वजह से ज़ूप्लैंकटन का विकास भी देखा गया। ध्यातव्य है कि भोजन के लिये ज़ूप्लैंकटन एल्गल ब्लूम पर निर्भर होते हैं। ज़ूप्लैंकटन्स को बाद में बड़े समुद्री जीव खाते हैं।
  • इस प्रकार, लोहे द्वारा महासागर के ऊर्वरीकरण से समुद्री बायोमास में कार्बन स्थिरीकरण देखा गया था लेकिन अत्यधिक मत्स्यन की वजह से इसके प्रभाव अब कमज़ोर पड़ रहे हैं।

जियो-इंजीनियरिंग के अनपेक्षित परिणाम

  • जियो-इंजीनियरिंग के परीक्षणों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इन प्रयोगों के आशानुरूप परिणामों के लिये बहुत बड़े स्तर पर प्रयास करने होंगे, जिस वजह से अक्सर वैज्ञानिक या प्रयोगकर्ता पीछे हट जाते हैं या उन्हें वित्तपोषण की कमी पड़ जाती है।
  • ग्रहीय स्तर पर यदि प्रयोग किये भी जाएँ तो उनके गंभीर हानिकारक परिणाम होने का जोखिम भी रहता है। उदाहरण के लिये, सोलर जियो-इंजीनियरिंग, वर्षा के पैटर्न को बदल देती है, जो कृषि और पानी की आपूर्ति को बाधित कर सकती है। आर्कटिक के ऊपर के समताप मंडल में सल्फेट एरोसोल का छिड़काव एशिया में मानसून को बाधित कर सकता है और सूखे को बढ़ा सकता है।

भू-राजनीतिक चिंताएँ

  • जलवायु में हस्तक्षेप को परमाणु हथियारों की तरह ही बड़े स्तर पर विध्वंसक रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है।
  • यदि देश हानिकारक तूफानों के रास्तों को बदलने पर नियंत्रण हासिल कर लेते हैं, और तूफानों की दिशा अन्य देशों की ओर मोड़ने का प्रयास करते हैं तो यह कृत्य युद्ध के समान ही माना जाएगा।

निष्कर्ष

  • हम सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन पहले की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ रहा है। इसलिये जियो-इंजीनियरिंग को डीप-डीकार्बोनाइज़ेशन के कार्यक्रम के साथ जोड़ना चाहिये, इसके द्वारा पृथ्वी के “क्लीन अप प्रोसेस” में तेज़ी आएगी।
  • जियो-इंजीनियरिंग तकनीक की वजह से अन्य शमन उपायों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।
  • विशिष्ट प्रौद्योगिकियाँ जो नकारात्मक उत्सर्जन को प्राप्त करने में हमारी मदद कर सकती हैं, उन्हें सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित करने की आवश्यकता है और लोकतांत्रिक रूप से यह सुनिश्चित करने की ज़रुरत है कि वे सार्वजनिक हित में हों।
  • जियो-इंजीनियरिंग को सभी क्षेत्रों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के पूरक के रूप में ही देखा जाना चाहिये, विकल्प के तौर पर नहीं।
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