(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र- 2: भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव; प्रवासी भारतीय, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ)
पृष्ठभूमि
वर्तमान में, विश्व में सामरिक व भू-राजनीति परिदृश्य में तेज़ी से बदलाव देखे जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों में नए सिद्धांतों का उद्भव हो रहा है। इसकी शरुआत सोवियत विघटन के समय से देखी जा सकती है। चीन का उदय और अमेरिका की आतंरिक तथा संरक्षणवादी राजनीति अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों में नए-नए आयामों को जन्म दे रहे हैं। कोविड-19 ने इसमें अहम व तेज़ भूमिका निभाई है और वैश्विक स्तर पर कुछ नई प्रवृतियाँ देखी जा रही हैं।
एशिया का उदय
- पहली प्रवृति एशिया का उदय है, जिसको वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के दौरान एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में अधिक लचीलापन दिखाई दिया था।
- वर्तमान में भी, आर्थिक पूर्वानुमान यही बता रहे हैं कि जी-20 देशों में केवल चीन और भारत में ही वर्ष 2020 के दौरान आर्थिक वृद्धि दर्ज होकी सम्भावना है।
- आर्थिक इतिहासकारों ने इसकी अवश्यम्भाविता की ओर इशारा करते हुए कहा है कि 18वीं सदी तक, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में एशिया की हिस्सेदारी लगभग आधी थी।
- औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ यूरोपीय नौसेना के विस्तार और उपनिवेशवाद ने पश्चिम के उदय में योगदान दिया था, परंतु अब पुनः संतुलन स्थापित हो रहा है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप की तुलना में एशियाई देशों ने कोविड-19 महामारी से निपटने में अधिक तेज़ी व फुर्ती दिखाई है। यह केवल चीन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कई अन्य एशियाई देशों ने भी अधिक उत्तरदायित्त्व और प्रभावी क्षमता का प्रदर्शन किया है।
- परिणामस्वरूप, पश्चिम की तुलना में एशियाई अर्थव्यवस्थाओं में तेज़ी से सुधार होने की आशा हैं। साथ ही, पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएँ पर्यटन पर अधिक निर्भर करती हैं, ऐसे में इन पर व्यापक प्रभाव पड़ने की सम्भावना है।
अमेरिका का पतन
- दूसरी प्रवृत्ति लगभग एक दशक तक वैश्विक व्यवस्था को आकार देने में सबसे आगे रहने के बाद अमेरिका का पीछे हटना है।
- अमेरिका ने विश्वयुद्धों से लेकर शीतयुद्ध के दौरान पश्चिमी जगत का नेतृत्व करते हुए विश्व व्यवस्था को आकार देने में एक निर्णायक भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त, आतंकवाद, परमाणु हथियारों के प्रसार तथा जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों के विरुद्ध भी वैश्विक प्रतिक्रियाओं का मार्ग प्रशस्त किया।
- हालिया उदाहरणों से पता चलता है कि अफ़गानिस्तान और इराक में हस्तक्षेप अमेरिका के लिये ऐसे दलदल बन गए हैं जिनके चलते अमेरिका की घरेलू राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधनों में कमी आई है।
- राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ‘अमेरिका प्रथम’ (America First) की नीति पर ज़ोर दिया है। वर्तमान संकट के दौरान, दुर्लभ चिकित्सा उपकरणों और दवाओं की आपूर्ति सम्बंधी अमेरिकी कोशिशों और सम्बद्ध राज्यों में अनुसंधान व विकास में लगी बायोटेक कम्पनियों को अधिकार में लेने का तात्पर्य है कि अमेरिका अकेला पड़ सकता है।
- इसके अलावा, कई देश पहले से ही अमेरिकी नेतृत्व में विश्वास खो रहे थे, ऐसे में महामारी को नियंत्रित करने की उसकी अक्षमता के कारण अन्य देशों को भी अमेरिका की क्षमता पर विश्वास कम हो रहा है।
यूरोपीय संघ की एकता में दरार
- तीसरी प्रवृत्ति यूरोपीय संघ की आंतरिक चुनौतियों का जारी रहना है। इस आंतरिक व्यवधान से तीन कारक उत्पन्न होते हैं। प्रथम, पूर्वी यूरोपीय देशों को शामिल करने हेतु यूरोपीय संघ की सदस्यता का विस्तार। दूसरा, यूरोज़ोन के सदस्यों के बीच वित्तीय संकट का प्रभाव तथा तीसरा व अंतिम कारक ब्रेक्ज़िट मुद्दा है।
- पुराने व नए यूरोप के मध्य खतरों व आशंकाओं सम्बंधी धारणाएँ भिन्न-भिन्न हैं, जिससे रूस और चीन के साथ सम्बंध जैसे अन्य राजनीतिक मामलों में किसी समझौते तक पहुँचना मुश्किल हो जाता है।
- लोक-लुभावनवाद के उदय ने यूरो-संशयवादियों की आवाज़ को मज़बूती प्रदान की है। साथ ही, यूरोपीय संघ के कुछ सदस्यों को संकुचित व अनुदार लोकतंत्र के गुणों का समर्थन करने की अनुमति प्रदान की है।
- इस प्रवृति को यूरोज़ोन के भीतर उत्तर-दक्षिण विभाजन के रूप में और अधिक स्पष्टता से देखा जा सकता है। यह विभाजन तब देखा गया था जब यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ECB) द्वारा एक दशक पहले ग्रीस, इटली, स्पेन और पुर्तगाल पर आर्थिक मितव्यितता व सुधार सम्बंधी कठोर नियम लागू किये गए थे।
- इटली द्वारा महामारी का सामना करने के दौरान भी यूरोपीय संघ में एकजुटता का अभाव देखा गया। इस एकजुटता में दरार तब और गहरी हो गई जब इटली को यूरोपीय संघ के पड़ोसियों द्वारा निर्यात नियंत्रण उपायों के कारण चिकित्सा उपकरणों से वंचित कर दिया गया।
- शेंझेन वीज़ा (Schengen Visa) को भी महामारी के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैं। शेंझेन वीज़ा 90 दिन के लिये जारी किया जाने वाला एक 'शॉर्ट स्टे' वीज़ा होता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस एक ही वीज़ा का प्रयोग करके शेंझेन ज़ोन के अंतर्गत आने वाले 26 देशों में बिना रोक-टोक यात्रा की जा सकती हैं।
- यूरोपीय संघ को माल, सेवाओं, पूंजी और लोगों की मुक्त आवाजाही की सीमाओं को पुन:परिभाषित करने की आवश्यकता होगी। यह यूरोपीय संघ की साझी सम्प्रभुता के सिद्धांत का आधारभूत तत्त्व है।
चीन का उदय
- वर्ष 2001 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद से चीन की बढ़ती आर्थिक भूमिका को देखा जा सकता है।
- राष्ट्रपति शी ज़िनपिंग के नेतृत्व में इसमें और मुखरता देखी जा सकती है। शी ज़िनपिंग सत्ता के अभूतपूर्व केंद्रीकरण में संलग्न हैं। उन्होंने आह्वान किया है कि चीन का कायाकल्प अब वैश्विक ज़िम्मेदारियों को सम्भालने के लिये तैयार है।
- हाल के वर्षों में, अमेरिका-चीन सम्बंध सहयोग से प्रतिस्पर्धा की ओर बढ़ गए हैं। अब प्रौद्योगिकी और व्यापार युद्ध के साथ इन दोनों में टकराव तेज़ी से बढ़ रहा है।
- ‘बेल्ट और रोड पहल’ के रूप में चीन को समुद्री व भूमि दोनों मार्गों के माध्यम से यूरेशिया और अफ्रीका से जोड़ने के लिये बुनियादी ढाँचे के निर्माण में चीन द्वारा अरबों डॉलर का निवेश अमेरिका द्वारा किसी भी प्रकार के रोकथाम के प्रयास के विरुद्ध एक प्रकार का पूर्व सुरक्षात्मक कदम है।
- यद्यपि शी ज़िनपिंग का नेतृत्व सवालों के घेरे में है, अतः आक्रामक नीतिगत मामलों में कुछ नरमी देखी जा सकती है, परंतु अमेरिका के साथ टकराव की स्थिति बनी रहेगी।
बहुराष्ट्रीय संस्थानों की विफलता
- कोरोना संक्रमण से सम्बंधित रोकथाम और सूचनाओं के आदान-प्रदान में अंतर्राष्ट्रीय और बहुपक्षीय निकायों की भूमिका सवालों के घेरे में हैं।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) स्वास्थ्य संकट के विरुद्ध वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करने वाला एक स्वायत्त निकाय है, लेकिन यह राजनीति का शिकार हो गया है।
- अमेरिकी नेतृत्व ने हाल के दशकों में ब्रेटन वुड्स संस्थानों को मज़बूत करने का प्रयास किया है (विश्व बैंक वैश्विक स्वास्थ्य पर डब्ल्यू.एच.ओ. के बजट का लगभग 250% खर्च करता है) क्योंकि इन संस्थानों में अमेरिका की मतदान शक्ति इसे एक अवरोधक वीटो का अधिकार प्रदान करती है।
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, जी-7 और जी-20 जैसे समूह बिल्कुल असमर्थ हैं, जबकि विश्व वर्ष 1929 से भी बुरे मंदी के दौर का सामना कर रहा है। वास्तविकता यही है कि ये संस्थान हमेशा बड़ी शक्तियों की राजनीति का शिकार होकर उन्हीं के अधीन व अनुसार कार्य करते हैं।
- शीतयुद्ध के दौरान, अमेरिका-सोवियत प्रतिद्वंद्विता ने कई सम्वेदनशील मुद्दों पर सुरक्षा परिषद के कार्यों में अवरोध उत्पन्न किया है। वर्तमान समय में इसे एकबार फिर से प्रमुख शक्तियों की प्रतिद्वंद्विता का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
- डब्ल्यू.एच.ओ. जैसी एजेंसियों ने भी दशकों से अपनी स्वायत्तता खो दी है क्योंकि उनके बजट नियमित रूप से कम होते गए हैं। बजट की कमी ने उन्हें पश्चिमी देशों से बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक योगदान पर आश्रित होने के लिये मजबूर किया है।
- वर्तमान समय में बहुपक्षीय प्रतिक्रिया और कार्यवाही की कमी इन निकायों में लम्बे समय से महसूस की जा रही सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर देती है, परंतु सामूहिक वैश्विक नेतृत्व के बिना ऐसा सम्भव नहीं हो सकता है।
तेल की कीमतें
- पर्यावरण और ईंधन सम्बंधी दो प्रवृत्तियों ने ऊर्जा बाज़ार में काफी परिवर्तन किया है। इनमें से एक पहलू जलवायु परिवर्तन चिंताओं के कारण नवीकरणीय और हरित प्रौद्योगिकियों में बढ़ती रुचि है। दूसरा प्रमुख कारण, अमेरिका का एक प्रमुख ऊर्जा उत्पादक के रूप में उभरना है।
- कोविड-19 और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं ने ऊर्जा संघर्ष में और वृद्धि की है। तेल की कीमतों के निर्धारण में ‘ओपेक’ और ‘ओपेक प्लस’ जैसे संगठनों के अतिरिक्त अमेरिका भी प्रमुख भूमिका निभा रहा है। हाल ही में, इन्हीं तनावों के बीच अमेरिका ने पारम्परिक दोस्त सऊदी अरब की सुरक्षा में कमी की भी धमकी दी है।
- इस समय उभरती हुई आर्थिक मंदी और तेल की कीमतों में गिरावट पश्चिम एशियाई देशों में आंतरिक तनावों में वृद्धि करेंगे, जो पूरी तरह से तेल से प्राप्त राजस्व पर निर्भर हैं।
- पश्चिम एशिया क्षेत्र में लम्बे समय से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता ने प्रायः स्थानीय संघर्षों को जन्म दिया है। ये संघर्ष और वर्तमान परिस्थिति उन देशों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर सकते हैं जहाँ शासन की संरचना और स्थिति नाजुक है।
निष्कर्ष
भू-राजनीति के क्षेत्र में चल रही वर्तमान व नई प्रवृतियाँ कोरोना संकट से पूर्व भी वैश्विक परिस्थितियों में फ़ेरबदल कर रही हैं और महामारी के खत्म होने के बाद भी ऐसा जारी रहने की पूरी सम्भावना है। बढ़ता राष्ट्रवाद और संरक्षणवादी प्रतिक्रियाएँ आर्थिक मंदी को महामंदी में बदल देंगी तथा असमानता और ध्रुवीकरण में वृद्धि करेंगी। आगे का समय अत्यधिक अनिश्चिततापूर्ण व अशांत रहने की उम्मीद है।