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बढ़ती असमानता : चिंताजनक स्थिति

(प्रारंभिक परीक्षा- सतत् विकास, गरीबी, समावेशन)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : समावेशी विकास तथा इससे उत्पन्न विषय)

संदर्भ

महामारी के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे सुधार (Recovery) देखा जा रहा है परंतु यह सुधार केवल आंशिक हल प्रस्तुत करता है। इन सबके बीच सत्य यह है कि सभी देशों में आर्थिक असमानता में तेज़ी से वृद्धि हो रही है।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट

  • तीव्र रिकवरी- ऑक्सफैम की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के 1,000 सबसे धनी लोगों ने विश्व के सबसे गरीब लोगों के मुकाबले नौ महीने के भीतर महामारी से होने वाले नुकसान की भरपाई कर ली है, जबकि गरीबों को इसमें एक दशक का समय लग सकता है।
  • असमानता में वृद्धि- यद्यपि महामारी से पहले भी विश्व में असमानता बहुत अधिक थी जो सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को अस्थिर कर रही थी परंतु अर्थशास्त्रियों को इस बात का डर है कि इसमें और वृद्धि होना निश्चित है। सुधार की गति देशों के मध्य और देशों के अंदर असमान है।
  • भारत में असमानता- रिपोर्ट के अनुसार, भारत में असमानता का स्तर उपनिवेश के समय भारत में असमानता के स्तर पर पहुँच गया है। मार्च से भारत के 100 अरबपतियों द्वारा अर्जित अतिरिक्त आय 138 मिलियन गरीबों में से प्रत्येक को ₹94,045 देने के लिये पर्याप्त है।
  • पिछले वर्ष भारत में सबसे धनी व्यक्ति द्वारा एक सेकंड में जितनी आय अर्जित की गई है उतनी आय किसी अकुशल श्रमिक द्वारा अर्जित करने में तीन वर्ष लग जाएंगे।
  • असमानता का असमान प्रभाव- आय और अवसरों में बढ़ती असमानता कुछ वर्गों को लिंग, जाति और अन्य कारकों के आधार पर भेदभाव के कारण असमान रूप से प्रभावित करती है।

दृष्टिकोण की समस्या

  • आर्थिक विकास का प्रतिफल- दशकों से केवल विकास और संवृद्धि पर ध्यान केंद्रित करने से नीति-निर्माताओं ने बढ़ती असमानता को अपरिहार्य रूप से स्वीकार कर लिया है। असमानता को आर्थिक विकास के एक ऐसे अनचाहे परिणाम के रूप में देखा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निरपेक्ष गरीबी में कमी आई है।
  • लोकतंत्र से अधिक जुड़ाव- समाजवाद के उभार से भी असमानता के बारे में चिंताओं को आसानी से खारिज किया जा सकता है। विकास की बहस में पूँजीवाद की आलोचना को तब तक संदेह के साथ देखा जाता है, जब तक कि पूँजीवाद के कारण पैदा हुए किसी संकट को नजरअंदाज न किया जा सके। पूँजीवाद पर अधिक साहित्य लिखे जाने के साथ-साथ लोकतंत्र के साथ भी इसका जुड़ाव अब तेजी से बढ़ रहा है।
  • हालाँकि, विश्व भर के लोकतांत्रिक समाजों में क्रांति के रूप में इसके सामाजिक और राजनीतिक परिणाम देखे जा सकते हैं। उच्चतम संवृद्धि पर टिके किसी विकास मॉडल की पर्यावरणीय लागत भी स्पष्ट है।
  • आसान स्वीकारोक्ति- अर्थशास्त्रियों के बीच आसानी से अब इस बात को स्वीकार किया जाने लगा है कि पूँजी और श्रम के बीच नई आय का वितरण इतना एकतरफा हो गया है कि श्रमिकों को लगातार निर्धनता की ओर धकेला जा रहा है, जबकि धनी और अमीर होते जा रहे हैं।
  • ‘द ग्रेट रिसेट’ पहल- ‘द ग्रेट रिसेट’ विश्व आर्थिक मंच की एक पहल है, जिसका लक्ष्य संयुक्त रूप से और तत्काल प्रभाव से अधिक निष्पक्ष, टिकाऊ और लचीले भविष्य के लिये आर्थिक और सामाजिक प्रणाली का आधार बनाने की प्रतिबद्धता है, जबकि दूसरी ओर श्रम की लागत पर पूँजीवादी गतिविधियों के लिये उपाय किये जा रहें हैं, जैसे- महामारी के दौरान कई राज्यों में श्रम कानूनों में बदलाव किये गए हैं।
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