(प्रारंभिक परीक्षा : भारत की राजव्यवस्था; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : चुनाव, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम)
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायलय ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से उस जनहित याचिका पर जवाब माँगा है, जिसमें यह अनुमति माँगी गई थी कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव के समय ‘नोटा’ (NOTA) के पक्ष में अधिकतम मतदान होने पर वहाँ पुनः चुनाव कराए जाएँ।
जनहित याचिका की मुख्य बातें
- इस याचिका में यह माँग की गई गई थी कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव के समय ‘नोटा’ के पक्ष में सर्वाधिक मतदान होने अथवा मतदाताओं द्वारा सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत (Right To Reject) करने पर आयोग द्वारा चुनाव परिणाम रद्द किये जाएँ और वहाँ नए सिरे से चुनाव कराए जाएँ।
- याचिका में यह भी माँग की गई थी कि अस्वीकृत उम्मीदवारों को पुनः चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाए।
- याचिका में यह मत भी व्यक्त किया गया है कि उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार नागरिकों को असंतोष व्यक्त करने की शक्ति प्रदान करता है।
सर्वोच्च न्यायलय का पक्ष
- मुख्य न्यायधीशएस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ का मानना है कि सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने की स्थिति में संबंधित निर्वाचित क्षेत्र में किसी प्रतिनिधि के न रहने पर वैध संसद का गठन कठिन हो जाएगा और संसद का कार्य प्रभावित होगा
- सर्वोच्च न्यायलय ने इसे एक संवैधानिक समस्या बताते हुए कहा है कि याचिका में उल्लिखित सुझावों को स्वीकार करना संभव नहीं है।
क्या है ‘नोटा’?
- ‘नोटा’ (None Of The Above) का सामान्य अर्थ है; ‘इनमें से कोई नहीं’, अर्थात् चुनाव में मतदाता को उपलब्ध उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद न होने पर वह ‘नोटा’ यानी ‘इनमें से कोई नहीं’ के विकल्प का चुनाव कर सकता है।
- वस्तुतः ‘नोटा’ का विकल्प मतदाताओं को बैलेट पेपर या ई.वी.एम. में दर्ज सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने की शक्ति प्रदान करता है।
- भारत में सर्वप्रथम, वर्ष 2009 में चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायलय के समक्ष ‘नोटा’ का विकल्प प्रस्तुत करने की मंशा जाहिर की थी।
- इस प्रकार, ‘नोटा’ का प्रयोग पहली बार वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायलय द्वारा ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम भारत सरकार’ मामले पर दिये गए एक आदेश के बाद शुरू हुआ।
- हालाँकि, ‘नोटा’ के पक्ष में पड़े मतों की गणना करने की बजाय उन्हें रद्द मतों की श्रेणी में डाल दिया जाता है, अर्थात् ‘नोटा’ के मतों का चुनाव के परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
‘नोटा’ के पक्ष में तर्क
- ‘नोटा’ या उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार प्राप्त होने से राजनीतिक दल ईमानदार, योग्य तथा साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को ही टिकट देने के लिये मज़बूर होंगे। परिणामस्वरूप राजनीति से भ्रष्टाचार व अपराधीकरण जैसी बुराइयाँ दूर होंगी।
- ‘नोटा’ का अधिकार नागरिकों कोअधिक सशक्त बनाएगा और लोकतंत्र में उनकी भागीदारी बढ़ाएगा क्योंकि वे बिना किसी भय केअयोग्य उम्मीदवारों को लेकर अपना असंतोष व्यक्त कर सकते हैं।
- यह चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता तथा पवित्रता को भी सुनिश्चित करेगा, जिससे राजनीतिक दल बेहतर उम्मीदवार को चुनाव में उतारने के लिये प्रेरित होंगे।
- ‘नोटा’ की सहायता से मतदाताओं को दो भ्रष्ट उम्मीदवारों में से कमभ्रष्ट उम्मीदवार का चुनाव नहीं करना पड़ेगा, बल्कि वे अपने मत का सद्पयोग कर सकेंगे।
‘नोटा’ के विपक्ष में तर्क
- ‘नोटा’ केवल नकारात्मक मताधिकार देता है। इससे चुनाव में उम्मीदवार की जीतया हार पर कोई असर नहीं पड़ता। इसी कारण पूर्व चुनाव आयुक्त ने इसे दंतहीन विकल्प कहा है।
- वर्तमान नियमों पर आधारित ‘नोटा’ केवल एक प्रतीकात्मक तथा महत्त्वहीन विकल्प है जो मतदाताओं के मतों की अवहेलना करता है। इससे चुनाव में उनकी भागीदारी का कोई औचित्य नहीं रहता।
- ‘नोटा’ का विकल्प तभी कारगर सिद्ध होगा, जब मतदाताओं को निर्वाचन में भाग ले रहे उम्मीदवारों को ख़ारिज करने का अधिकार मिलेगा।
निष्कर्ष
वर्तमान में, ‘नोटा’ का विकल्प मतदाताओं को अपनी नापसंद के उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, किंतु इसका चुनाव के परिणामों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि अधिकतम मतदाताओं द्वारा अस्वीकृत करने के बावजूद कोई उम्मीदवार चुनाव जीत जाता है। यह एक प्रकार से लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है। ‘नोटा’ के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये आवश्यक है कि इसके अंतर्गत प्राप्त मतों पर विचार करते हुए निर्वाचन आयोग द्वारा इस दिशा में आवश्यक सुधार किये जाएँ।