(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी- संबंध, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
संदर्भ
हाल ही में, भारत और पाकिस्तान के मध्य संघर्ष-विराम समझौते की घोषणा हुई है। इसके बाद द्विपक्षीय संबंधों के स्थायित्व, महत्त्व और निहितार्थों के संदर्भ में चर्चाएँ शुरू हो गई हैं।
समझौते की शुरुआत
- दोनों देशों के सैन्य संचालन महानिदेशकों (Director Generals of Military Operations: DGsMO) ने 24/25 फ़रवरी की रात्रि से संघर्ष-विराम लागू होने की घोषणा की है। यह दोनों देशों के मध्य संबंधों में सुधार का संकेत है। इससे पूर्व, पाकिस्तानी सेना प्रमुख ने प्रत्येक क्षेत्र में शांति स्थापित करने की बात कही थी। दूसरी ओर, भारतीय सेना प्रमुख ने भी पाकिस्तान से बातचीत करने तथा सीमाओं पर शांति कायम करने का समर्थन किया है।
- इसके अतिरिक्त, भारत ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के विशेष विमान को श्रीलंका जाने के लिये अपना हवाई क्षेत्र प्रयोग करने की अनुमति दी है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भी दोनों देशों के बीच कश्मीर को ही एकमात्र विवाद का मुद्दा मानते हुए, बातचीत से इसका हल निकालने पर ज़ोर दिया है।
इस समझौते का महत्त्व
- यह समझौता दोनों पक्षों के मध्य अब तक किये गए नियमित संघर्ष-विराम समझौतों से कई रूपों में भिन्न है। इसकी दो वजहें हैं- पहली, यह दोनों देशों के डी.जी.एम.ओ. का संयुक्त बयान है और दूसरा, पिछली घोषणाओं के विपरीत इस समझौते में द्विपक्षीय संघर्ष-विराम की एक विशिष्ट तिथि का उल्लेख है। इस प्रकार, यह संघर्ष-विराम भारत और पाकिस्तान के मध्य विगत 18 वर्षों में किये गए महत्त्वपूर्ण सैन्य उपायों में से एक है।
- गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में वर्ष 2020 में युद्ध-विराम उल्लंघन की पाँच हज़ार से अधिक घटनाएँ हुईं, जो वर्ष 2002 के बाद से सर्वाधिक है। अत: यह कदम संघर्ष प्रबंधन के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- भारत के लिये दो-मोर्चों की चुनौतियों और पाकिस्तान व चीन द्वारा घेरने संबंधी चिंताओं के मद्देनज़र यह संघर्ष-विराम महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारत के लिये सीमा पर दो-तरफ़ा स्थाई चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटना हमेशा से कठिन रहा है। ऐसे में कम-से-कम एक मोर्चे पर चुनौती को टालने अथवा कम करने की आवश्यकता थी, जिसमें भारत सफल हुआ है।
संघर्ष-विराम : संक्षिप्त इतिहास
- अब तक दोनों देशों के मध्य हुए संघर्ष-विराम और युद्ध समाप्ति संबंधी समझौते जटिल होने के साथ-साथ अनुभव की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। वर्ष 1949 का कराची समझौता दोनों देशों के बीच पहला युद्ध-विराम समझौता था, जिसको संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में हस्ताक्षरित किया गया था। इससे कश्मीर में भारत-पाकिस्तान सीमा का निर्धारण हुआ, जिसे ‘युद्ध-विराम रेखा’ (CFL: Ceasefire Line) कहा गया। साथ ही, ‘संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह’ (UNMOGIP) को सी.एफ.एल. पर संघर्ष-विराम की निगरानी का कार्य सौंपा गया था।
- वर्ष 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का समापन भी संघर्ष-विराम से ही संभव हुआ, किंतु ताशकंद समझौते (जनवरी 1966) के पश्चात् युद्ध-पूर्व की यथास्थिति को बहाल किये जाने से सी.एफ.एल. में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
- वर्ष 1971 के युद्ध को समाप्त करने वाले संघर्ष-विराम (दिसंबर 1971) की शर्तों को शिमला समझौते (वर्ष 1972) में शामिल किया गया, जिसमें युद्ध-पूर्व स्थिति को बहाल नहीं किया गया था। इस निर्णय से सी.एफ.एल. में बदलाव हुआ, जो द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण था।
- वर्ष 1972 के सुचेतगढ़ समझौते के परिणामस्वरुप जम्मू और कश्मीर में 'नियंत्रण रेखा' अस्तित्त्व में आई। इस प्रकार, ‘सी.एफ.एल.’ का नाम ‘एल.ओ.सी.’ हो गया। इससे भारत न केवल कश्मीर में भारत-पाकिस्तान सीमा के नामकरण की पद्धति और जम्मू-कश्मीर में सीमा की भौतिक स्थिति के बदलाव में सफल हुआ, बल्कि इससे कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह की उपस्थिति भी अप्रासंगिक हो गई।
- इसके अतिरिक्त, कराची समझौते के विपरीत, संयुक्त राष्ट्र शिमला समझौते का पक्षकार भी नहीं था।
- उल्लेखनीय है कि वर्ष 2003 का संघर्ष-विराम समझौता दिसंबर 1971 के युद्ध-विराम समझौते की ही पुनरावृति थी, जबकि वर्तमान समझौता भी तकनीकी रूप से वर्ष 1971 के युद्ध-विराम समझौते का ही दोहराव है।
उचित क्रियान्वयन की आवश्यकता
- युद्ध-विराम के प्रभावी अनुपालन के लिये स्पष्ट नियम व मापदंडों के साथ-साथ परस्पर सहमति की भी आवश्यकता है। शिमला और सुचेतगढ़ समझौतों में ऐसे नियम निर्धारित नहीं किये गए थे, जबकि कराची समझौते में सी.एफ.एल. के प्रबंधन के बारे में स्पष्ट प्रावधान थे। वर्तमान समझौते में भी इसकी आवश्यकता है।
- अत: अगला कदम इस संघर्ष-विराम के लिये नियमों को तैयार करना है। अलिखित और शर्तरहित संघर्ष-विराम का उल्लंघन आसानी से हो जाता है, जिससे तनाव और अविश्वास में वृद्धि होती है।
- साथ ही, इस समझौते के अनुपालन में पिछले दृष्टिकोण के विपरीत सीमा के दोनों-तरफ सेनाओं की तैनाती को भी समाप्त किये जाने की आवश्यकता है।
बैक चैनल संपर्क का महत्त्व
- इस समझौते में बैक-चैनल के माध्यम से उच्च-स्तरीय संपर्क पर ध्यान देना एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस तरह के समझौतों को केवल सेना के अधिकारियों द्वारा अंतिम रूप नहीं दिया जा सकता, क्योंकि राजनीतिक सहमति से हुए समझौतों में स्थायित्व की संभावना अधिक होती है।
- सरकारों के स्तर पर बैक-चैनल वार्ता से कश्मीर जैसे मुद्दों पर भी अभूतपूर्व प्रगति देखी गई है। इसी प्रक्रिया के तहत, वर्ष 2007 में कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिये एक समझौते को लगभग अंतिम रूप दे दिया गया था।
- इस प्रकार, दोनों देशों की डी.जी.एम.ओ. स्तर की घोषणाओं ने राजनीतिक संपर्क के तथ्य को पुन: रेखांकित किया है।