(प्रारंभिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र 3: उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव।)
संदर्भ
वर्ष 1991 में आयात और औद्योगिक लाइसेंस के उन्मूलन के साथ भारत में आर्थिक सुधारों का दौर आरंभ हुआ, जिसके पश्चात् कई अन्य कानूनों और विनियमों को समाप्त कर दिया गया।
आर्थिक सुधारों से संबंधित धारणाएँ
- उद्योग जगत से दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं। एक समूह ने महसूस किया कि इससे अस्थिरता बढ़ेगी। उनका मानना था कि इससे आर्थिक उलटफेर होगा और अर्थव्यवस्था अस्थिर होगी।
- प्रतिक्रियाओं के दूसरे वर्ग ने उद्योगों पर प्रतिबंध हटाने का ज़ोरदार स्वागत किया। ये ऐसे कारोबारी घराने हैं, जो अनेक चुनौतियों का सामना करने के बावजूद बच गए और समृद्ध हुए।
आर्थिक सुधारों का प्रभाव
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश
आर्थिक सुधारों से संयुक्त उद्यम (JV) के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश हुआ। इन्होंने भारतीय भागीदारों पर पूरी तरह से ध्यान दिये बिना संयुक्त उपक्रमों को शीघ्रता से आरंभ करने के लिये आकर्षित किया, क्योंकि भारतीय कंपनियाँ नई तकनीकों और उत्पादों तक पहुँचने के लिये उत्सुक थीं।
उपभोक्ताओं की केंद्रीयता
- सुधारों ने उपभोक्ताओं को केंद्रीयता प्रदान की, जो वर्ष 1991 तक उपलब्ध नहीं थी।
- भारतीय उपभोक्ताओं को विकल्प दिये गए तथा विदेशी व भारतीय दोनों कंपनियाँ उनकी पहली पसंद बनना चाहती थीं।
- बाज़ार से नई माँग की वृद्धि ने परिदृश्य को बदल दिया तथा जी.डी.पी. ने प्रतिवर्ष 7 प्रतिशत की संवृद्धि दर्ज़ की।
प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि
- पहली बार, भारतीय कंपनियों को अन्य भारतीय और विदेशी कंपनियों से वास्तविक प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ा।
- कुछ भारतीय कंपनियों ने ‘लेवल प्लेयिंग फील्ड’ की तलाश में स्वयं को समायोजित करने के लिये और समय माँगा।
- हालाँकि, कई कॉरपोरेट्स ने खुद को पुनर्गठित किया और प्रतिस्पर्द्धी ताकतों में परिवर्तित हो गए।
- कम सीमा शुल्क और औद्योगिक लाइसेंस के समाप्त होने से संरक्षण समाप्त हो गया तथा जो भारतीय कंपनियाँ, इन आर्थिक सुधारों की प्रतीक्षा कर रही थीं, उनके लिये ये बेहतर अवसर साबित हुआ।
सरकार और उद्योग जगत में सहयोग
- वर्ष 1991 में एक और महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। पहले सरकार और उद्योगों के मध्य दूरी व्याप्त थी। दोनों में परामर्श अक्सर होते थे। ज़मीन पर जो हो रहा था, उस पर फीडबैक नियमित रूप से लिया जाता था। किंतु अब सरकार-उद्योग साझेदारी एक वास्तविकता बन गई।
- संभवतः, सुधारों द्वारा लाया गया सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उद्योग की ‘आकांक्षाओं’ से संबंधित था।
- विश्व स्तरीय होने का उत्साह और महत्त्वाकांक्षा थी और इसमें टी.सी.एस. इंफोसिस तथा विप्रो के नेतृत्व में आई.टी. उद्योग ने प्रमुख भूमिका निभाई।
- वे वैश्विक प्रतिस्पर्द्धियों के समक्ष खड़े रहे और सफल हुए। उन्होंने साबित किया कि भारतीय इंजीनियर और प्रबंधक दुनिया में सर्वश्रेष्ठ थे।
उद्यमिता और अवसंरचना क्षेत्र में अवसर
- वर्ष 1991 से एक और बड़ा परिवर्तन आया, जो उद्यमिता से संबंधित था। इसके अंतर्गत न केवल उद्योग के बड़े उद्यमी, बल्कि छोटे और मध्यम क्षेत्र के उद्योग भी इस नई ऊर्जा का हिस्सा बने।
- अवसंरचना क्षेत्रक हमेशा से सार्वजनिक क्षेत्र के संरक्षण में रहा है। इसमें भी परिवर्तन आया और निजी क्षेत्र को अपना योगदान देने के लिये आमंत्रित किया गया।
- इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक-निजी भागीदारी और सरकार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिये नीतियाँ बनाई गईं।
- अब बुनियादी ढाँचे का स्वामित्व, नियंत्रण और प्रबंधन अकेले सरकार के पास नहीं था।
बैंकिंग क्षेत्रक
- वर्ष 1969 में बैंकिंग का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था, लेकिन वर्ष 1991 के सुधारों ने एक नए निजी क्षेत्र के बैंक, एच.डी.एफ.सी. बैंक को जन्म दिया, जिसने सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक के प्रयासों के पश्चात् वर्ष 1994 में अपना कार्य आरंभ किया।
निजी क्षेत्रक
- उद्योग के नेतृत्व वाली एक पहल ने कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर पहली बार टास्क फोर्स के दिशा-निर्देश और रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसके बाद कई अन्य कार्यों और नीतियों का पालन किया गया।
- निजी क्षेत्र, जिसे वर्ष 1990 तक बहुत अलग तरीके से देखा जाता था, इसे सुधार प्रक्रिया के केंद्र में रखा गया था। यह क्षेत्रक तब से लगातार बढ़ रहा है।
निष्कर्ष
विगत 30 वर्षों में भारतीय उद्योग क्षेत्र ने अपनी वैश्विक पहुँच का विस्तार किया है। इसके उत्पाद और सेवाएँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी हैं। अतः कहा जा सकता है कि वर्ष 1991 से 2021 की अवधि परिवर्तनकारी रही है।