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अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी का दक्षिण एशिया पर प्रभाव

(प्रारंभिक परीक्षा: राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, संविधान तथा अधिकार संबंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2- भारत एवं इसके पड़ोसी-संबंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार से संबंधित विषय) 

संदर्भ

संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की है कि यू.एस.ए. 11 सितंबर, 2021 तक, जो 9/11 के आतंकी हमले की 20वीं वर्षगाँठ है, अपने सभी सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला लेगा।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि अमेरिका के इस कदम से अफगानिस्तान की आंतरिक राजनीति के साथ-साथ दक्षिण एशियाई देशों व अन्य समीपस्थ देशों पर भी व्यापक प्रभाव परिलक्षित होंगे। 

एशिया की क्षेत्रीय भू-राजनीति और यू.एस.ए.

  • माना जा रहा है कि अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान से प्रस्थान करने के साथ ही ‘अमेरिका’ पश्चिमी एशिया की अपेक्षा हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित करेगा, क्योंकि इस क्षेत्र पर विभिन्न महाशक्तियाँ प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं।
  • उल्लेखनीय है कि लगभग आधी सदी से ‘विस्तृत पश्चिमी एशियाई क्षेत्र’ में ब्रिटेन को प्रतिस्थपित कर यू.एस.ए. अपना दबदबा बनाए हुए है। असल में, यू.एस.ए. ही वह राजनीतिक धुरी है, जिसके चारों ओर क्षेत्रीय शक्तियाँ घूम रही हैं।
  • जब से एशियाई क्षेत्र का नेतृत्व पूर्ववर्ती यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों से स्थानांतरित होकर यू.एस.ए. के हाथों में गया है, तब से रूस तथा चीन इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व को समाप्त करने के लिये निरंतर प्रयासरत रहे हैं। लेकिन इन एशियाई महाशक्तियों की महत्त्वाकांक्षा से स्वयं को सुरक्षित रखने के लिये कई क्षेत्रीय शक्तियों ने यू.एस.ए. के साथ गठबंधन कर लिया।
  • अन्य क्षेत्रीय शक्तियों की भाँति भारत व पाकिस्तान का भी यही मत रहा है कि वृहत् पश्चिमी एशिया में यू.एस.ए. की भूमिका अपरिवर्तनीय ही रहेगी। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों के आलोक में इन दोनों देशों को यह समझना चाहिये कि यू.एस.ए. द्वारा यह क्षेत्र अब उतनी कुशलता से ‘प्रबंधित’ (Manage) नहीं किया जा सकेगा, जितनी कुशलता से वह अफगानिस्तान में उपस्थित रहकर कर रहा था।
  • पश्चिम एशियाई क्षेत्र में यू.एस.ए. लंबे समय से विभिन्न मुद्दों, जैसे– इज़रायल को सुरक्षा प्रदान करना, तेल आपूर्ति सुनिश्चित करना, अन्य शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना, क्षेत्रीय शांति स्थापित करना, आतंकवाद का दमन करना, लोकतंत्र को बढ़ावा देना आदि के आधार पर सैन्य-हस्तक्षेप करता रहा है।
  • लेकिन इस क्षेत्र में अत्यधिक समय व धनराशि खर्च करने के पश्चात् यू.एस.ए. को यह महसूस हो रहा कि पश्चिम एशिया में सदियों से चले आ रहे इन संघर्षों को समाप्त नहीं किया जा सकता है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि अब यू.एस.ए. की प्राथमिकता पश्चिम एशिया नहीं बल्कि चीन की कड़ी चुनौती का सामना करना है। 

पश्चिमी एशिया के समीकरण

  • जैसे ही यू.एस.ए. पश्चिमी एशिया से अपने कदम वापस खींचता है, ज़्यादातर क्षेत्रीय शक्तियों को या तो अपने पड़ोसियों से तनाव कम करने होंगे या उन्हें किसी वैकल्पिक शक्ति की तलाश करनी होगी।
  • हालाँकि रूस और चीन इस क्षेत्र में अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ पहले ही ज़ाहिर कर चुके हैं लेकिन दोनों में से किसी के पास भी यू.एस.ए. जैसा सामरिक भार वहन करने की क्षमता नहीं है। अतः वर्तमान परिस्थितियों में यही उचित होगा कि इस क्षेत्र की शक्तियाँ आपस में सामंजस्य स्थापित करें।
  • जहाँ तक इस क्षेत्र की एक अन्य शक्ति ‘तुर्की’ का प्रश्न है, उसकी अर्थव्यस्था इतनी मज़बूत नहीं है कि वह राष्ट्रपति एर्दोगन की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके। हालाँकि एर्दोगन ने लंबे समय से तुर्की को मुस्लिम जगत का नेता बनाने के लिये सऊदी अरब के समक्ष चुनौती प्रस्तुत की है, लेकिन हालिया घटनाएँ यह संकेत दे रही हैं कि वह अब सऊदी अरब के साथ शांति स्थापित करना चाहता है।
  • इसी क्षेत्र के दो चिर-प्रतिद्वंदी सऊदी अरब और ईरान, वर्षों की ‘कड़ी शत्रुता’ के बाद अब द्विपक्षीय तनाव तथा अपने ‘प्रॉक्सी’ संघर्षों को कम करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त सऊदी अरब, कतर को अलग-थलग करने की कोशिशों को कम करके खाड़ी देशों के मध्य विद्यमान दरार को भरने की भी कोशिश कर रहा है।
  • उक्त परिवर्तन विगत वर्षों में इस क्षेत्र के कुछ देशों, जैसे– संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को तथा सूडान द्वारा इज़रायल के साथ संबंधों को सामान्य करने की कोशिशों के परिप्रेक्ष्य में देखे जा सकते हैं। 

पश्चिम एशिया तथा पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध

  • तुर्की को छोड़कर अन्य पश्चिमी एशियाई देशों के साथ भारत के संबंधों में सुधार हुआ है। एर्दोगन के नेतृत्व में तुर्की ने अनेक बहुपक्षीय और द्विपक्षीय मंचो पर भारत का विरोध किया है। उम्मीद है कि नए समीकरण स्थापित होने के बाद, वह भारत के साथ संबंधों पर नए सिरे से विचार करने के लिये प्रेरित होगा।
  • वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप भारत यदि व्यावहारिक रुख अपनाता है तो पाकिस्तान को पश्चिमी एशियाई देशों के साथ संबंधों को सामान्य बनाने में बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
  • पाकिस्तान अपनी ‘घरेलू वैचारिक विवशताओं’ के कारण चाहकर भी यहूदी देश इज़रायल के साथ संबंध सामान्य नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त, वह अन्य पश्चिमी एशियाई देशों के आपसी संबंधों की खेमेबाजी का शिकार भी हो रहा है।
  • कुछ वर्ष पूर्व पाकिस्तान ने तुर्की और मलेशिया के साथ मिलकर ‘इस्लामिक ब्लॉक’ बनाने की घोषणा की थी, जो सीधे-सीधे सऊदी नेतृत्व को चुनौती देने के समान था। हालाँकि सऊदी अरब तथा यू.ए.ई. पर पाकिस्तान की आर्थिक निर्भरता के चलते पाकिस्तान ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
  • फरवरी 2021 में दिल्ली व रावलपिंडी (पाकिस्तान का सैन्य मुख्यालय) ने दोनों देशों के मध्य नियंत्रण-रेखा पर जारी तनावों को कम करने के लिये सीज़फायर की घोषणा की थी। यह कदम भी पश्चिम-एशियाई समीकरणों को प्रभावित कर सकता है।
  • इसके पश्चात् पाकिस्तान अब इस दुविधा में है कि अपने इस कदम को भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में किये गए संवैधानिक परिवर्तन से अलग करके कैसे देखा जाए? यह भी देखना होगा कि इसका भारत-पाकिस्तान संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 

यू.एस.ए. के सैनिकों की वापसी के बाद चुनौतियाँ

  • अफगानिस्तान से यू.एस.ए. के सैनिकों की वापसी के भारतीय उपमहाद्वीप के संबंध में व्यापक निहितार्थ हैं। दिल्ली और रावलपिंडी, दोनों चाहते हैं कि अफगानिस्तान में यू.एस.ए. की सैन्य उपस्थिति हमेशा बनी रहे। इसके पीछे दोनों से अपने पृथक-पृथक कारण हैं।
  • दिल्ली का मुख्य हित यह है कि यू.एस.ए. की सैन्य उपस्थिति अफगानिस्तान में अतिवादी शक्तियों को नियंत्रित रखेगी तथा भारत वहाँ एक रचनात्मक भूमिका निभा सकेगा। जबकि रावलपिंडी का मुख्य हित यह है कि यू.एस. सेना अफगानिस्तान में भौगोलिक पहुँच तथा परिचालन संबंधी सहायता हेतु पाकिस्तान पर निर्भर रहेगी तथा इसी निर्भरता का लाभ वह भारत के विरुद्ध लामबंदी में उठा सकेगा।
  • यू.एस.ए. के अफगानिस्तान से वापस जाने के बाद काबुल में तालिबान की वापसी का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके परिणामस्वरूप पूरे क्षेत्र में ‘हिंसक धार्मिक अतिवाद’ की घटनाओं में वृद्धि देखने को मिलेगी। अपने इस उद्देश्य की परिपूर्ति के लिये तालिबान सीमा-पार बैठे धार्मिक अतिवादियों से भी संबंध स्थापित करेगा, जो अंततः पूरे क्षेत्र में अशांति को जन्म देगा।
  • विगत कुछ दिनों में अफगानिस्तान हुई हिंसक घटनाओं में वृद्धि तथा मालदीव के स्पीकर पर हुआ आतंकी हमला, इन्हीं चुनौतियों को रेखांकित करता है। जब तक सभी दक्षिण एशियाई देश इस अतिवाद के विरुद्ध सामूहिक प्रतिरोध नहीं करते हैं, तब तक वे इसके विरुद्ध कमज़ोर ही रहेंगे। 

निष्कर्ष

अंततः यह कहा जा सकता है कि विस्तृत पश्चिमी एशिया में जारी उथल-पुथल भारतीय महाद्वीप के समक्ष आने वाली समस्यायों को रेखांकित कर रही है। पश्चिमी एशिया, दक्षिण एशिया तथा यूरोप के साथ पाकिस्तान के संबंधों को वहाँ की धार्मिक ताकतों द्वारा ‘दिशा’ दी जाती है। ध्यान रखना चाहिये कि सत्ता द्वारा अतिवादी ताकतों को शह नहीं देनी चाहिये, बल्कि कुचला जाना चाहिये।

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