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राजनीतिक दलों पर PoSh अधिनियम का कार्यान्वयन

मुख्य परीक्षा

(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा व बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय)

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने राजनीतिक दलों में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (Prevention of Sexual Harassment : PoSH) से संबंधित कानून लागू करने की मांग करने वाले याचिकाकर्ता से भारत निर्वाचन आयोग से संपर्क करने को कहा है।

हालिया वाद 

याचिकर्ता के तर्क 

  • याचिका में इस न्यायिक घोषणा की मांग की गई थी कि राजनीतिक दल कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) अधिनियम, 2013 या PoSH अधिनियम का अनुपालन करने के लिए बाध्य हैं, जिसमें आंतरिक शिकायत समिति का गठन भी शामिल है। 
  • याची के अनुसार राजनीतिक दलों के भीतर पारदर्शिता की कमी, अपर्याप्त संरचना एवं आतंरिक शिकायत समिति के असंगत कार्यान्वयन से ऐसी संस्कृति को बढ़ावा मिलता है जो महिलाओं की सुरक्षा एवं सशक्तीकरण को प्राथमिकता देने में विफल रहती है। 
  • यह एक व्यापक चुनौती को दर्शाता है जहाँ महिलाओं को राजनीतिक भूमिकाएँ निभाने में अनेक बाधाओं व हिंसा का सामना करना पड़ता है।
  • यह याचिका अनुच्छेद 32 का आह्वान करके मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायालय के असाधारण क्षेत्राधिकार की मांग करती है और यह सुनिश्चित करना चाहती है कि प्रतिवादी (जैसे राजनीतिक दल या संबंधित प्राधिकारी) आवश्यक कार्रवाई करें।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के एक निर्णय का हवाला दिया है जिसके अनुसार राजनीतिक दलों पर PoSH अधिनियम का अनुपालन करने का कोई दायित्व नहीं है क्योंकि उनमें नियोक्ता-कर्मचारी संबंध मौजूद नहीं है।
  • न्यायमूर्ति के अनुसार, राजनीतिक दलों के मामले में निर्वाचन आयोग सक्षम प्राधिकारी है और याचिकाकर्ता को चुनाव निकाय से संपर्क करने की सलाह दी। 

क्या है PoSH अधिनियम 

पृष्ठभूमि 

  • वर्ष 1992 में राजस्थान सरकार की महिला विकास परियोजना की एक सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी को एक वर्ष की बालिका का विवाह रोकने की कोशिश करने पर पाँच लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया।
  • वर्ष 1992 में राजस्थान में एक सामाजिक कार्यकर्ता के सामूहिक बलात्कार के संबंध में याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ‘कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न’ के खिलाफ ‘लैंगिक समानता के बुनियादी मानवाधिकार के प्रभावी प्रवर्तन के लिए अधिनियमित’ किसी भी कानून की अनुपस्थिति को देखते हुए वर्ष 1997 में दिशा-निर्देशों का एक सेट निर्धारित किया। 
    • इसे विशाखा दिशा-निर्देश नाम दिया गया, जिसका उद्देश्य किसी निश्चित एवं स्पष्ट कानून बनने तक वैधानिक शून्यता को भरना था।
  • विशाखा दिशा-निर्देशों का सभी कार्यस्थलों पर सख्ती से अनुपालन किया जाना था जो कानूनी रूप से बाध्यकारी था।
  • न्यायालय ने अनुच्छेद 15 (केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग एवं जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के विरुद्ध) तथा प्रासंगिक अंतर्राष्ट्रीय अभिसमयों एवं मानदंडों, जैसे- महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय की सामान्य अनुशंसाओं से प्रेरणा लेकर इसे तैयार किया था। 
    • महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय का भारत ने वर्ष 1993 में अनुसमर्थन किया था।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग ने वर्ष 2000, 2003, 2004, 2006 एवं 2010 में कार्यस्थल के लिए आचार संहिता के मसौदे प्रस्तुत किए। 
  • वर्ष 2007 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध महिलाओं की सुरक्षा विधेयक प्रस्तुत किया। संशोधित विधेयक 9 दिसंबर, 2013 को कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध एवं निवारण) या पॉश अधिनियम के रूप में लागू हुआ।

PoSH अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न, कार्यस्थल एवं कर्मचारी की परिभाषा

  • PoSH अधिनियम यौन उत्पीड़न को शारीरिक संपर्क एवं यौन प्रस्ताव, यौन पक्षपात (Favour) की मांग या अनुरोध, यौन रूप से अनुचित टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफी दिखाना और यौन प्रकृति का कोई अन्य शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक आचरण जैसे अवांछित कृत्यों के रूप में परिभाषित करता है।
  • इसमें यौन उत्पीड़न के संबंध में पाँच परिस्थितियों (कृत्यों) को भी सूचीबद्ध किया गया है- 
    • रोजगार में अधिमान्य उपचार का निहित या स्पष्ट वादा 
    • रोजगार में हानिकारक उपचार की निहित या स्पष्ट धमकी
    • वर्तमान या भविष्य की रोजगार स्थिति के बारे में निहित या स्पष्ट धमकी
    • काम में हस्तक्षेप या डराने वाला या आक्रामक या शत्रुतापूर्ण कार्य वातावरण बनाना 
    • स्वास्थ्य या सुरक्षा को प्रभावित करने की संभावना वाला अपमानजनक व्यवहार
  • इस अधिनियम के तहत सभी महिला कर्मचारी, चाहे वे नियमित, अस्थायी, अनुबंध पर, तदर्थ या दैनिक वेतन के आधार पर, प्रशिक्षु या प्रशिक्षु के रूप में या फिर मुख्य नियोक्ता की जानकारी के बिना कार्यरत हों, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के निवारण की मांग कर सकती हैं।
  • यह अधिनियम पारंपरिक कार्यालयों से परे ‘कार्यस्थल’ की परिभाषा का विस्तार करता है और सभी क्षेत्रों के सभी प्रकार के संगठनों, यहाँ तक कि गैर-पारंपरिक कार्यस्थलों (उदाहरण के लिए वे जिनमें दूरसंचार शामिल है) और कर्मचारियों द्वारा काम के लिए जाने वाले स्थानों को भी शामिल करता है। 
    • यह पूरे भारत में सभी सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के संगठनों पर लागू होता है।

नियोक्ताओं के लिए उपबंध 

  • कानून के अनुसार 10 से अधिक कर्मचारियों वाले किसी भी नियोक्ता को एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन करना होगा। 
    • इससे कोई भी महिला कर्मचारी औपचारिक यौन उत्पीड़न शिकायत दर्ज कराने के लिए संपर्क कर सकती है। 
  • ICC की अध्यक्षता एक महिला द्वारा की जानी चाहिए। इसमें कम-से-कम दो महिला कर्मचारी व एक अन्य कर्मचारी होना चाहिए। 
    • इसमें वरिष्ठ स्तर से किसी भी तरह के अनुचित दबाव को रोकने के लिए यौन उत्पीड़न की चुनौतियों से परिचित पाँच वर्ष के अनुभव वाले गैर-सरकारी संगठन कार्यकर्ता जैसे तीसरे पक्ष को शामिल किया जाना चाहिए। 
  • यह अधिनियम देश के प्रत्येक जिले को 10 से कम कर्मचारियों वाली फर्मों में काम करने वाली महिलाओं एवं अनौपचारिक क्षेत्र के घरेलू कामगारों, घर-आधारित कामगारों, स्वैच्छिक सरकारी सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि से शिकायतें प्राप्त करने के लिए एक स्थानीय समिति (LC) बनाने का आदेश देता है।
  • नियोक्ता को वर्ष के अंत में दर्ज यौन उत्पीड़न शिकायतों की संख्या और की गई कार्रवाई के बारे में जिला अधिकारी के पास वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट दाखिल करनी होगी। 
  • यह अधिनियम नियोक्ता को कर्मचारियों को अधिनियम के बारे में शिक्षित करने के लिए नियमित कार्यशालाओं एवं जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन करने तथा ICC सदस्यों के लिए संगोष्ठी आयोजित करने के लिए भी बाध्य करता है। 
  • यदि नियोक्ता ICC का गठन करने में विफल रहता है या किसी अन्य प्रावधान का पालन नहीं करता है, तो उसे 50,000 तक का जुर्माना देना होगा।

अधिनियम के कार्यान्वयन में बाधाएँ

आतंरिक समिति के गठन का अभाव

कुछ अध्ययन के अनुसार अधिकांश संस्थानों ने ICC का गठन नहीं किया है। जहाँ ICC की स्थापना की गई थी उनके पास या तो सदस्यों की संख्या अपर्याप्त थी या अनिवार्य बाहरी सदस्य की कमी थी।

जवाबदेहिता की कमी 

  •  कानूनी विशेषज्ञों और हितधारकों के अनुसार यह अधिनियम जवाबदेही को संतोषजनक ढंग से संबोधित नहीं करता है। 
    • यह कार्यस्थलों पर अधिनियम का अनुपालन सुनिश्चित करने तथा गैर-अनुपालन की स्थिति में जवाबदेही तय करने के लिए स्पष्ट प्रावधानों का उल्लेख नहीं करता है। 
    • सरकार ने वर्ष 2019 में संसद को बताया था कि कार्यस्थलों पर महिलाओं के उत्पीड़न के मामलों के बारे में उसके पास कोई केंद्रीकृत डाटा उपलब्ध नहीं है।
  • भारत की 80% से अधिक महिला श्रमिकों के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत होने के बावज़ूद कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के मामले भारत में कई कारणों से बहुत कम रिपोर्ट किए जाते हैं। 
  • कानून निर्माताओं ने माना था कि शिकायतों को नागरिक संस्थानों (कार्यस्थलों) के भीतर अधिक प्रभावी ढंग से संबोधित किया जा सकता है ताकि महिलाओं को पहुँच एवं समयबद्धता से संबंधित आपराधिक न्याय प्रणाली की कठिन प्रक्रियाओं से न गुजरना पड़े। 
    • हालाँकि, इस संदर्भ में स्पष्टता की कमी है। 
  • महिला कर्मचारियों में ऐसी समितियों के बारे में जागरूकता की कमी की वजह से न्याय प्रणाली से जुड़ी पहुँच संबंधी बाधाएँ और भी बढ़ गई हैं। 
  • संगठनों की शक्ति गतिशीलता और पेशेवर परिणामों का डर भी महिलाओं के लिए शिकायत दर्ज करने के रास्ते में बाधक है।
  • यौन उत्पीड़न के मामलों में प्राय: ठोस सबूतों (साक्ष्यों) की कमी होती है जबकि न्यायिक प्रणाली सबूतों पर ज़्यादा भरोसा करती हैं। 

आगे की राह

  • ICC या LC द्वारा की जाने वाली जाँच में न्यायपालिका की तरह ‘प्राकृतिक न्याय’ के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए। 
  • हितधारकों के साथ-साथ सक्षम समिति की रिपोर्ट (2010) के अनुसार आतंरिक समिति के लिए उचित प्रक्रिया की आवश्यकता कानूनी प्रणाली द्वारा नियोजित की गई आवश्यकता से अलग होनी चाहिए, जिसमें लैंगिक भेदभाव के रूप में यौन उत्पीड़न की प्रकृति को ध्यान में रखा जाना चाहिए क्योंकि महिलाएँ पितृसत्तात्मक प्रणालियों में असमान रूप से प्रभावित होती हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र, राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे समयबद्ध तरीके से यह सत्यापित करें कि मंत्रालयों, विभागों, सरकारी संगठनों, प्राधिकरणों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, संस्थानों, निकायों आदि ने इस अधिनियम के तहत आंतरिक शिकायत समितियों (ICCs), स्थानीय समितियों (LCs) व आंतरिक समितियों (ICs) का गठन किया है या नहीं। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से निकायों को अपनी-अपनी समितियों का विवरण अपनी वेबसाइटों पर प्रकाशित करने का आदेश दिया है।
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