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अभिरक्षा में होने वाली मौतों में तकनीक की सार्थकता

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-2 : शासन व्यवस्था, पारदर्शिता एवं जवाबदेही और संस्थागत व अन्य उपाय)

संदर्भ

पुलिस अभिरक्षा (हिरासत) में होने वाली मौतों के मामले में भारत का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। वर्ष 2001 से वर्ष 2018 के दौरान पुलिस हिरासत में 1,727 लोगों की मौत हुई। हालाँकि, इन मौतों के लिये केवल 26 पुलिसकर्मियों को ही दोषी पाया गया। हिरासत में हुई मौतों की हालिया घटनाओं ने एक बार पुन: पूछताछ के दौरान पुलिस द्वारा प्रयोग किये जाने वाले तरीकों की कमियों को उजागर किया है।

वर्ष

हिरासत में मौतें

पुलिस यातना के कारण

2018

70

4.3%

2017

100

5.0%

2016

92

8.7%

2015

97

6.2%

2014

93

9.7%

संबंधित आँकड़ें 

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वार्षिक रिपोर्ट के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि वर्ष 1996-97 से 2017-18 तक हिरासत में होने वाली कुल मौतों में से 71.58% पीड़ित समाज के गरीब या हाशिये पर स्थित वर्ग से संबंधित थे।
  • विगत छह वर्षों में भारत में न्यायिक हिरासत से सर्वाधिक मौतें उत्तर प्रदेश में दर्ज की गई हैं। दक्षिण भारतीय राज्यों में तमिलनाडु शीर्ष पर है। 
  • उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस अवधि के दौरान ऐसे एक भी मामले में अभियोजन (Prosecution) की सिफारिश नहीं की है और 0.2% मामलों में ही अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की गई थी। 
  • न्यायिक हिरासत में दर्ज की गई मौतें की संख्या पुलिस हिरासत में दर्ज मौतों की तुलना में कहीं अधिक थीं।

पुलिस अभिरक्षा बनाम न्यायिक अभिरक्षा  

  • किसी पुलिस अधिकारी द्वारा जब एक व्यक्ति को संज्ञेय अपराध करने के संदेह में गिरफ्तार (Arrest) किया जाता है, तो उस व्यक्ति को हिरासत में (Custody) लिया गया बताया जाता है। 
  • पुलिस हिरासत का उद्देश्य अपराध के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिये संदिग्ध से पूछताछ करने के साथ-साथ सबूतों को नष्ट करने व गवाहों को प्रभावित करने से बचाना है। यह हिरासत मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक समय तक नहीं हो सकती।
  • पुलिस हिरासत में आरोपी की शारीरिक (भौतिक) हिरासत होती है। इसलिये पुलिस हिरासत में भेजे गए आरोपी को पुलिस स्टेशन में रखा जाता है ताकि पूछताछ के लिये पुलिस की पहुँच आरोपी तक हर समय हो।
  • न्यायिक हिरासत में, आरोपी मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और उसको ज़ेल भेजा जाता है। न्यायिक हिरासत में रखे गये अभियुक्त से पूछताछ के लिये पुलिस को सम्बंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी।
  • सामान्यत: पुलिस हिरासत केवल 15 दिनों तक ही बढ़ाई जा सकती है लेकिन न्यायिक हिरासत 90 दिनों तक बढ़ाई जा सकती है।

यातना-विरोधी कानून की आवश्यकता का परीक्षण

  • भारतीय दंड संहिता में ‘यातना’ (Torture) को परिभाषित नहीं किया गया है, किंतु ‘प्रताड़ना’ (Hurt) व ‘गम्भीर प्रताड़ना’ (Grievous Hurt) की परिभाषाएँ स्पष्ट की गईं हैं।
  • हालाँकि, ‘प्रताड़ना’ की परिभाषा में मानसिक यातना को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन भारतीय न्यायालयों ने यातना के दायरे में मानसिक यातना, स्वाभाविक रूप से बल प्रयोग करना या ज़बरदस्ती करना, थका देने वाली लंबी पूछताछ के साथ-साथ लोगों में घबराहट पैदा करने व भयभीत करने वाले तरीकों को शामिल किया गया है।

तकनीक का प्रभावी प्रयोग

बॉडी कैमरा एवं अन्य परीक्षण

  • बॉडी कैमरा और ऑटोमेटेड एक्सटर्नल डीफिब्रिलेटर आदि जैसे तकनीकी समाधान का उपयोग इसमें अत्यधिक प्रभावी हो सकता है।
  • सामान्य तौर पर प्रौद्योगिकी पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों को रोकने में मदद कर सकती है। उदाहरण के लिये, बॉडी कैमरे के उपयोग से अधिकारियों में उत्तरदायित्व की भावना में वृद्धि होगी। 
  • पॉलीग्राफ, नार्को-विश्लेषण और मस्तिष्क मानचित्रण जैसी तकनीकों का उपयोग किसी आरोपी के अपराध के बारे में सटीकता से पता लगाने में किया जा सकता है।

ब्रेन फ़िंगरप्रिंटिंग सिस्टम (BFS)

  • ब्रेन फ़िंगरप्रिंटिंग सिस्टम एक नवीन तकनीक है। इसे कई पुलिस बलों के खोजी उपकरणों में जोड़ने पर विचार किया जा रहा हैं। यह तकनीक जटिल अपराधों को सुलझाने, अपराधियों की पहचान करने और निर्दोष संदिग्धों को बरी कराने में सहायक सिद्ध हुई है।
  • उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्ययालय ने अभी तक बी.एफ.एस. को पूर्ण रूप से मान्यता नहीं दी है किंतु इसे एक सटीक मापक या सामग्री साक्ष्य के तौर पर परिभाषित किया है। उच्चस्तरीय तकनीक होने के कारण बी.एफ.एस. कई राज्यों में महंगी और अनुपलब्ध है।

रोबोट का उपयोग

  • वर्तमान में निगरानी और बम का पता लगाने के लिये पुलिस विभाग तेजी से रोबोट का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त कई विभाग अब संदिग्धों से रोबोटिक पूछताछ की अनुमति चाहते हैं। कई विशेषज्ञों का मानना हैं कि रोबोट, मानव पूछताछकर्ता की क्षमताओं को पूरा कर सकते है।
  • ए.आई. और सेंसर तकनीक से लैस रोबोट मानवीय भावनाओं और बॉडी लैंग्वेज जैसी प्रेरक तकनीकों का उपयोग कर संदिग्धों से आत्मीय रूप से पूछताछ कर सकते हैं। 

अवतार

  • एरिज़ोना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने ‘वास्तविक-समय में सत्यता आकलन के लिये स्वचालित वर्चुअल एजेंट’ (The Automated Virtual Agent for Truth Assessments in Real-Time : AVATAR) नामक स्वचालित पूछताछ तकनीक विकसित की है।
  • कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग (ML) पूछताछ के उपकरण के रूप में उभर रहे हैं। 

कार्यपद्धति 

  • मानव-कंप्यूटर संयोजन प्रणाली पूछताछ के दौरान किसी संदिग्ध की आंखों की गतिविधियों, आवाज और अन्य गुणों की जांच करने के लिये दृश्य, श्रवण, निकट-अवरक्त और अन्य सेंसर का उपयोग करती है। 
  • ए.आई. मानवीय भावनाओं का पता लगाने और व्यवहार की भविष्यवाणी करने सक्षम है। पुलिस द्वारा संदिग्धों से अमानवीय व्यवहार करने पर मशीन लर्निंग वास्तविक समय में सतर्क कर सकता है।

वैध चिंताएं

  • कानूनी और नैतिक रूप से ए.आई. या रोबोट पूछताछ के बारे में बहुत चिंताएँ हैं। इसमें पूर्वाग्रह का जोखिम, स्वचालित पूछताछ रणनीति का जोखिम, व्यक्तियों और समुदायों को लक्षित मशीन लर्निंग एल्गोरिदम का खतरा तथा निगरानी के लिये इसके दुरुपयोग आदि का खतरा शामिल है।
  • यह उन अंतर्निहित मुद्दों को संबोधित नहीं करता है जो इन स्थितियों (हिरासत में होने वाली मौतों) को जन्म देते हैं।
  • वर्ष 2010 में उच्चतम न्यायालय ने ‘सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य’ मामले में बी.एफ.एस. सबूतों को अस्वीकार्य करार दिया। न्यायालय के अनुसार, राज्य किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसका नार्को विश्लेषण, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग परीक्षण नहीं कर सकता है।

आगे की राह

  • वर्तमान समस्याओं के निवारण के लिये कानूनी अधिनियमों, प्रौद्योगिकी, जवाबदेही, प्रशिक्षण और सामुदायिक संबंधों को शामिल करते हुए एक बहु-आयामी रणनीति की आवश्यकता है। 
  • संदिग्धों को प्रताड़ित न करने के लिये सबूत की जिम्मेदारी पुलिस पर डालने के लिये साक्ष्य अधिनियम में संशोधन के लिये वर्ष 2003 में भारत के विधि आयोग का प्रस्ताव इस संबंध में महत्वपूर्ण है।
  • इसके अतिरिक्त, डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1997) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस संबंध में दिशानिर्देश जारी किये गये। 
  • साथ ही, वर्ष 2017 के अत्याचार रोकथाम संबंधी मसौदा विधेयक को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। 
  • प्रौद्योगिकी पुलिसिंग को अधिक सुविधाजनक बना सकती है, किंतु यह पुलिस और नागरिकों के बीच स्थापित विश्वास का कभी विकल्प नहीं हो सकती है।
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