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भारत-चीन सीमा विवाद और पैकेज डील

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: भारत एवं इसके पड़ोसी संबंध)

संदर्भ 

  • क्षेत्रीय (सीमा) विवाद अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष के सबसे मुख्य कारणों में से एक है। यह भारत-पाकिस्तान सहित इज़राइल-फिलिस्तीन एवं रूस-यूक्रेन संघर्षों के हालिया उदाहरणों से पता चलता है। इस श्रेणी में 2,100 मील लंबी भारत-चीन विवादित सीमा भी शामिल है। 
  • दो बार चीन एवं भारत को ‘पैकेज डील’ के माध्यम से अपनी विवादित सीमा को सुलझाने का मौका मिला किंतु घरेलू राजनीति ने इसमें समस्या पैदा की है। पैकेज डील में प्राय: आपसी लेन-देन शामिल होता है। 

भारत-चीन सीमा विवाद में ब्रिटेन की भूमिका 

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य ने जानबूझकर तिब्बत को एक ‘बफ़र राज्य’ के रूप में बनाए रखा था। 
    • इससे उनको आवश्यकता पड़ने पर क्षेत्रीय उदारता का दावा करने की अनुमति मिल गई, जबकि ब्रिटेन के शक्ति प्रतिद्वंद्वी इस क्षेत्र में पैर जमाने से वंचित रह गए।
  • वर्ष 1949 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा करने के बाद से ही दो उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्र (भारत-चीन) ऐतिहासिक रूप से विवादित एवं अनिर्धारित सीमा के साथ पड़ोसी बन गए।

दोनों देशों का दृष्टिकोण 

  • भारत एवं चीन दोनों को ही सीमा की विवादित प्रकृति के बारे में जानकारी थी। 
    • हालाँकि, कोई भी पक्ष तब तक इस मुद्दे पर आगे नहीं बढ़ना चाहता था जब तक कि वे सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति व वैधता को सैन्य रूप से सुरक्षित नहीं कर लेते है। 
  • वर्ष 1954 में तिब्बत में भारत के वाणिज्यिक अधिकारों पर द्विपक्षीय व्यापार संधि के माध्यम से ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धांतों’ को वर्णित किया गया था। 
    • इस दौरान भी भारतीय एवं चीनी वार्ताकारों ने जानबूझकर किसी भी विवादित हिस्से को व्यापार चौकियों के रूप में उल्लेख करने से परहेज किया था।
  • हालाँकि, हिमालयी सीमा पर चरागाहों में छिटपुट गतिरोध वर्ष 1954 की शुरुआत में ही मध्य क्षेत्र के ‘बारा होती’ जैसे क्षेत्रों में शुरू हो गया था। 
    • ऐतिहासिक रूप से ये सीमाएँ अत्यधिक अस्थिर थीं और दोनों पक्षों के कृषक इनका उपयोग करते थे। 
    • हालाँकि, राष्ट्र-राज्य का दर्जा लागू करने के लिए अब क्षेत्रीय विशिष्टता की आवश्यकता थी।
  • इसके बावजूद भारत व चीन दोनों ने सीमा मुद्दे को प्रत्यक्ष संबोधित करने के बजाए एक मजबूत बातचीत की स्थिति बनाने का विकल्प चुना।

सीमा विवाद की शुरुआत 

तिब्बती क्रांति 

  • वर्ष 1957 में तिब्बती क्रांति के शुरू होने के बाद दोनों देशों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। 
  • तिब्बती विद्रोहियों का पीछा करते हुए चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) की सेना विवादित सीमा क्षेत्रों में घुस गई जिससे प्राय: भारतीय सीमा गश्ती दल के साथ टकराव होता रहा। 
    • सीमा का कोई औपचारिक सीमांकन न होने के कारण दोनों पक्षों के सशस्त्र बल अत्यधिक चुनौतीपूर्ण स्थिति में रहे।

पहली सैन्य झड़प

  • वर्ष 1959 में पश्चिमी क्षेत्र (अक्साई चिन क्षेत्र) में कोंगका दर्रे पर हुई झड़प में नौ भारतीय सैनिक शहीद हो गए। 
  • इस घटना ने नेहरू (भारत के प्रधानमंत्री) एवं झोउ एनलाई (चीन के प्रधानमंत्री) को वार्ता के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि इसके बाद सीमा को अस्पष्ट बनाए रखना उचित नहीं था।

सोवियत संघ का हस्तक्षेप

  • सोवियत संघ ने चीनी आचरण की कड़ी आलोचना की। 2 अक्तूबर, 1959 को निकिता ख्रुश्चेव (सोवियत संघ के सर्वोच्च नेता) ने स्पष्ट रूप से माओत्से तुंग (चीन की कम्युनिस्ट क्रांति के जनक) एवं झोउ से भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए कहा। 
    • ताकि भारत को कम्युनिस्ट ब्लॉक से अलग न किया जा सके। 
    • इसके बाद चीन ने वचनबद्धता व्यक्त की कि वह पूर्वी क्षेत्र में ‘मैकमोहन रेखा’ का सम्मान करेगा और शीघ्र ही इस मुद्दे को समाप्त कर देगा।

भारत-चीन सीमा की स्थिति 

  • भारत, चीन के साथ 3,488 किमी. लंबी सीमा साझा करता है। ये सीमा लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम एवं अरुणाचल प्रदेश से होकर गुज़रती है।
  • ये सीमा तीन सेक्टरों (भागों) में बंटी हुई है :
    • पश्चिमी सेक्टर अर्थात लद्दाख 
    • मध्य सेक्टर अर्थात हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड
    • पूर्वी सेक्टर अर्थात सिक्किम एवं अरुणाचल प्रदेश
  • भारत पश्चिमी सेक्टर में अक्साई चिन पर दावा करता है किंतु यह क्षेत्र फ़िलहाल चीन के नियंत्रण में है। इस पर चीन ने भारत के साथ वर्ष 1962 के युद्ध के दौरान कब्ज़ा कर लिया था।
  • इसके अतिरिक्त चीन पूर्वी सेक्टर में अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है। चीन इसे दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा मानता है और तिब्बत एवं अरुणाचल प्रदेश के बीच की मैकमोहन रेखा को स्वीकार नहीं करता।
  • वर्ष 1914 में तिब्बत एक स्वतंत्र परंतु कमज़ोर राज्य हुआ करता था
  • लेकिन चीन ने तिब्बत को कभी स्वतंत्र नहीं माना और वर्ष 1950 में चीन ने तिब्बत को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया था।

भारत-चीन सीमा विवाद समाधान पहल 

नेहरु युग 

  • वर्ष 1960 में चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई एवं विदेश मंत्री चेन यी के साथ 31 सदस्यीय चीनी प्रतिनिधिमंडल भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ विवादित चीन-भारत सीमा के अंतिम समाधान पर बातचीत के लिए दिल्ली पहुंचे।
  • यह एक यथास्थिति समाधान था जिसके तहत चीन पूर्वी क्षेत्र में भारत के दावों को स्वीकार करेगा जो भारत के पूर्वोत्तर की सुरक्षा के लिए अधिक महत्वपूर्ण था।
  • इसके बदले में भारत अक्साई चिन के पश्चिमी क्षेत्र में चीनी संप्रभुता को स्वीकार करेगा। इस क्षेत्र में चीनी सेना को झिंजियांग के माध्यम से तिब्बती पठार से जोड़ने वाली मुख्य सड़क थी।
    • यह सीमा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा निर्धारित की गई थी जो भारत गणराज्य के साथ-साथ पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के अस्तित्व से भी अधिक समय से विवादित थी।
  • तत्कालीन भारतीय पक्ष लंबे समय से पूर्वी क्षेत्र में मैकमोहन रेखा को चीन द्वारा औपचारिक मान्यता के बदले में अक्साई चिन क्षेत्र में चीनी उपस्थिति को मान्यता देने के लिए तैयार था।
    • हालाँकि, सैन्य झड़प के बाद भारतीय जनमत इसके लिए तैयार नहीं था।
  • ऐसे में भारत एवं चीन भी सीमा विवाद समाधान के लिए एक ‘पैकेज डील’ के करीब पहुंचे किंतु प्रस्ताव को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका।

70 का दशक 

  • वर्ष 1979 में डेंग जियाओपिंग ने तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समक्ष चीन यात्रा के दौरान इस ‘पैकेज डील’ का प्रस्ताव रखा।
  • हालाँकि, भारतीय पक्ष ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे प्रत्येक क्षेत्र में सीमा विवाद को हल करने के लिए एक विस्तृत ऐतिहासिक अध्ययन पर बल देते रहे।

गठबंधन सरकार 

  • मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली एक कमज़ोर गठबंधन सरकार के पास इस तरह के समझौते को आगे बढ़ाने की क्षमता नहीं थी।
  • वर्ष 1984 में देसाई के उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी को इस समझौते की पेशकश की गई थी किंतु उनकी हत्या ने किसी भी गंभीर विचार को रोक दिया।
  • सीमा वार्ता स्थगित होने के कारण वर्ष 1986-87 में अंततः पूर्वी क्षेत्र में सुमदोरोंग चू घाटी में सैन्य गतिरोध उत्पन्न हो गया।

राजीव गांधी युग 

  • वर्ष 1988 में चीन ने एक बार फिर भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने इस समझौते की पेशकश की।
  • चीन चाहता था कि भारत मैकमोहन रेखा (जिसका नाम बदला जाना था) को स्वीकार करने के लिए पूर्वी क्षेत्र में चीन को मामूली क्षेत्रीय रियायतें प्रदान करे।
    • इसी तरह, अक्साई चिन क्षेत्र में चीन की संप्रभुता स्वीकार करने के लिए पश्चिमी क्षेत्र में भारत को मामूली चीनी क्षेत्रीय रियायतें दी जानी थी।
  • राजीव गांधी के पास ‘पैकेज डील’ को औपचारिक रूप देने के लिए आवश्यक संसदीय जनादेश था।
    • किंतु उन्होंने भी अपने राजनीतिक भविष्य के जोखिम से बचने के लिए और ‘शांति व सौहार्द’ सुनिश्चित करने के लिए सीमा पर विश्वास निर्माण उपायों पर सहमति जताई।

भारत-चीन सीमा-विवाद की वर्तमान स्थिति

  • वर्ष 2017 से चीन की निरंतर आर्थिक वृद्धि और नई सैन्य ताकत के मद्देनजर भारतीय पक्ष के सापेक्ष चीन अब यथास्थिति के आधार पर ‘पैकेज डील’ समाधान नहीं चाहता है।
    • इसके स्थान पर उसने एक नया ‘पैकेज डील’ प्रस्तावित किया है जो पूर्वी क्षेत्र, विशेष रूप से तवांग के आबादी वाले क्षेत्र, में भारत से असंगत रूप से रियायतों की मांग करता है।
  • यदि अतीत में एक अधिक अनुकूल ‘पैकेज डील’ पर सहमति नहीं बन पाई है तो शी जिनपिंग के नए प्रस्ताव पर सहमति बनने की संभावना बहुत कम है।

अन्य सीमा विवाद समाधान प्रयास

  • सीमा विवादों को निपटाने के लिए क्षेत्रों की अदला-बदली को वर्जित माना जाता है क्योंकि राज्य (राष्ट्र) की क्षेत्रीय संपत्ति अपरिवर्तनीय होती है।
    • सामान्यत: घरेलू जनता किसी राज्य के क्षेत्र से संबंधित किसी भी समझौते को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा, विचारधारा एवं राष्ट्र के अस्तित्व के समर्पण के रूप में देखती है।
  • कुछ समयावधियों में क्षेत्र की अदला-बदली जैसी रियायतें प्रस्तावित की जाती हैं और उन पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया जाता है।
    • नेहरू-झोउ एवं राजीव-डेंग काल में चीन-भारत संबंधों में ऐसे दो क्षण आए।
  • कई लंबित क्षेत्रीय दावों के बावजूद चीन ने म्यांमार, नेपाल एवं पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवादों को सुलझाया है।
  • भारत ने भी सीमा विवादों का अपना हिस्सा सुलझाया है जिसमें सबसे उल्लेखनीय वर्ष 2015 में बांग्लादेश के साथ एन्क्लेव का आदान-प्रदान करना था।

आगे की राह 

  • सीमा विवाद का अंतिम समाधान दोनों देशों के हित में है और इस संबंध में ‘पैकेज डील’ में कुछ बदलाव अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
  • चीन के लिए ताइवान या भारत के लिए कश्मीर के विपरीत चीन-भारत सीमा विवाद राष्ट्रीय पहचान के प्रमुख स्तंभों से संबंधित नहीं है।
  • संबंधित सीमा क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों या प्रतिद्वंद्विता से परे बड़े रणनीतिक लाभों के मामले में कोई विशेष लाभ प्रदान नहीं करते हैं।
    • ऐसे में पैकेज डील भारत की विकास संभावनाओं के साथ-साथ चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के भी अनुकूल होगा।
  • जब तक समाधान के लिए अनुकूल स्थितियाँ नहीं बन जाती हैं तब तक चीन एवं भारत को अपने संबंधों के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं को बढ़ाने तथा सीमा पर टकरावों को प्रबंधित करने के तरीके व साधन खोजने चाहिए।
  • चीन-भारत सीमा विवाद का समाधान भू-राजनीतिक विशेषज्ञों को यह निर्धारित करने में मदद करेगा कि एशिया शब्द का उपयोग शक्ति के संदर्भ के रूप में किया जाए या उभरते विश्व व्यवस्था में अंतहीन संघर्ष एवं हिंसा के क्षेत्र को दर्शाने के लिए।
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