(मुख्य परीक्षा, निबंध और सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
संदर्भ
वैश्विक परिदृश्य और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मामले में वर्ष 2020 में कई नई प्रकार की प्रवृत्तियों का जन्म हुआ है, जिसके वर्ष 2021 में और मज़बूत होने की संभावना है। अमेरिका में नेतृत्व परिवर्तन शायद सबसे प्रतीक्षित परिवर्तनों में से एक है।
यूरोप और चीन
- यू.एस. और यूरोप के बीच संबंधों को मज़बूत करने के बाइडन के वादे के बावजूद यूरोप ने ‘यूरोपीय संघ-चीन व्यापक निवेश समझौता’ पर सैद्धांतिक रूप से वार्ता को अंतिम रूप देकर चीन से जुड़ाव को मज़बूत किया है। यूरोप के इस कदम से वैश्विक परिदृश्य में चीन के अलग-थलग रहने की सभी चर्चाओं पर विराम लग गया है।
- भारत ने अप्रैल 2020 से चीन के साथ संबंधों में काफी कमी की है परंतु भारत स्वयं अकेला हो गया है क्योंकि कई देशों ने चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक संबंधों की संभावना व्यक्त की है।
चीन की मज़बूत उपस्थिति
- वर्ष 2021 की शुरुआत चीन के लिये अच्छी रही है क्योंकि प्रमुख देशों में यही एकमात्र देश है जिसकी वृद्धि दर वर्ष 2020 के अंत में सकारात्मक रही है। साथ ही, चीन की अर्थव्यवस्था के वर्ष 2021 में और भी तेजी से बढ़ने की उम्मीद है।
- सैन्य रूप से चीन ने स्वयं को अधिक मज़बूत कर लिया है और वर्ष 2021 में उसने अपने तीसरे विमान वाहक पोत को लांच करने की घोषणा के साथ यह स्पष्ट कर दिया है कि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रभावी होना चाहता है। इसके अतिरिक्त वह रूस के साथ अपने सैन्य समन्वय को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है।
- हांगकांग और उइगर मुस्लिमों के मामलों में कथित कार्रवाईयों के अतिरिक्त कई अन्य मामलों में उसकी आक्रमकता के बावजूद एशिया में उसकी स्थिति वर्ष 2020 से अधिक मज़बूत है। साथ ही, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में आंतरिक तनावों के बावजूद वर्ष 2021 के दौरान पार्टी के नेता तथा राष्ट्रपति के रूप में शी जिनपिंग की स्थिति की और मज़बूत होने की संभावना है।
- अत: वर्ष 2021 में पूर्वी लद्दाख में चीन द्वारा किसी भी प्रकार की रियायत की उम्मीद नहीं की जा सकती है, जब तक कि भारत अपनी स्थिति में कोई संशोधन नहीं करता है।
यूरोप और अर्थव्यवस्था
- नए वर्ष में चीन में शी जिनपिंग, रूस में व्लादिमीर पुतिन और तुर्की में रेसेप तैयप एर्दोआन जैसे मजबूत सत्तावादी नेताओं का वर्चस्व रहने की उम्मीद है। साथ ही, ब्रिटेन के बिना यूरोप (ब्रेक्जिट के संदर्भ में) तथा जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का सत्ता से हटना भी वैश्विक मामलों में कुछ प्रासंगिक हो सकते हैं।
- चीन-यूरोपीय संघ निवेश संधि ने यह साबित कर दिया है कि यूरोप, चीन की शर्तें मानने को तैयार है, जो इस बात का संकेत है कि यूरोप अपनी अर्थव्यवस्था को राजनीति से अधिक महत्त्व देता है।
- रूस अपने आस-पास के देशों में अधिक रुचि दिखाने लगा है और चीन व तुर्की के साथ उसके संबंधों में निकटता इस बात का संकेत है कि भारत जैसे देशों में रूस की रुचि कम हो गई है।
पश्चिम एशिया
- पश्चिम एशिया में अब्राहम समझौते ने सऊदी ब्लॉक और ईरान-तुर्की के बीच विभाजन को और स्पष्ट कर दिया है। अब्राहम समझौते के बावजूद ईरान और इजरायल के बीच टकराव का जोखिम कम नहीं हुआ है, जो भारत के लिये समस्या परक है, क्योंकि भारत के दोनों देशों के साथ संबंध हैं।
- साथ ही, चीन इस क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाने को इच्छुक है, जिसमें ईरान के साथ 25 वर्षीय रणनीतिक सहयोग समझौते पर विचार शामिल है।
- बिडेन प्रशासन के पदभार संभालने के साथ सऊदी अरब को वर्ष 2021 में कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। पश्चिम एशिया में सुन्नी अरब राज्यों के बीच समन्वय को ही सऊदी अरब के लिये अच्छा माना जाएगा। हालाँकि, इसके परिणामस्वरूप सुन्नी और शिया कैम्पों के बीच संघर्षों में वृद्धि हो सकती है।
- इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में रणनीतिक गतिशीलता को देखते हुए ईरान को परमाणु क्षमता का उपयोग करने के लिये उकसाया जा सकता है।
भारत और उसके पड़ोसी
- भारत वर्ष 2021 की शुरुआत में वैश्विक परिदृश्य से बाहर सा लगता है। चीन-भारत संबंधों में अभी तक कोई सफलता नहीं प्राप्त हुई है और आगे भी भारत व चीन के सशस्त्र बलों के बीच टकराव जारी रहने की भी उम्मीद है।
- वर्तमान में भारत पश्चिम एशिया में भी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा रहा है। भारत-ईरान संबंधों में गर्मजोशी की कमी है तथा अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया में भारत को हाशिये पर रखा गया है।
- यद्यपि भारत द्वारा पाकिस्तान को आतंक प्रायोजित राज्य के आरोपों का विश्व स्तर पर कुछ प्रभाव पड़ा है परंतु इससे दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव और बढ़ा गया है जिसने पाकिस्तान को चीन के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने में मदद की है।
- साथ ही, भारत और नेपाल के बीच संबंधों में अभी भी तनाव बरकरार है। हालाँकि, भारत ने बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका जैसे कुछ पड़ोसियों के साथ संबंधों को सुधारने के लिये कई प्रयास किये हैं, लेकिन अब तक इसके कुछ सार्थक परिणाम स्पष्ट नहीं हुए हैं।
- जैसे-जैसे भारत-चीन संबंध बिगड़ रहे हैं, भारत के पड़ोसी भारत का पक्ष लेने में हिचक रहे हैं, जिससे भारत का अलगाव बढ़ रहा है।
कूटनीति और धारणाएँ
- ऐसा माना जाता है कि भारत के राजनयिक उच्च स्तर की क्षमता के साथ अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं परंतु वे संभवतः अन्य कारकों से बाधित होते हैं। इसमें हाल के दौर में देश द्वारा अपनाई गई नीति और उसमें बदलाव हो सकता है।
- एक बार फिर से यह धारणा बलवती हुई है कि भारत की अमेरिका के साथ निकटता के परिणामस्वरूप रूस और ईरान जैसे पारंपरिक दोस्तों के साथ संबंध कमज़ोर हो गए हैं, जिससे देश की छवि प्रभावित हुई है।
- दूसरी ओर, एशिया और विशेष रूप से दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति अविश्वास और अस्पष्टता का मिश्रण लगती है। कभी-कभी त्वरित और तीखी प्रतिक्रिया (नेपाल के मामले में), पड़ोसियों की संवेदनशीलता की समझ में कमी (जैसे कि बांग्लादेश एवं पुराने दोस्त- वियतनाम और ईरान) और नीतिगत ज़रूरतों तथा अमेरिका जैसे देशों के दबाव को अत्यधिक महत्व देना इसका उदाहरण है।
- इस क्षेत्र में शक्ति के संतुलन में बदलाव के साथ चीन के उदय और एशिया में दो सबसे बड़ी शक्तियों के बीच बढ़ता संघर्ष कई अन्य देशों को इस संघर्ष में किसी न किसी का पक्ष लेने के लिये मज़बूर करता है।
भारत और अंतर्राष्ट्रीय संगठन
- वर्तमान में दो महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय निकायों में भारत की भूमिका काफी सीमित है, जिसका वह संस्थापक सदस्य हुआ करता था। इसमें गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) शामिल हैं। साथ ही, बिम्सटेक जैसे नए निकायों के उदय का प्रयास बहुत सफल नहीं रहा है।
- व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) (जिसमें अधिकतर एशियाई देश शामिल हैं) और रिक समूह (RIC- रूस, भारत और चीन) का भी लाभ उठाने में भारत विफल रहा है और रूस व चीन के साथ भारत के संबंधों में गिरावट ही आई है।
आगे की राह
- वर्ष 2021 में प्रवेश करते समय मुख्य धारा की वैश्विक घटनाओं से भारत का कथित हाशिए पर होना इसकी विदेश नीति की क्षमताओं में गिरावट का संकेत है। भारत की विदेश नीति का उद्देश्य अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करना, राष्ट्रों में अपनी भूमिका को बढ़ाना और तेजी से विघटनकारी वैश्विक प्रणाली में एक उभरती हुई शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना है। इसके लिये भारत को अपनी विदेश नीति में विचारात्मक खालीपन को भरना आवश्यक है।
- अगस्त, 2021 में भारत वैश्विक रूप से शक्तिशाली निकाय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करेगा। यदि भारत को अपनी उपस्थिति को प्रभावकारी बनाना है, तो इसे अपनी नीतियों को आकार देने के लिये पर्याप्त तर्क होने चाहिये, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ इसका प्रभाव पारंपरिक रूप से अधिक रहा है।